महात्मा गांधी अपनी मृत्यु के बाद और भी युवा होते जा रहे हैं। युवा अवस्था महज शरीर में तेजी से दौड़ने वाले हार्मोन को नहीं कहते। वह विचारों का ऐसा केमिकल लोचा है जो खत्म होने का नाम ही नहीं लेता। इसलिए यह चुनौती इक्कीसवीं सदी के चित्रकारों, मूर्तिकारों, विचारकों और रचनाकारों की है कि वे एक युवा गांधी की छवि का निर्माण करें और उसे जनमानस में बिठाएं, क्योंकि गांधी बूढ़े नहीं निरंतर जवान हो रहे हैं।
अपनी 152 वीं जयंती पर महात्मा गांधी बूढ़े होते दिख रहे हैं या जवान? चूंकि हमने गांधी की बूढ़ी छवियां ही गढ़ी हैं इसलिए लगता है कि उन्नीसवीं सदी का वह आदमी इक्कीसवीं सदी में तो और भी बूढ़ा हो गया होगा। अगर जन्मतिथि के लिहाज से देखें तो शहीदे आजम भगत सिंह आज 114 वर्ष के होते। इतनी उम्र बूढ़े होने के लिए काफी होती है। स्वामी विवेकानंद 158 साल के होते। यानी वे तो गांधी से भी ज्यादा बूढ़े लगते। लेकिन हमने उन दोनों महापुरुषों की युवा छवियां कैद की हैं और वे आज भी युवाओं में अत्यधिक लोकप्रिय हैं। उनकी तस्वीर और मूर्ति देखते ही लगता है कि जैसे वे दोनों आज भी युवा अवस्था में हमारे सामने खड़े हैं और हमें देश और दुनिया के प्रति अपना कर्तव्य पूरा करने के लिए ललकार रहे हैं। जबकि उनके ठीक विपरीत गांधी हमारे सामने एक बूढ़ी काया के साथ लाठी लिए खड़े हैं। वे गांधी युवा भी रहे होंगे और उन्होंने युवा अवस्था में दक्षिण अफीका से चंपारण तक कम चमत्कारिक कारनामे नहीं किए थे।
दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह का इतिहास पढ़ते हुए उतने ही रोंगटे खड़े होते हैं जितने प्यारेलाल की पूर्णाहुति पढ़ते हुए। एक में युवा गांधी हैं तो दूसरे में 78 साल के बूढ़े गांधी। तकरीबन एक दर्जन बार मौत को हराते हराते आखिरी बार जब गांधी एक सिरफिरे की गोली के शिकार हुए तो उनका वजन 45 किलो के करीब था। लेकिन उनका नैतिक वजन इतना था कि उससे धरती हिल गई थी। उससे पहले उन पर इतने प्राणघातक हमले हो चुके थे कि वे मृत्यु के भय से परे थे वे। उन्हें लगता था कि ईश्वर ने उन्हें जो काम सौंपा है उसे पूरा किए बिना वह उन्हें उठाएगा नहीं। अगर शारीरिक सक्रियता ही किसी के युवा होने का प्रमाण है तो गांधी रोजाना 18 किलोमीटर पैदल चलते थे। यानी वे प्रतिदिन 22,500 कदमों की टहल करते थे। 1913 से 1948 तक चालीस सालों के दौरान उन्होंने तकरीबन 79,000 किलोमीटर की दूसरी तय की। यह दूरी दो बार धरती का चक्कर काटने के बराबर है।
यह आंकड़े इंडियन जरनल आफ मेडिकल रिसर्च यानी आईजेएमआर ने जारी किए हैं। गांधी ने लाखों शब्द और हजारों पेज लिखे हैं और हजारों-लाखों लोगों से संपर्क किया है। गांधी वांग्मय के सौ खंड प्रकाशित हो चुके हैं और उनकी संख्या निरंतर बढ़ती ही जा रही है। यानी शारीरिक और मानसिक रूप से इतने सक्रिय व्यक्ति की बूढ़ी छवि हमने आखिर क्यों अपने लोकमानस में कैद की? जबकि गांधी की मृत्यु के बाद उनकी चहेती कवयित्री और कांग्रेस की नेता सरोजिनी नायडू ने कहा था कि मैं नहीं चाहती कि हमारे गुरु और हमारे पिता की आत्मा को कभी शांति मिले। मैं चाहती हूं कि उनकी आत्मा निरंतर भटकती रहे और उन बुराइयों से हमेशा लड़ती रहे जिनसे वे अपने जीवन में टकराए थे। लेकिन फिर घूम कर सवाल वहीं आता है आखिर क्यों गांधी की बूढ़ी छवि तैयार की गई और उनके इर्द गिर्द ऐसा आख्यान रचा गया जो उन्हें हमारे युवाओं को उनसे दूर ले जाने वाला है?
