बॉम्बे सर्वोदय मंडल और गांधी रिसर्च फॉउन्डेशन

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अभी 12 मार्च को गुजरी 92 वीं सालगिरह के बाद, आज भी ‘नमक सत्याग्रह’ हमारे इतिहास के उस मोड की याद दिलाता है जिसने आजादी के अहिंसक आंदोलन को एक नई जीवनी प्रदान की थी। ‘दांडी मार्च’ और ‘नमक सत्याग्रह’ को बार-बार याद करना हमारी मौजूदा राजनीति, लोकतंत्र और विरोध के लिहाज से आज भी जरूरी है। इसका अनुवाद चैतन्य नागर ने किया है।

वह तारीख थी – 12 मार्च 1930, जब महात्मा गांधी एक अप्रत्याशित यात्रा पर निकले थे। उस समय तक वे लंदन से प्रशिक्षित एक ऐसे वकील थे, जो ब्रिटिश साम्राज्य से भारत की स्वतंत्रता के लिए एक जुनूनी कार्यकर्ता बनना चाहता था। गांधी जी इससे पहले भारत में ‘सविनय अवज्ञा आंदोलन’ का नेतृत्व कर चुके थे, लेकिन इस बार उन्‍होंने अपने समर्थक और सहयोगियों तक को थोड़ा हैरान कर दिया था।

नमक को लेकर गांधी को एक प्रदर्शन का नेतृत्व करना था। भारत में उस समय नमक पर लगने वाले टैक्स पर ब्रिटिश साम्राज्य का नियंत्रण था और इस आवश्यक खनिज पर औपनिवेशिक शक्ति द्वारा भारी कर लगाया जाता था। भारतीयों को स्वयं नमक बनाने की जुर्रत करने के लिए जेल भी हो सकती थी। गांधी ने जो यह मुद्दा उठाया, तो जैसे इसने उस समय उपनिवेशवाद के क्रूर प्रहार को उलझाकर रख दिया। गांधी ने कहा था, ‘हवा और पानी के बाद, नमक शायद जीवन की सबसे बड़ी आवश्यकता है। यदि हम सब मिलकर नमक कानूनों का व्‍यापक पैमाने पर विरोध करें तो भारतीय स्वतंत्रता के कारण को मजबूत करने में मदद मिलेगी।’

हालांकि गांधी के संगी-साथियों का कहना था कि उनका यह विचार कमजोर है और नमक कानून में सुधार कोई प्रेरक या प्रभावी या कहें कि पर्याप्त नारा नहीं बन सकता। भावी प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इसके बारे में कहा था कि, ‘हम हैरान थे और साधारण सी चीज नमक के साथ एक राष्ट्रीय संघर्ष करने में हम जैसे फिट नहीं हो सके थे। जैसा कि नेहरू ने अपने एक अखबारी लेख में लिखा था, ‘इसे देखकर अपनी हंसी को रोक पाना मुश्किल है और हम कल्पना करते हैं कि सोच-समझ रखने वाले अधिकांश भारतीयों का मूड भी यही था।”  

अलबत्ता, गांधी जी के लिए यह एक महत्वपूर्ण बात थी। अहिंसक प्रतिरोध करते हुए उन्होंने इसे ‘सत्याग्रह’ करार दिया था। और, जबकि अहिंसा हमेशा गांधी के दर्शन के केंद्र में थी, उन्होंने नमक को लेकर स्पष्ट रूप से नियोजित अपने प्रदर्शन को एक तरह का सैन्य अभियान माना। ‘हम जीवन और मृत्यु के संघर्ष, एक पवित्र युद्ध में प्रवेश कर रहे हैं,’ उन्होंने कहा था। ब्रिटिश अधिकारी अडिग रहे, भारत के वायसराय ने लिखा, ‘फिलहाल इस नमक अभियान की संभावना मुझे रात में जगाए नहीं रखती।’

गांधी और उनके अनुयायियों का एक समूह 12 मार्च 1930 को अहमदाबाद में उनके आश्रम से निकला, जिसका अंतिम छोर 240 मील से अधिक दूर तटीय शहर दांडी था। इसका मतलब यही होगा कि 61 वर्षीय गांधी, जो कि अभी-अभी एक प्रतिष्ठित व्‍यक्ति बने थे, अपनी छड़ी और सादे सफेद वस्त्रों के साथ, प्रतिदिन लगभग 12 मील की पैदल दूरी तय करेंगे। यह विराट यात्रा उन्हें एक गाँव से दूसरे गाँव तक ले गई, जहाँ गांधी के उस प्रदर्शन के साथ उनके साथी प्रदर्शनकारियों की संख्‍या बढ़ती जा रही थी। वे हर रात रास्ते के किसी गांव में विश्राम करते थे। जब गांधी उन नमक कानूनों के खिलाफ भाषण देने के लिए हजारों स्थानीय लोगों के साथ हर पड़ाव पर इकट्ठा होते, तो उस दौरान अंतरराष्ट्रीय पत्रकारों और फिल्म निर्माताओं की भीड इस विशाल यात्रा को कवर करती थी।

