अशोक शरण

आजादी के आंदोलन में जिस खादी को संघर्ष के एक कारगर औजार की हैसियत से नवाजा गया था, वह खादी आज बाजार में तरह-तरह के दबावों के चलते अपना अस्तित्व तक गंवा रही है। सवाल है, वस्त्र-स्वावलंबन की मार्फत आजादी का प्रतीक बनी खादी आखिर कैसे बची रहे?

खादी वस्त्र नहीं विचार है जिसकी मूल भावना स्वदेशी, ग्रामोद्योगों के मध्यम से ग्राम स्वराज्य के साथ-साथ विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार और अंग्रेजी हकूमत को देश छोड़कर जाने के लिए मजबूर करना था। धीरे-धीरे विचार तो कमजोर हुआ ही, अब तो खादी वस्त्र भी आखिरी सांस ले रहा है। बदलते परिवेश में खादी किसे कहें? ग्राहक कैसे यह सुनिश्चित करे कि वह शुद्ध खादी खरीद रहा है, न कि खादी के नाम पर कोई और कपड़ा। वर्ष 1956 के पहले खादी वही थी जो हमारी और आपकी साधारण समझ है। उसके बाद से खादी कानून के शिकंजे में जकड़ दी गई। ‘सूक्ष्म, लघु, मध्यम उद्यम मंत्रालय, भारत सरकार’ से सम्बंधित ‘स्थाई संसदीय समिति’ ने खादी की परिभाषा बदलने के लिए सुझाव मांगा था। हम इसके बारे में क्या सोचते हैं, क्या कताई, बुनाई में ऊर्जा का प्रयोग हो या नहीं, कितना हो, कैसे हो इस बारे में ठोस निर्णय लेने की आवश्यकता है। हालाँकि चरखे को सौर-ऊर्जा से चलाने का मन सरकार ने बना लिया है जिसे ‘प्रधानमंत्री स्वरोजगार योजना’ के अंतर्गत लाया गया है, ना कि खादी योजना के अंतर्गत।  

यदि खादी विचार को बचाए रखना है तो सरकार से अधिक देश की खादी संस्थाओं को सोचना होगा। खादी जमात इस विषय पर दो भागों में विभक्त है। एक वर्ग चाहता है कि खादी पहले की तरह हाथ से कती हुई हो और उसका उपयोग वस्त्र-स्वावलंबन के लिए हो। दूसरा वर्ग चाहता है कि जिस प्रकार टेक्नोलोजी का विकास हुआ है और ऊर्जा का प्रयोग रसोई से खेती तक होने लगा है, तो चरखे में भी उसका उपयोग होना चाहिए। इस विषय पर ‘प्रयोग समिति, अहमदाबाद’ और अन्य कई संस्थानों में शोध हुए हैं। इसे ‘खादी ग्रामोद्योग आयोग’ के साथ-साथ कई खादी संस्थाओं की मान्यता भी है।

खादी की बदलती समझ –   

–    गांधी जी ने वर्ष 1909 में हथकरघे को केंद्र बिंदु माना, जिसमें मिल के सूत का प्रयोग होता था। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘हिन्द स्वराज’ में चरखे का उल्लेख किया है। तब उन्होंने चरखा देखा नहीं था। जब वे 1915 में भारत आये तो ‘कोचरब आश्रम’ में करघे को चरखा समझकर कपड़ा बुनना आरम्भ किया। उसके लिए वे अहमदाबाद की मिलों से सूत लेते थे।

–    1915 में गांधी जी हाथ से कताई और हाथ से बुनाई की परिभाषा लाये। ‘साबरमती आश्रम’ में आकर उन्होंने चरखे की खोज शुरू की। मिल के एक कर्मचारी ने उन्हें कहा कि सूत कातने वाला चरखा एक अलग यन्त्र है। ‘साबरमती आश्रम’ की गंगा बहन ने बडौदा के बीजापुर गांव में चरखा देखा और इसकी सूचना गांधी जी को दी। गांधी जी ने आश्रम में चरखा मंगाया और कताई शुरू की।

