गांधी जयंती पर विशेष
गांधी जी सही अर्थ में महात्मा थे। संसार के बहुत कम लोग इस अर्थ में महान हुए हैं, जिस अर्थ में मोहनदास करमचंद गांधी। वे महान पैदा नहीं हुए थे, न ही महानता उनपर थोपी गयी थी; उन्होंने इसे हासिल किया था, अपनी सकारात्मक ऊर्जा और अथक प्रयासों से। और वह इसलिए भी महान थे क्योंकि महान बनना उनका मकसद नहीं था, बल्कि उन्ही के शब्दों में, ‘महात्मा’ की उपाधि के कारण वह अक्सर शर्मिंदा महसूस करते थे!
राष्ट्रपिता गाँधी को रवींद्रनाथ टैगोर ने महात्मा कहा और गांधी जी ने उन्हें गुरुदेव की उपाधि दी। टैगोर ने गाँधी जी को महात्मा सिर्फ इसलिए नहीं कहा क्योंकि वे सिर्फ देशव्यापी राजनीतिक आन्दोलन से जुड़े एक महान नेता थे, जिन्होंने अपने समय के सबसे सशक्त देश के खिलाफ एक अहिंसक संघर्ष छेड़ा, सफल हुए और जिनकी एक आवाज़ पर पूरा देश वैसे ही मंत्रमुग्ध होकर वैसे ही चल पड़ता था जैसे ब्राउनिंग की कविता ‘पाइड पाइपर ऑव हेमलिन’ में पाइप वादक के पीछे एक भरे-पूरे शहर के सभी जीव। क्षमा करें इस वक्तव्य का उद्द्येश्य गांधी जी के अनुयायियों को जीव-जंतु कहना नही, बल्कि गांधी की असीम, अप्रत्याशित शक्ति को रेखांकित करना है। जब गांधीजी बोलते थे, तो पूरा देश सुनता था, और उनके कहे पर चल पड़ता था। उनकी क्रूर हत्या के बाद से उपजे शून्य को यह देश आज भी भर नहीं पाया है।
गांधी जी सही अर्थ में महात्मा थे। संसार के बहुत कम लोग इस अर्थ में महान हुए हैं, जिस अर्थ में मोहनदास करमचंद गांधी। वे महान पैदा नहीं हुए थे, न ही महानता उनपर थोपी गयी थी; उन्होंने इसे हासिल किया था, अपनी सकारात्मक ऊर्जा और अथक प्रयासों से। और वह इसलिए भी महान थे क्योंकि महान बनना उनका मकसद नहीं था, बल्कि उन्ही के शब्दों में, ‘महात्मा’ की उपाधि के कारण वह अक्सर शर्मिंदा महसूस करते थे! गांधी इसलिए भी महान थे क्योंकि उन्होंने जीवन के किसी सीमित क्षेत्र में काम नही किया, बल्कि एक दार्शनिक की तरह उसे उसकी समग्रता में समझने का प्रयास किया; उसके विस्तृत कैनवस पर फैले हर रंग को। वह महान थे क्योंकि उनकी कथनी और करनी के बीच फासला नहीं था। जीवन के हर पहलू पर उन्होंने विचार किया, अपनी समूची जीवन शैली को खंगाला और भोजन, आहार, वेश-भूषा जैसे साधारण समझे जाने वाले विषयों को लेकर भी गंभीर विचार किये, अपने जीवन के साथ अनूठे प्रयोग किये। गौरतलब है कि उन्होंने अपनी अंतर्दृष्टियों को प्रयोग कहा, न कि सिद्धांत। प्रयोग शब्द से जो ध्वनि आती है वह सहिष्णुता और लचीलेपन के बहुत करीब है। प्रयोग लगातार समझने की प्रक्रिया में लगे हुए लोग करते हैं, और ऐसे लोग पुराने मतों को एक तरफ रख कर नए प्रयोग करने के लिए हमेशा तत्पर रहते हैं। जबकि सिद्धांत में एक तरह का हठ और कठोरता होती है।