गांधी ने इसे वर्ग के साथ-साथ राष्ट्रवाद के मुद्दे के रूप में तैयार किया था। यह भारत की उत्पीड़ित जनता के लिए एकता का एक खास बिंदु बना था। गांधी जानते थे कि भारत के गरीबों को राष्ट्रवादी उद्देश्य के लिए इसमें शामिल करना, स्वतंत्रता के पोषित उद्देश्य के लिए आवश्यक होगा। उस दौरान उन्‍हें न सिर्फ सुनने के लिए ग्रामीण आए, बल्कि वे लोग इस प्रदर्शन में शामिल भी हुए। वे गांधी के भाषणों से प्रेरित थे। वे न केवल ‘शक्ति के खिलाफ अधिकार की लड़ाई’ से जुड़े उनके मुखर स्‍वरों से प्रभावित हो रहे थे, बल्कि नदी के किनारों के साथ चलते हुए मीलों फैले उस विशाल मार्च के दौरान होने वाले कार्यक्रमों से भी जुड़ रहे थे।

सबसे महत्वपूर्ण क्षण तब आया जब वे प्रदर्शन के बाद अंततः दांडी पहुँचे। यहीं गांधी ने निर्णायक कार्य किया। उन्‍होंने अपना नमक बनाने के लिए समुद्र के पानी को वाष्पित करके शांतिपूर्वक, लेकिन जान-बूझकर नमक कानूनों को तोड़ा। उन्होंने हाथ में एक मुट्ठी नमकीन मिट्टी उठाकर घोषणा की: ‘इसके साथ ही मैं ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिला रहा हूं।’

उस प्रदर्शन की सफलता ने पूरे देश में बड़े पैमाने पर ‘नमक अवज्ञा’ को प्रेरित किया। लाखों लोगों ने नमक कानूनों को तोड़कर गांधी के द्वारा पेश किए गए उदाहरण का अनुसरण किया। यह अनुमान लगाया गया कि लगभग 60,000 लोगों को अंततः अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर लिया था और गुजरात में ‘धरसाना साल्ट वर्क्स’ पर एक अहिंसक छापे की तैयारी के दौरान गांधी को खुद भगा दिया गया था।

उनके बगैर छापेमारी जारी रही, प्रदर्शनकारी गांधी के अहिंसा के दर्शन पर खरे उतरे। पत्रकार वेब मिलर ने बताया, “विरोध प्रदर्शन करने वालों में से किसी ने भी पुलिस का वार रोकने के लिए हाथ नहीं उठाया। मैं जहां खड़ा था, वहां से मैंने लोगों की खोपड़ी पर डंडे के प्रहार के कारण आने वाली आवाजें सुनीं।”

तमाम तरह की हिंसा और सामूहिक गिरफ्तारियों के बावजूद गांधी का नमक को लेकर किया गया वह विरोध मार्च दुनिया का ध्यान खींचने में सफल रहा। गांधी को खुद ‘टाइम’ पत्रिका का ‘मैन ऑफ द ईयर’ नामित किया गया और अमेरिकी पत्रकारों ने नमक कानूनों की भारतीय अवहेलना की तुलना ‘बोस्टन टी पार्टी’ से की। ब्रिटिश सरकार को झुकना पड़ा और 1931 में गांधी भारत के वायसराय के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए मिले। इसके बाद राजनीतिक कैदियों को रिहा कर दिया गया और तटीय क्षेत्रों में भारतीयों द्वारा नमक के निर्माण की अनुमति दे दी गई।

गांधी के सहयोगी जो चाहते थे, यह उससे कम था और इसने निश्चित रूप से ब्रिटिश प्रतिष्ठान के भीतर कई लोगों के बीच क्रोध पैदा कर दिया था। उसमें विंस्टन चर्चिल भी शामिल थे। उन्‍होंने एक समय के ‘इनर टेम्पल’ के इस वकील पर वायसराय के महल की सीढ़ियां चढने वाले एक देशद्रोही फकीर के ‘घिनौने और अपमानजनक तमाशे’ की निंदा की।’

उस समय भारत की आजादी बहुत दूर थी (यह अंततः 1947 में मिली), लेकिन नमक को लेकर होने वाले उस प्रदर्शन का आम भारतीयों के मानस पर गहरा प्रभाव पड़ा। जैसा कि नेहरू ने कहा था, ‘असहयोग ने उन्हें दलदल से बाहर निकाला और उन्हें आत्म-सम्मान और आत्मनिर्भरता दी।’ यह आखिरकार गांधी को 20वीं सदी के सबसे प्रभावशाली विचारकों और कार्यकर्ताओं में से एक के रूप में स्थापित करने में मदद करने वाला आन्दोलन था। (सप्रेस)

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