–    1929 में गांधी जी की इच्छा थी कि पूनी बनाने का काम भी हाथ से हो। इसी वर्ष उन्होंने अच्छी गुणवत्ता और ज्यादा सूत कातने वाले ऐसे चरखे की खोज करने वाले को एक लाख के इनाम की घोषणा की जिसका निर्माण और मरम्मत गांव में ही हो सके। ‘नमक सत्याग्रह’ के दौरान ‘यरवदा जेल’ में उन्होंने चरखे पर संशोधन का कार्य जारी रखा। ‘यरवदा जेल’ में दो चाक वाले चरखे की खोज हुई, इसलिए इसका नाम ‘यरवदा चरखा’ रखा गया।

–    गांधी जी ने ‘चरखा संघ’ का कार्य ‘ट्रस्टीशिप के सिद्धांत’ के आधार पर किया। इसमें मुनाफे का कोई स्थान नहीं था। ‘चरखा संघ’ की बचत अलग एक कोष में रखी जाती थी। अंग्रेज सरकार ने इसे संस्था की आय मानकर इस पर टैक्स लगाया। गांधी जी ने इसका इस आधार पर विरोध किया कि ‘चरखा संघ’ सेवा संस्था है, लाभ कमाने वाली संस्था नहीं। अंततः ‘चरखा संघ’ ने इंग्लैंड के सर्वोच्च न्यायालय ‘प्रिवी काउंसिल’ में अपील की जिसने ‘चरखा संघ’ को सेवा संस्था मानकर आयकर से छूट दी।

–    1956 में ‘खादी ग्रामोद्योग आयोग’ के गठन के बाद हाथ से कताई और बुनाई को छोड़कर अन्य सभी स्तर पर ऊर्जा के प्रयोग की अनुमति दे दी गयी और पहली बार अधिनियम में खादी की परिभाषा उद्घोषित की गयी। ‘खादी का अर्थ है कपास, रेशम या ऊन के हाथ कते सूत अथवा इनमें से दो या सभी प्रकार के धागे के मिश्रण से भारत में हथकरघों पर बुना गया कोई भी वस्त्र।’

–    1977-78 में मानव निर्मित रेशे पोलिएस्टर को खादी में शामिल करने के लिए संसद में खूब चर्चा चली। अंत में इसके प्रयोग की अनुमति दी गयी, पर इस रेशे से बने वस्त्र को खादी की परिभाषा में शामिल नहीं किया गया। इसे ‘पोलिवस्त्र’ का नाम दिया गया जिसमें पोलिएस्टर का मिश्रण 67 प्रतिशत तक हो सकता है।

–    ‘अम्बर चरखे’ में सौर-ऊर्जा का प्रयोगकर अधिक सूत का उत्पादन करना, ताकि कत्तिन को अधिक आय प्राप्त हो सके। इसके लिए ‘एमगिरी (MGIRI) वर्धा,’ ‘प्रयोग समिति, अहमदाबाद’ तथा कई प्राईवेट कंपनियों द्वारा पिछले दस वर्षों से शोध किये गए हैं और जो ‘खादी ग्रामोद्योग आयोग’ द्वारा मानकीकरण की अंतिम प्रक्रिया में हैं।

खादी की नई परिभाषा क्या हो सकती है : 

–    जिस तेजी से खादी के स्वरुप, प्रक्रिया, मांग आदि में परिवर्तन आता जा रहा है, वह खादी को बाजार अभिमुख बनाती जा रही है। इसमें खादी क्राफ्ट, जो हाथ से कती और बुनी जाती थी, गौण होता जा रहा है। इसका दूर-दराज के गांवों के उन गरीब कत्तिन,  बुनकर या स्वावलंबी खादी के कार्यकर्ताओं पर प्रतिकूल असर होगा। ‘खादी ग्रामोद्योग आयोग’ और भारत सरकार की नीति भी इस बारे में स्पष्ट नहीं है।

