आजकल किसानों और किसानी से जुडे लोगों के बीच भारी बेचैनी दिखाई दे रही है। हाल में केन्द्र सरकार द्वारा संसद में पारित करवाए गए तीन कानूनों को लेकर देशभर में धरना, प्रदर्शन, चक्काजाम और रैलियां जारी हैं। क्या किसानी के संकटों से निपटने में गांधी-विचार कोई मदद कर सकता है?
भारत का किसान आज रास्ते पर है। पिछले दशकों में जो व्यवस्था चली है उसने पूरे किसान वर्ग को हाशिए पर लाकर खड़ा कर दिया था। जिस देश में 65 प्रतिशत जनता किसानी द्वारा देश का पेट भर रही हो, लेकिन देश की कमाई का उसे केवल 15-18 प्रतिशत ही मिलता हो, उस देश में यह कोई आकस्मिक बात नहीं है। यह नीति वर्षों से चली आ रही है। कभी विकास के नाम पर, कभी उत्पादकता के नाम पर तो कभी बेहतर जिंदगी के नाम पर यही नीति रही है कि किसान खेती करना छोड़ें, उद्योगों के हाथ में जमीन और दूसरे संसाधन आयें और किसान मजदूर बने।
राज करने का अंग्रेजों का तरीका ही भारतीय सरकारों ने अपनाया, लेकिन उसका एक फायदा यह है कि अंग्रेज सरकार से सफलतापूर्वक लड़ने वाला एक आदमी हुआ और उसने बताया कि अन्याय के खिलाफ कमजोर-से-कमजोर आदमी भी कैसे सफलता से लड़ सकता है। सन् 1918 में अहमदाबाद शहर के मिल मजदूर अपनी आय बढाने के लिए हड़ताल पर उतरे थे। मालिक और मजदूर के बीच की यह टकराहट या फिर सरकार और किसानों के बीच की चम्पारण की टकराहट किसी भी तरह आज की टकराहटों से भिन्न नहीं थीं।
तब से आज में कुछ अगर भिन्न है तो उससे निबटने का गांधी का तरीका। अपने सत्याग्रहों में पहला काम गांधी करते थे, सत्य की जांच करना। अहमदाबाद के मिल कामगारों की मांग में सच्चाई पा कर ही गांधी उनके पक्ष में खड़़े हुए। अगला कदम था, जो सच है उस पर अडिग रहना। कुल 25 दिन चली अहमदाबाद की लड़़ाई के दौरान मिल मालिक कामगारों को लालच देकर तोड़ रहे थे। ऐसे में गांधी जी ने अपने जीवन का पहला आमरण अनशन किया। तीन दिन चले इस उपवास का नतीजा यह हुआ कि मिल मालिक और मजदूर एक बनकर निकले। समाधान ऐसा निकला जिसकी कल्पना करना तब तक मुश्किल था। एक ऐसा समाधान जिसमें हर पक्ष विजयी महसूस करे। मिल मालिकों ने मजदूरों की मांगें तब तक मान लीं, जब तक निष्पक्ष कमीशन की जांच पूरी नहीं हो जाती। मजदूरों ने भी इस बात को माना कि यदि निष्पक्ष कमीशन कहे कि मजदूरों को मिला मुआवजा ज्यादा है तो वे उतना पैसा लौटायेंगे।
गांधी के सत्याग्रह के तरीके ने यह बताया कि हमारे हित आप संरक्षित कराते हों, यह जरूरी नहीं है। और अगर टकराते हों, तब भी ऐसा समाधान निकालना सम्भव है जिसमें सबका हित हो। जरूरत है तो सत्य के आग्रह की।
इसी प्रकाश में हम हमारे देश के किसानों की समस्या को देखें। हमारे किसान की समस्या यह है कि उसे सही दाम नहीं मिलता। यदि उसे सही मुआवजा मिलने लगे तो अपनी समस्याओं के समाधान वे खुद ही खोज लेंगे। हमारा किसान अपने धर्म को भी समझता है कि वह किसी असीमित लूट का हिस्सा नहीं बन सकता, क्योंकि वह दुनिया के भूखे जीवों का पेट भरता है।
दूसरी तरफ सरकारें हैं। यदि हम यह मान भी लें कि सरकारें किसानों को मदद करना चाहती हैं, तो भी सच यह है कि पैसे छाप कर – दाम के रूप में, खरीद के रूप में या फिर सीधे पैसे किसान के अकाउंट में भेज देने के रूप में निकलने वाला समाधान टिक नहीं सकता। यह कोई सम्मानजनक उपाय भी नहीं है। ऐसे में किसान हमेशा ही याचक और सरकार दाता की भूमिका में रहेंगे।
तीसरी तरफ उद्योग हैं जो किसान के उत्पाद को कम-से-कम भाव में कच्चे माल के रूप में ले कर अपनी रोजी-रोटी चलाना चाहता है।
भारत के पास सहूलियत यह है कि यदि लोगों को सम्मानजनक जीवन और रोजगार मिले तो उसे किसी बाहरी देश पर निर्भर रहने की जरूरत नहीं। देश की जनता ही भरपूर उत्पादन भी करे और उसका उपयोग भी।