गांधी जी ने लगातार लोगों से यही कहा कि उनके शब्दों को सुनने से बेहतर होगा कि वे उनके जीवन को देखें क्योंकि उनका जीवन ही उनका सन्देश है। इस सम्बन्ध में उनका एक और कीमती वक्तव्य था कि आप जिस परिवर्तन को समाज में देखना चाहते हैं, वह आप स्वयं के भीतर ही लाने का प्रयास करें। इसके ठीक विपरीत आज के व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में हमारी मुखौटे पहनने की क्षमता ही यह निर्धारित करती है कि आप कितने कामयाब और प्रतिष्ठित होंगें। आज के राजनीतिक और सामजिक जीवन को देख कर कोई इस निराशाजनक निष्कर्ष पर पहुंचे बगैर नहीं रह सकता कि जिस समाज का स्वप्न गांधी जी ने देखा था, उससे हम कोसों दूर भटक चुके हैं। जहाँ खुले आम निजी और सामाजिक जीवन में पाखंड महिमामंडन शुरू हो जाए, स्पष्ट है कि वहां गांधी के आदर्शों को अप्रासंगिक और अव्यवहारिक समझा जाएगा। यहाँ एक और बात गौरतलब है। कोई भी समाज भौतिक रूप से संपन्न व्यक्ति को न सिर्फ स्वीकार करता है, बल्कि उसे अपना आदर्श भी बना लेता है, उसकी तरह बनने की कोशिश भी करता है। उसी समाज के सामने जब कोई बौद्धिक और आतंरिक समृद्धि की बातें लेकर आता है तो उसकी उपस्थिति समाज में एक खलबली मचा देती है। फिर उसके साथ हम वही करते हैं जो गांधी जी जैसे लोगों के साथ किया जाता रहा है: उन्हें अनदेखा करते हैं, उनकी झूठी पूजा करते हैं या उन्हें ख़त्म कर देते हैं। गाँधी जी के साथ बारी-बारी से यह तीनों घटनाएं हुईं।
जब एक समाज भावनात्मक अर्थ में सामूहिक हृदयाघात का शिकार हुआ जा रहा हो, वहां गाँधी ने बौद्धिक समझ से और गहरे उतर कर ‘ह्रदय के गुणों को संवर्धित’ करने के प्रयास किये। यह प्रयोग उन्होंने तभी किये थे जब वह दक्षिण अफ्रीका में टॉलस्टॉय फार्म नाम से एक स्कूल चलाते थे। तभी उन्होंने यह महसूस किया था कि एक बेहतर और प्रज्ञाशील जीवन के लिए सिर्फ शुष्क बौद्धिक समझ ही नहीं एक धड़कता हुआ, स्नेह से स्पंदित ह्रदय चाहिए। वहां एक बार उन्होंने एक बच्चे को छडी से मार दिया था, और उसके तुरंत बाद उन्हें यह समझ आया कि किसी बच्चे को मारने का उनका कारण उसे सही रास्ते पर लाना नहीं, बल्कि अपने क्रोध को व्यक्त करना था। ऐसे मौके पर किसी बच्चे की गलती ढूंढ कर उसे दोषी न ठहरा कर गाँधी जी ने स्वयं को समझने की कोशिश की और यह पाया कि वही अपने भावावेश में बेकाबू हो गए थे। उन्होंने उस बच्चे को अपना शिक्षक बताया और कहा कि उसकी वजह से वह खुद के क्रोध को समझ पाए। यह एक महान व्यक्ति का गुण है जो सिर्फ बुद्धि प्रधान नहीं, बल्कि भावनाप्रधान जीवन भी जीता है। उसके दोनों तरह के जीवन के बीच कोई कलह नहीं होता। गाँधी जी का यह इशारा था कि शिक्षा एक सहयात्रा है जिसमे छात्र और शिक्षक साथ साथ एक दूसरे का हाथ थामे चलते हैं। यह पुस्तक केन्द्रित और शिक्षक केन्द्रित न होकर जीवन केन्द्रित होनी चाहिए।
गांधी जी का जन्मदिन एक अवसर है जब उनके कुछ प्रयोगों को समझने की कोशिश की जानी चाहिए और यह देखा जाना चाहिए कि उन्होंने जो प्रयोग किये उनमें मनोवैज्ञानिक दृष्टि से कुछ खामियां भी थीं क्या। यौनिकता के प्रति उनके दृष्टिकोण पर अक्सर सवाल उठाये जाते हैं। यौनिकता का अर्थ सिर्फ सेक्स नहीं बल्कि विपरीत सेक्स के सदस्यों के प्रति किसी का समूचा रवैया है। गांधी जी ने यौनेच्छाओं के दमन की वकालत की थी। क्या सेक्स से सम्बंधित गांधी जी के विचारों के पीछे उनका निजी अनुभव और उससे जुड़ा ग्लानि बोध था? अपनी जीवनी में वह लिखते हैं कि जब उनके पिता करमचंद गांधी अपनी अंतिम साँसे ले रहे थे, तब गाँधी कस्तूरबा के साथ दैहिक सम्बन्ध में लिप्त थे। इसके बाद उन्हें गहरा अपराध बोध हुआ और करीब पैंतीस साल की उम्र में उन्होंने आजीवन