–    सरकार द्वारा समय-समय पर चरखे को सौर-उर्जा द्वारा चलाने की वकालत लगातार की जा रही है। ‘प्रधानमंत्री स्वरोजगार सृजन कार्यक्रम’ के अंतर्गत सौर-ऊर्जा द्वारा चरखे को चलाये जाने की मान्यता तो ‘खादी ग्रामोद्योग आयोग’ ने बिना ‘खादी ग्रामोद्योग आयोग अधिनियम – 1956’ में संशोधन किये प्रदान कर दी है। इसके अतिरिक्त कुछ चुनी हुई खादी संस्थाओं को भी सौर-ऊर्जा द्वारा चलित चरखे बांटे गए हैं ताकि प्रयोगात्मक रूप से इसका अध्ययन किया जा सके।

–    इसका असर समस्त वस्त्र उद्योग पर पड़ेगा, विशेषकर खादी पर, क्योंकि सरकार द्वारा मिल, पावरलूम, हैंडलूम व खादी को अलग-अलग योजना के अंतर्गत अनुदान, प्रोत्साहन राशि व अन्य सुविधाएं प्रदान की जाती हैं। इसलिए खादी की नई परिभाषा क्या हो इस पर काफी विचार-विमर्श की आवश्यकता है। निम्न-लिखित परिभाषाएं प्रस्तुत की जा रही हैं, जिन पर गहन विचार-विमर्श के बाद ही अंतिम रूप दिया जा सकता है।  

1. क्राफ्ट खादी वह वस्त्र है जिसमें कताई, बुनाई, परिष्करण आदि कारीगरों के हाथों होते हैं और कारीगर की सृजनात्मक छाप को धारण किए होते हैं। यह खादी वह वस्त्र है जिसमें पुनाई, कताई, बुनाई के काम विकेन्द्रित शैली में होते हैं और उसमें सौर-ऊर्जा जैसे विकेन्द्रित गैर-पारंपरिक स्रोतों का उपयोग होता है।

2. ग्रीन खादी वह खादी है जिसमें जैविक खेती और उसके बराबर की पर्यावरणीय संरक्षण पद्धतियां उत्पादन के प्रत्येक स्तर पर अपनाई जाती हैं। इसकी कताई-बुनाई में सौर-ऊर्जा का प्रयोग मान्य होगा।  

खादी की परिभाषा पर चिंतन करने की आवश्यकता क्यों है? इसका एक बड़ा कारण शुद्ध रूप से वर्तमान खादी की परिभाषा के अनुरूप उत्पादन करने वाली खादी संस्थाओं और सर्वोदय विचार को मानने वाले लोगों की आत्मग्लानि है। वे मानते हैं कि खादी की कताई-बुनाई में बिजली का प्रयोग, जिसे ‘खादी ग्रामोद्योग आयोग’ ने खादी की परिभाषा में वर्जित किया है, उसी अनुरूप खादी का उत्पादन होना चाहिए जो आजकल नहीं हो रहा है। खादी के नाम पर खादी भंडारों में मिल और हैंडलूम का भी कपड़ा बिकने लगा है। इससे खादी के कत्तिन और बुनकर के रोजगार पर प्रतिकूल असर हुआ है।  

खादी के उत्पादन पर सरकार 20 प्रतिशत सबसिडी प्रदान करती है। मिल और हैंडलूम का कपड़ा बिकने के कारण वास्तविक कत्तिन, बुनकर को इसका लाभ नहीं मिल पाता। आज के युग में गांवों की रसोई तक में मिक्सी, दही बिलोने और पशुओं के लिए चारा काटने में भी बिजली का प्रयोग होने लगा है, तो 4-6 घंटे हाथ से चरखा चलाना अमानवीय है। इन्हीं सब कारणों से ‘खादी ग्रामोद्योग आयोग’ को खादी की परिभाषा बदलने पर विचार करना चाहिए जिसमें ऊर्जा के प्रयोग की अनुमति हो और सरकारी सबसिडी का पैसा भी सही कारीगरों के हाथों में जाए। (सप्रेस)

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