किसान आंदोलन में सक्रिय तमाम नेता यह बात बताते हैं कि 10 महीने तक चलने वाले इस आंदोलन में ज्यादातर लोग भगत सिंह के चित्रों का तो इस्तेमाल कर रहे हैं लेकिन गांधी के चित्र कम से कम प्रयुक्त हो रहे हैं। जबकि पूरा आंदोलन व्यापक रूप से अहिंसक है। यानी भगत सिंह को मानने वाले गांधी के रास्ते पर चल कर ही अपनी बात रख रहे हैं और भारतीय लोकतंत्र को कारपोरेट और सांप्रदायिकता के चंगुल से बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। तो क्या हम मान लें कि गांधी की आत्मा भगत सिंह में प्रवेश कर गई है? यानी चित्र भगत सिंह का और रास्ता गांधी का? या हम यह कहें कि गांधी और भगत सिंह के बीच का अंतर और झगड़ा ही मिट गया है। दोनों ने पूंजीवाद और सांप्रदायिकता से टकराने और बराबरी और भाईचारे पर आधारित समाज बनाने का जो रास्ता दिखाया था वही आज भारतीय समाज का अभीष्ट है। इसलिए चार पीढ़ी से गांधी बनाम भगत सिंह का झगड़ा कराने वालों को अब तो नए तरीके से सोचना चाहिए।
जिस बात को डा. लोहिया बहुत साफ तरीके से कहते थे उस बात को आज फिर दोहराया जाना जरूरी है। उन्होंने कहा था कि देश में तीन तरह से गांधीवादी हैं। एक सरकारी गांधीवादी, दूसरे मठी गांधीवादी और तीसरे कुजात गांधीवादी। डा लोहिया पहली श्रेणी में पंडित जवाहर लाल नेहरू और उनकी सरकार के साथियों को रखते थे तो दूसरी श्रेणी में गांधीवादी संस्थाओं पर काबिज लोगों को रखते थे। वे तीसरी श्रेणी में खुद और अपने जैसे लोगों को रखते थे। आज डा लोहिया की इस श्रेणी को बदल कर कहा जा सकता कि हमें रेडिकल गांधी या क्रांतिकारी गांधी की जरूरत है। हमें बूढ़े नहीं युवा गांधी की जरूरत है। लेकिन उसी के साथ यह सवाल उठता है कि क्या गांधी 79 साल की उम्र में बूढ़े हुए थे? अगर गांधी बूढ़े हो गए होते तो प्रोफेसर सुधीर चंद्र `गांधी एक असंभव संभावना’ लिखने को न मजबूर हुए होते। बूढ़ा वह होता है जो मौत से डरता है। बूढ़ा वह होता है जिसमें नए विचारों और कर्मों का साहस नहीं बचता। बूढ़ा वह होता है जो युवाओं से संवाद करने से डरता है। बूढ़ा वह होता है जो अपने भीतर युग के अनुरूप परिवर्तन लाना छोड़ देता है। गांधी ऐसी किसी भी कसौटी पर विफल होने वाले नहीं थे। उन्होंने शरीर या दिमाग के बुढ़ा जाने और बिस्तर पर पड़े पड़े मर जाने के मुकाबले गोली खाकर मरने की कल्पना की थी। उनके साथ वैसा हुआ भी। लेकिन आज यह चुनौती इस देश और दुनिया के सामने है कि वह सरकार और मठों के भीतर से निर्मित की गई गांधी की बूढ़ी छवि से उनको बाहर निकाले।
गांधी अपने जीवन में चातुर्वर्ण से एक वर्ण की ओर आए। गांधी पूंजीवाद से समाजवाद की ओर आए। गांधी ईश्वर को सत्य मानने की बजाय सत्य को ईश्वर मानने की ओर आए। वे निरंतर क्रांतिकारी होते जा रहे थे और जिस विभाजन से उन्हें हारा हुआ बताया जाता है उसे पलटने के लिए वे पाकिस्तान की यात्रा करने की तैयारी कर रहे थे। इसलिए गांधी न सिर्फ अपने जीवन में निरंतर एक बमविहीन भगत सिंह का रूप धारण कर रहे थे बल्कि मृत्यु के बाद तो सांप्रदायिकता, संकीर्णता और नफरत के लिए एक बड़ी चुनौती बन कर उपस्थित हो रहे थे।
वे अपनी मृत्यु के बाद और भी युवा होते जा रहे हैं। युवा अवस्था महज शरीर में तेजी से दौड़ने वाले हार्मोन को नहीं कहते। वह विचारों का ऐसा केमिकल लोचा है जो खत्म होने का नाम ही नहीं लेता। इसलिए यह चुनौती इक्कीसवीं सदी के चित्रकारों, मूर्तिकारों, विचारकों और रचनाकारों की है कि वे एक युवा गांधी की छवि का निर्माण करें और उसे जनमानस में बिठाएं, क्योंकि गांधी बूढ़े नहीं निरंतर जवान हो रहे हैं।
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