ब्रह्मचारी बने रहने का संकल्प किया। यौनिकता के प्रति किसी के विचार विपरीत सेक्स के सदस्यों के प्रति भी उसके दृष्टिकोण को दर्शाते हैं। क्या गाँधी स्त्री को अपनी आध्यात्मिकता के मार्ग में बाधा मानते थे? यह सवाल कईयों ने उठाया है। गर्भ निरोधकों के उपयोग को लेकर उनके विरोध के बारे में सभी जानते हैं। वह परिवार नियोजन के लिए प्राकृतिक उपायों को या फिर सेक्स से दूर रहने की सलाह देते थे। गांधी जी ने जब ब्रह्मचारी रहने की ठानी तब उन्होंने अपने भार्या कस्तूर बा के साथ इस बारे में सलाह मशविरा नहीं किया था। लम्बे समय तक इस आदर्श को थामे रहने के बाद भी सेक्स ने गांधी को आजीवन परेशान रखा। उन्होंने इस विषय पर बहुत कुछ लिखा भी। जब गांधीजी ने नवविवाहितों को सलाह दी कि वे अपनी आत्मा को पवित्र बनाए रखने के लिए ब्रह्मचर्य का पालन करें तब जवाहरलाल नेहरू ने गांधीजी के विचारों को ‘असामान्य और अप्राकृतिक’ कहा था।
गांधी के विश्वासों, शिक्षाओं और निजी विचारों में ‘पवित्रता’ के प्रति ऐसा दुराग्रह दिखता है जिससे अचानक उनके प्रयोग एक कठोर सिद्धांत का रूप ले लेते हैं और गांधीजी के लचीलेपन पर संदेह उठने लगते हैं। जॉर्ज ऑरवेल १९४९ में अपने एक लेख ‘रिफ्लेक्शन्स ऑन गाँधी’ में लिखते हैं: “संतों को तब तक अपराधी मानना चाहिए जब तक वे निर्दोष साबित नहीं हो जाते!” सेक्स के लिए भूखे एक देश में जहाँ हर बीस मिनट में एक बलात्कार होता हो, गाँधी जी के इन विचारों को गंभीरता से समझ कर उनका फिर से आकलन करने की आवश्यकता है। क्या कहीं भारतीय सामूहिक चेतना में सेक्स को लेकर कोई गंभीर अपराध बोध है और वह इसके प्रबल वेग को सही तरीके से समझ नहीं पा रहा? सेक्स की बेहतर समझ और जीवन में उसका न्यायोचित स्थान रखना ज्यादा सही है, न कि उसका दमन। इस सम्बन्ध में जेड एडम्स की किताब ‘गाँधी: नेकेड एम्बिशन’ पढने की सलाह दी जा सकती है। एडम्स ने अपनी किताब गांधी जी पर गंभीर शोध के बात ही लिखी है।
गांधी जी की सोच में एक और गंभीर मनोवैज्ञानिक त्रुटि देखी जा सकती है। मनुष्य जैसा है, उसे वैसा ही स्वीकार करने की बजाय वह इस पर ज्यादा जोर देते थे कि उसे ‘कैसा होना चाहिए’। इसका परिणाम बहुत खतरनाक हो सकता है और वास्तविकता एवं आदर्श के बीच का द्वंद्व किसी को भी एक भयावह पीड़ादायक स्थिति में डाल सकता है। गांधीजी खुद भी इससे गुजर चुके थे क्योंकि अपनी तथाकथित ‘अपवित्र कामनाओं’ का दमन करते हुए एक काल्पनिक ‘पवित्रता’ के आदर्श की और बढ़ना उन्होंने अपने जीवन का उद्येश्य बना लिया था।
आज का दिन एक तरह से इस पिटी पिटाई बात को फिर से जांचने का अवसर देता है जिसमे हम कहते हैं कि हमें गांधी जी के आदर्शों पर चलना चाहिए। गाँधी जैसा महान गरिमामयी जीवन किसी के आदर्श पर चल कर निर्मित नहीं होता। गीता, टॉलस्टॉय, ईसा मसीह और सनातन धर्म के कुछ सिद्धांतों के प्रभाव में जीते हुए भी गांधी ने उन्हें बस यों ही नहीं अपनाया था, उनपर मनन, चिंतन किया था और उन्हें लेकर अपने प्रयोग किये थे। इन ग्रन्थों और व्यक्तियों के प्रभाव के बावजूद गांधी की अंतर्द्रष्टियां शुद्ध रूप से उनकी खुद की ही थीं। आदर्शों के खोखलेपन को समझना बहुत जरुरी है क्योंकि हम जैसे हैं, उसे ठीक से समझ कर ही हम अपने भीतर