प्रो. एम. ज्ञानम

मोहनदास करमचंद गांधी की महात्मा बनने तक की यात्रा में कस्तूरबा की खासी अहमियत रही है। कस्तूरबा वीरता और त्याग में अपने पति से किसी भी प्रकार कम नहीं थीं। गांधीजी ने खुद कहा है कि मैंने अंहिसा-शक्ति कस्तूरबा से सीखी है। 22 फरवरी 1944 को जेल में ही गांधीजी की गोद में उन्होंने अपने वीरतापूर्ण जीवन को पूर्ण किया।

प्रो. एम. ज्ञानम

महात्मा गांधी की पत्नी कस्तूरबा वीरता और त्याग में अपने पति से किसी भी प्रकार कम नहीं थीं। गांधीजी ने खुद कहा है कि मैंने अंहिसा-शक्ति कस्तूरबा से सीखी है। हमारा दुर्भाग्य है कि हममें से कईयों को जितना गांधीजी की महानता के बारे में मालूम है, उतना कस्तूरबा की महानता नहीं मालूम। आइए उनकी महानता की कुछ झलकियां देखें।

मैं क्यों नहीं?

सत्याग्रह का जन्म दक्षिण अफ्रीका के जोहान्सबर्ग शहर में 11 सितंबर 1906 को हुआ था।  दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के प्रति हो रहे अत्याचारों के खिलाफ आठ साल चले इस सत्याग्रह के प्रारंभ में गांधीजी ने स्त्रियों को शामिल नहीं किया था। कस्तूरबा और अन्य महिलाएं सत्याग्रहियों की भरपूर मदद कर रही थीं। जब उनके पुरूष जेल में थे तब उनकी सहायता के बिना परिवार संभाल रहीं थीं, कस्तूरबा। दूर देश में, जहां उनके कोई रिश्तेदार भी नहीं थे, गांधीजी के कारावास के दौरान कस्तूरबा ने चार बच्चों के अपने परिवार को कैसे संभाला होगा, यह चकित करने वाली बात है।

सत्याग्रह के अंतिम दौर में महिलाओं को भी सत्याग्रह में प्रत्यक्ष रूप में भाग लेने की परिस्थिति उत्पन्न हुई। सन् 1913, 14 मार्च को दक्षिण अफ्रीका के न्यायालय के एक फैसले के अनुसार, ईसाई विवाहों और पंजीकृत विवाहों को छोड़कर अन्य विवाह अमान्य हो गये थे। उन दिनों आमतौर पर विवाह पंजीकृत नहीं होते थे, आज भी नहीं होते। सामाजिक स्वीकृति ही विवाह को प्रमाणित करती थी। इस अन्यायपूर्ण फैसले से हिंदू, मुस्लिम, पारसी धर्म की विवाहित महिलाएं गृहलक्ष्मी की सम्मानित हैसियत से अवैध हो गयीं, उनकी संतानें भी अवैध हो गयीं। स्त्रीत्व को हुए इस अपमान के खिलाफ गांधीजी ने स्त्रियों को भी सत्याग्रह में भाग लेने के लिए प्रेरित किया, लेकिन उन्होंने कस्तूरबा से इस संबंध में कुछ नहीं कहा।

कस्तूरबा इसे सह न सकीं। उन्होंने खुद पति से पूछा – ‘मुझे दुख है कि आपने इस संबंध में मुझसे कुछ नहीं कहा। मुझमें क्या कमी है कि मैं सत्याग्रह में भाग नहीं ले सकती?’ गांधीजी का जवाब था कि ‘इस तरह के मामलों में हर किसी को अपने साहस और शक्ति के अनुरूप खुद निर्णय लेना चाहिए। अगर मैंने तुमसे पूछा होता, तो हो सकता है कि मेरे लिए तुम हामी भर दो। बाद में अदालत में पेश होते समय अगर तुम कांपने लगतीं या जेल की यातनाओं से डर जातीं तो मैं उसे तुम्हारा दोष भी नहीं कह सकूंगा।’

कस्तूरबा – ‘अगर मैं कारावास को सह न सकी और माफी मांगकर बाहर आयी तो मुझे आप अपने जीवन से ही अलग कर दीजिए।’

गांधीजी – ‘फिर सोच लो अच्छी तरह। सोचने के बाद सत्याग्रह में भाग नहीं लेने का निर्णय लेती हो तो इसमें लज्जित होने जैसा कुछ नहीं है।’

कस्तूरबा – ‘मुझे कुछ नहीं सोचना है, मैंने पक्का निर्णय कर लिया है।’

कस्तूरबा ने अपने निर्णय के अनुसार सत्याग्रह में भाग लिया और जेल भी गयीं। उनका नाजुक शरीर कारावास के कारण मृत्यु की कगार पर पहुंच गया, लेकिन उनका चित्त दृढ था। उन्होंने न माफी मांगी, पति को खबर देने के लिए भी नहीं कहा, जेल में ही मरने तक के लिए वे तैयार थीं।

मैं जा सकती हूं न?!

