प्रस्तुति: दयाराम नामदेव

महात्‍मा गांधी ने जब महामारी से लड़कर लोगों को बचाने का फैसला किया था तब वह अकेले ही थे लेकिन लोगों का उन पर विश्वास था। जिस व्यक्ति को कहा वही गांधी के साथ जुड़ गया। यहाँ तक कि वे अंग्रेज भी गांधी के साथ आ गए जिनके खिलाफ वह लड़ रहे थे। गांधी का संघर्ष एक व्यक्ति के विरोध में न होकर साम्राज्यवाद की प्रवृत्ति के विरोध में था।

      भारत के पास महात्मा गांधी द्वारा दक्षिण अफ्रीका में संक्रामक महामारी का मुकाबला करने का समृद्ध अनुभव है। वह 1904 का साल था, जब गांधी वापस दक्षिण अफ्रीका गए। तब तक गांधी को दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले हिंदुस्तानी साम्राज्यवाद और नस्लीय भेदभाव से मुक्ति का नेता स्वीकार कर चुके थे। उस समय दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले हिंदुस्तानी में हिंदू, मुसलमान और पारसी थे। गांधी हमेशा ही जहां भी गए, सबसे पहले वहां के मजदूरों से मिलते थे। यहां तक कि जब वह ब्रिटेन गए तो वहाँ भी मजदूरों के दुःख दर्द को सुना-समझा। गांधी जब दक्षिण अफ्रीका पहुंचे तब वहाँ प्लेग महामारी फैल गई थी। हिन्दुस्तानी मजदूरों  के तिरस्कार के लिए ब्रिटिश लोग ‘‘कुली’’ शब्द का उपयोग करते थे और उनके रहने के इलाकों को ‘‘कुली लोकेशन’’ कहते। मजदूरों के इन इलाकों में साफ-सफाई के अभाव में गंदगी रहती थी, लेकिन महामारी उस गंदगी से नहीं बल्कि एक सोने की खदान से फैली थी।

      गांधी ने महामारी से लोगों को मुक्ति दिलाने के लिए चार तरीके अपनाए। पहला तरीका तो यह था कि वह खुद कुछ लोगों के साथ मजदूरों की बस्ती में गए। उन्होंने अपने साथ जाने के लिए कल्याणदास और माणेकलाल सहित चार लोगों को चुना। ये चारों ही लोग अकेले थे यानी परिवार नहीं था जिसके कारण बीमारी के फैलने का खतरा कम हो गया। जब इन चारों लोगों को गांधी ने समुदाय में जाकर बीमारी से मुक्ति की कोशिश करने की बात कही तो इन सब का एक ही जवाब था, जहाँ आप वहाँ हम।’’ ये गांधी के प्रति उनके सहकर्मियों का विश्वास था। एक मि. रिच भी थे, जो गांधी के साथ-साथ लोगों की सेवा में जाना चाहते थे। लेकिन गांधी ने यह कह कर मना कर दिया था कि उनका परिवार बड़ा है, उन्हें नहीं जाना चाहिए। मि. रिच ने बाहर रहकर सहयोग किया।

      गांधी ने दूसरा तरीका जन-संवाद का अपनाया। जन-संवाद के माध्यम के रूप में उस वक्त गांधी के पास अपना अखबार ‘इंडियन ओपिनियन’ था। उन्होंने महामारी विषयक पत्र लिखा जिसे पढ़कर कई लोग मदद के लिए आगे आए।

गांधी ने तीसरा तरीका लोगों से लगातार संवाद करके, उन्हें इस महामारी के प्रति जागरूक करने का अपनाया। उनको  मानसिक संताप से बाहर निकालने की कोशिश करते रहे।

इस महामारी से मुक्ति के लिए गांधी ने चौथे तरीके के तौर पर प्रशासन के कामों की समीक्षा करते हुए उसे लगातार उसके दायित्वों का बोध कराने को अपनाया। गांधी ने बीमार लोगों को अस्पताल पहुंचाया। लोगों के लिए खाने का इंतजाम किया। उन्होंने न केवल लोगों को दवा देने से लेकर पानी पिलाने तक की सेवा की बल्कि मरीजों का मल-मूत्र भी साफ किया। सोचिए उस इंसान के दिल में मनुष्यता के प्रति कितनी करूणा होगी। गांधी की निडरता एक तरफ साम्राज्यवाद से संघर्ष से जहाँ विकसित हुई वहीं मनुष्य को काल के मुंह से बचाने के कारण व्यापक हुई। उन्होंने आधुनिक चिकित्सा पद्धति से लोगों का इलाज होने दिया लेकिन साथ में परम्परागत चिकित्सा पद्धति का भी उपयोग किया। फेफड़ों की इस बीमारी के लिए डॉक्टर मरीजों को ब्रांडी दे रहे थे। गांधी ने तीन मरीजों का परम्परागत चिकित्सा पद्धति से इलाज किया उनकी छाती पर मिट्टी की पट्टी बांधी। इन तीनों मरीजों में से दो बच गए थे।

‘‘महात्‍मा गांधी ने जब महामारी से लड़कर लोगों को बचाने का फैसला किया था तब वह अकेले ही थे लेकिन लोगों का उन पर विश्वास था। जिस व्यक्ति को कहा वही गांधी के साथ जुड़ गया। यहाँ तक कि वे अंग्रेज भी गांधी के साथ आ गए जिनके खिलाफ वह लड़ रहे थे। गांधी का संघर्ष एक व्यक्ति के विरोध में न होकर साम्राज्यवाद की प्रवृत्ति के विरोध में था। गांधी ने महामारी के खिलाफ कारवाँ बनाने के बारे में अपनी आत्मकथा ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ में लिखा है भावना शुद्ध हो तो संकट के लिए सेवक और साधक मिल ही जाते है।

आज जब कोरोना जैसी महामारी में नेताओं को जनता से दूर होते देखते है तब प्रश्न उठता है कि क्या भारत सहित विश्व में नेतृत्व की भावना शुद्ध नहीं है? बिना जनता के तो संसार की कोई शासन प्रणाली नहीं चल पाई है आज तक। क्या लोगों की संवेदना ‘स्वयं’ को बचाने के दायरे से बाहर जाकर ‘अन्य’ को बचाने तक विस्तृत नहीं हो पा रही है ? इन सवालों का जवाब अभावों और संकट में फंसे इन करोड़ों लोगों की आवाज है जो हमारे आसपास गूंज रही है लेकिन हम उन्हें सुन नहीं पा रहे हैं या सुनकर अनसुना कर रहे हैं। (गांधीवाणी से संवाद)

श्री दयाराम नामदेव गांधी भवन ट्रस्‍ट भोपाल के सचिव है। लंबे समय तक आचार्य विनोबा भावे के साथ भूदान आंदोलन में सक्रिय रहे तथा सर्वोदय आंदोलन की गतिविधि को विस्‍तार देने में महत्‍वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया है।

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