किसान अपने-अपने राज्य में सहकारी संस्थाएं (कोऑपरेटिव) बनायें तो पहल उनके हाथ में आ सकती है। सच्चाई से बनाए गए इस ढांचे में गरीब-से-गरीब किसान को फायदा पहुंच सकता है। इससे सबसे जरूरी बात यह होगी कि किसान अपनी उपज का दाम खुद तय करेगा। सही या गलत, किसी ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ की जरूरत नहीं रह जाएगी। सरकार और उद्योग दोनों को किसान के तय किए हुए दामों पर खरीदना होगा। यदि उद्योग और जनता, किसान को उचित दाम दे दे तो किसानों को अपनी उपज सरकार को बेचने की मजबूरी नहीं रह जाएगी। सरकार को भी जरूरत से ज्यादा खरीदने की कोई मजबूरी नहीं रह जाती है।
‘अमूल’ ने गुजरात में यह कर दिखाया है, जबकि उनका उत्पाद – दूध तो तुरंत खराब हो जाने वाला उत्पाद था। क्या किसान ऐसा कुछ कर सकते हैं? महाराष्ट्र में जरूर किसान सहकारी संस्थाओं से जुड़े हैं, लेकिन ये संस्थाएं कर्ज देने के काम में भी हैं। जहां इतने सारे पैसे का मामला हो, सच और ईमानदारी कोसों दूर रहती है और राजनीति कुंडली मार के बैठती है। गांधी के रास्ते से बने नए ढांचे को दलीय राजनीति में बंटने से भी बचाया जा सकता है।
सहकारी संस्था का काम यदि सिर्फ खरीद, बिक्री और फसल के दाम तक सीमित रखा जाय, तो व्यवहारिक दिक्कत कहां हो सकती है, यह भी सोचें। सबसे बड़ी समस्या तो एकता की है। अपने अस्तित्व के संकट की वजह से ही क्यों न हों, किसान साथ आए हैं, लेकिन यदि आसपास के राज्य इस बदलाव में नहीं जुड़़ते तो एक राज्य के दाम और दूसरे राज्य के दाम में बहुत फर्क आ सकता है। उद्योग और खरीददार भी जहां सस्ता मिलेगा वहीं से लेगा। इसलिए भी यह जरूरी है कि किसानों की एकता बनी रहे। पंजाब, हरियाणा और राजस्थान के किसान यदि एक हो जायें, तो गेहूं, धान, कपास, सरसों इत्यादि कई प्रकार की उपज के साथ यह प्रयोग सफलता से किया जा सकता है। .
यदि उत्पादन बहुत ज्यादा हो जाय तो निर्यात करना जरूरी हो जाएगा। ऐसे में दाम जब तक कम न हों, निर्यात सम्भव नहीं होगा। सामान्य परिस्थिति में कुल उपज का ज्यादा-से-ज्यादा 20-25 प्रतिशत ही निर्यात होता है। घरेलू दाम और निर्यात के दाम का औसत ऐसा बने कि किसान को घाटा न हो।
कभी ऐसा भी हो सकता है कि दुनिया के दाम इतने गिर जायें कि भारत में बाहर का उत्पाद आने लगे। ऐसे में यह सरकार की नैतिक जिम्मेवारी है कि वह बाहर से आने वाले सस्ते सामान पर कर लागू करे। जब कभी देश में फसल खराब हो जाये तो आयात की छूट भी दे। आयात और निर्यात करने के काम में भी किसी प्रकार की सरकारी दखल की जरूरत नहीं रहेगी क्योंकि यह काम सहकारी संस्थाएं खुद ही सम्भाल लेंगी। .
यह जरूरी भी नहीं है कि उपज का दाम हर साल बढ़ाया ही जाये। यदि किसानी में होने वाले खर्च नियंत्रित किए जायें तो भी मुनाफा बढ़ सकता है। सही मायने में जमीन की उर्वरता बचाते हुए वैज्ञानिक खोज से उत्पादकता बढाई जाये तो भी दाम बढाने की जरूरत नहीं रह जाएगी। जमीन की उर्वरता और अवैज्ञानिक बाजारू तकनीक का सबसे बड़ा भुक्तभोगी पंजाब और हरियाणा का किसान रहा है। इस सबके बावजूद कभी यह तो सम्भव हो ही सकता है कि घाटा हो, तो उस साल किसान को सम्भाल लेने की क्षमता संस्था अपने में विकसित करे यह न्यायप्रद है।
गांधी सी सच बोलने की हिम्मत, सच्चाई पर अड़े रहने की जिद और किसी भी सूरत में एकता बनाए रखने के संकल्प से ही न्यायपूर्ण समाधान संभव है। एक ऐसा समाधान, जिससे हर पक्ष विजयी महसूस करे। परिस्थिति फिर मांग कर रही है – करो या मरो!! (सप्रेस)
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