सन 1930 में राजकोट रियासत में अन्यायों के खिलाफ सत्याग्रह चल रहा था। रियासत ने दमनकारी रवैया अपनाया, सत्याग्रह कई दिन चला, अपेक्षित फल नहीं मिल रहा था। सत्याग्रही थक गये, संचालक सरदार बल्लभभाई पटेल थे। उन्होंने अपने जिले बारदोली से कुछ सत्याग्रहियों को लाकर सत्याग्रह जारी रखना चाहा, लेकिन गांधीजी ने मना कर दिया। उनका मानना था कि सत्याग्रह कमजोरों का हथियार नहीं है। गांधीजी ने अपने स्वाधीनता आंदोलन के लिए किसी विदेशी से एक रूपया भी नहीं लिया था। वे बाहरी सहायता को सत्याग्रह का अपमान समझते थे। उन्होंने कह दिया कि राजकोट वालों को खुद सत्याग्रह करना चाहिए, बाहर से सहायता नहीं लेनी चाहिए।

इसे 70 साल की बूढी कस्तूरबा सुन रही थीं। उन्होंने कहा कि ‘मैं तो बाहर की नहीं हूं, राजकोट रियासत की ही हूं। मैं जा सकती हूं न !’ गांधीजी ने इस तर्क को स्वीकार किया और सहमति दी। कस्तूरबा को पहले रियासत में प्रवेश की अनुमति नहीं मिली, उन्होंने निषेधाज्ञा को भंगकर प्रवेश किया और जेल भेजी गयीं। सत्याग्रहियों में नयी स्फूर्ति आयी, सत्याग्रह जोरों से चलने लगा और विजयी हुआ। इस सत्याग्रह की नायिका कस्तूरबा ही थीं।

मैं क्यों घिघियाऊं?

8 अगस्त 1942 को मुंबई में कांग्रेस अधिवेशन में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ का प्रस्ताव पारित हुआ। उसी दिन रात को सभी कांग्रेसी नेता कैद हो गये। 9 अगस्त 1942 को सुबह-सवेरे 4.30 बजे गांधीजी को कैद करने के लिए पुलिस आयी। उन्होंने गांधीजी को वारंट दिखाया, साथ ही एक पत्र भी दिखाया। उसमें लिखा था कि अगर कस्तूरबा चाहती हैं तो वे पति के साथ जा सकती हैं। गांधीजी ने कस्तूरबा से पूछा ‘तुम क्या सोचती हो?’ 73 साल की कस्तूरबा ने दृढता से कहा ‘मैं क्यों घिघियाऊं? वे मुझे बंदी बनाकर भेजते हैं तो यह अलग बात है, आपके साथ भेजने के लिए मैं क्यों इनसे कहूं। इनको तो हम ‘भारत छोड़ो’ कह रहे हैं न?’

गांधीजी ने पूछा कि ‘फिर क्या करने जा रही हो?’

कस्तूरबा – ‘शिवाजी पार्क में शाम को आपका भाषण तय है न! मैं आपके स्थान पर वहां जाकर आपका संदेश सुनाऊंगी।’

शाम को कस्तूरबा शिवाजी पार्क के लिए निकलीं। पुलिस ने पूछा कहां जा रही हैं?’

सत्याग्रह में दुख-छिपाना, झूठ कुछ नहीं होता। तो कस्तूरबा ने कहा ‘शिवाजी पार्क।’

‘आप का जाना मना है?’

‘नहीं मैं जा रही हूं।’

‘तब तो आपको बंदी बनाकर ले जाना पडेगा, तैयार हो जाइए। कितने समय में आप तैयार हो सकती हैं?’

‘मैं अभी तैयार ही हूं।’कस्तूरबा को कैद किया गया। उन्हें गांधीजी के साथ ही ‘आगा खान महल’ के एक हिस्से को जेल बनाकर रखा गया। 22 फरवरी 1944 को जेल में ही गांधीजी की गोद में उन्होंने अपने वीरतापूर्ण जीवन को पूर्ण किया। पुणे के ‘आगा खान महल’ के परिसर के एक किनारे बनी समाधि उनकी वीरता की मौन साक्षी बनकर आज भी विद्यमान है। (सप्रेस)