बदलाव ला सकते हैं, न कि बाहर से किसी आदर्श को थोप कर और लगातार उसका पीछा करते हुए। कभी कभी इन प्रवित्तियों के कारण गांधी जी में अजीब तरह की हठधर्मिता और दुराग्रह की झलक दिखाई देती है। अपने बेटे और कस्तूरबा को ज्वर और टाइफाइड के दौरान डॉक्टर्स की सलाह के बावजूद उन्होंने अंडे नहीं खाने दिए। उनकी मरणासन्न दशा के बावजूद गांधीजी ने अपनी प्राकृतिक चिकित्सा जारी रखी। यह अलग बात है कि वे दोनों अपनी रुग्णता से बाहर निकल आये। पर आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टि से यह बात बिलकुल अनुचित लगती है और एक इस तरह के उदाहरण गांधीजी में एक अनावश्यक कठोरता का अस्तित्व दर्शाते हैं। एक तरह से वह अपनी अहिंसा के आदर्श का बड़ी बारीक हिंसा के साथ पालन करते प्रतीत होते हैं।
देश की आर्थिक नीतियों को लेकर गांधीजी और पंडित नेहरु के बीच मतभेद थे। गांधीजी औद्योगीकरण के विरुद्ध थे और नेहरु औद्योगिक प्रतिष्ठानों को आधुनिक भारत के मंदिर मानते थे। गांधीजी का मानना था कि उद्योग का अर्थ है और अधिक सामान, और उनके साथ में चलने वाली प्रतिस्पर्धा, लोभ, हिंसा और अंततः युद्ध। उनके विचार से औद्योगिक सभ्यता शैतान का आविष्कार थी। हर स्वप्नदर्शी की तरह गांधी ने आखिर में खुद को तनहा पाया। उन्हें गहराई से महसूस हुआ कि उनके दर्शन को साझा करने वाला कोई नहीं दुनिया में। प्रेम और करुणा का जो स्पर्श उनके जीवन में हुआ वह आम तौर पर लोगों की समझ से बाहर था। गांधी जी की पीड़ा यही थी। अपने कई अवैज्ञानिक प्रयोगों के बावजूद गांधी जी अपने समय से काफी आगे थे। उन्होंने जिन तरीकों, जीने के जिस ढंग की बात की, उसके लिए संभवतः मानव चेतना अभी तैयार नहीं हो पायी है। ऐसे में यह भी नहीं कहा जा सकता कि गांधी असफल रहे। हाँ, यह जरुर कहा जा सकता है कि गांधी ने जिस मनोदशा की, जिस प्रेम, अहिंसा और करुणा की बातें की उसके लिए हम व्यक्तिगत और सामाजिक रूप से तैयार नहीं हो पाए हैं। तो दोष गांधी के दर्शन का नहीं, हमारी समझ का है; हमारी उपलब्धता का है।
‘गाँधी: द रोड टू फ्रीडम’ में इतिहासकार रूद्रांशु मुख़र्जी आजादी के बाद अपने टूटे सपनों के बीच बैठे निपट अकेले महात्मा का बड़ा मार्मिक वर्णन करते हैं: “यदि आप पूछें कि आधुनिक भारत पर गाँधी का क्या प्रभाव है तो जवाब है: ‘कोई भी नहीं”। आजाद भारत ने गाँधी से मुंह मोड़ लिया है। गाँधी का बाजार पर भरोसा नहीं था…” जब भारत आजादी का जश्न दिल्ली में मना रहा था, तब गांधी कलकत्ता में खून खराबा रोकने की कोशिश में लगे हुए थे। रूद्रांशु मुख़र्जी आगे लिखते हैं: “उनका पूरी तरह मोहभंग हो चुका है। वह एक टूटे हुए इंसान हैं। वह नहीं सोचते कि इसी आजादी के लिए उन्होंने संघर्ष किया था। इस स्वतंत्रता के लिए वह नहीं लड़े थे। उनके दो सपने, अहिंसा और भारत की एकता, हिन्दू मुस्लिम एकता…ये दोनों उनकी आँखों के सामने चूर चूर होकर पड़े हैं, ठीक उसी क्षण जो उनकी विजय का क्षण भी हो सकता था। और उस समय की कई विडंबनाओं में से सबसे विराट तो यह थी कि देश के जन्म के समय ‘राष्ट्र का पिता’ वहां उपस्थित ही नहीं था! गाँधी भारत की आजादी के समय दिल्ली से दूर रहने का फैसला करते हैं…”
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