रोजमर्रा के आमफहम जीवन को फिलहाल छोड भी दें तो महात्मा गांधी की ‘जयन्ती’ और ‘पुण्यतिथि’ की सालाना कवायद पर हम आम लोग कैसा महसूस करते हैं? ‘सप्रेस’ ने यही सवाल अपने एक वरिष्ठ साथी से किया। प्रस्तुत है, अपने अनुभवों को साझा करता रघुराज सिंह का यह लेख।
30 जनवरी : महात्मा गांधी : 75वीं पुण्य तिथि
मुझे गांधी न जाने क्यों रह-रह के याद आते हैं? मैंने गांधी को न देखा, न सुना। जब उनकी हत्या हुई तब मैं चार साल का भी नहीं था। सन् 1950 के आसपास जब स्कूल पहुँचा तब बस्ते में बाल-भारती और स्लेट के साथ एक तकली और पोनी (कपास) भी रहती थी। यह गांधी जी के चरखे का छात्र संस्करण था। उस समय स्कूल की सभी कक्षाओं में तकली से सूत कातने का एक पीरियड होता था। स्कूल में तकली और रूई के तालमेल से सूत कातना पाठ्यक्रम का जरूरी हिस्सा था। उस जमाने में तकली, पाठ्यक्रम की किताबें बेचने वालों के यहाँ मिलती थी।
तब तो यह समझ में नहीं आया कि तकली का गांधी जी से क्या रिश्ता है। जब समझ में आया तब तक तकली प्रचलन से बाहर हो गई, यानि गांधी की एक विरासत, एक पहचान स्कूल से विदा हो गई थी। इसका मतलब था, सार्वजनिक जीवन से चरखा की विदाई। यह एक प्रकार से देश के सार्वजनिक जीवन से गांधी की ही विदाई की शुरूआत थी। तब स्कूलों में ‘गांधी टोपी’ पहनना जरूरी था। बच्चे खादी की सफेद टोपी पहनकर आते थे, मास्साब भी। जब कक्षा तीन में पहुँचा तब तक खादी की सफेद टोपी भी सिर से उतर गई।
जब पाँचवी कक्षा में पहुँचा तो गांधी जी का एक पाठ उस समय की ‘बाल-भारती’ में था। उन दिनों भी ‘दो अक्टूबर’ की छुट्टी होती थी। इस दिन ‘गांधी जी की जय’ बोलते हुए प्रभात-फेरी मेरे छोटे से कस्बे अशोकनगर में निकाली जाती थी। इसमें बच्चों के साथ कस्बे के लोग भी शरीक होते थे। यह प्रभात-फेरी कस्बे के मुख्य मार्गों से होते हुए स्कूल पर ही पूरी होती। कुछ सालों बाद सरकारी छुट्टी तो होती, अब भी हो रही है, लेकिन ज्यादातर बच्चों का स्कूल जाना बंद हो गया और इसी के साथ प्रभात-फेरी भी। क्या विसंगति है कि गांधी जिनके जीवन में छुट्टी जैसा कोई दिन नहीं था, उनका जन्मदिन सार्वजनिक अवकाश होता है।
दूसरा आम-चुनाव सन् 1957 में हुआ था। हमारे कस्बे में राजनीतिक दलों की आमसभाएं होतीं, उसमें गांधी जी ने देश को अंग्रेजों से आजाद कराया, इसका जिक्र कांग्रेस के नेता जरूर करते। इस चुनाव में गुना-विदिशा संसदीय-क्षेत्र से कांग्रेस के विरोध में ‘हिन्दू-महासभा’ के नेता विष्णु घनश्याम देशपाण्डे चुनाव लड़े और जीते थे। उनके और उनके समर्थकों के भाषणों में गांधी जी का उल्लेख गैरहाजिर रहता।
हाईस्कूल की परीक्षा पास करते-करते यह जरूर हुआ कि गांधी जी के विषय में कुछ जानकारियां दिमाग में घर कर गईं। मसलन, उनका जन्म 2 अक्टूबर 1869 को पोरबन्दर में हुआ, उनकी माँ का नाम पुतलीबाई और पिता का नाम करमचन्द गांधी था। उनका विवाह कस्तूरबा के साथ छोटी उम्र में हुआ था और उन्होंने देश को अंग्रेजों से आजादी दिलाई। इसके बाद गांधी जी किसी कक्षा की पुस्तक में रहे भी हों, तो मुझे याद नहीं पड़ता।
जब मैं 1962 में कालेज की पढ़ाई के लिए ग्वालियर पहुँचा, तब तक गांधी जी की और भी फजीहत शुरू हो चुकी थी। चीन ने भारत पर आक्रमण कर देश की फिजा ही बदल दी थी। उस साल ‘साइंस कालेज’ में, जहाँ मैं पढ़ता था, छात्रों का सालाना जलसा (सोशल-गैदरिंग) नहीं हुआ। इसकी जगह ‘एकेडमिक वीक’ मनाया गया। इस ‘वीक’ में अटल बिहारी वाजपेयी, रसायनशास्त्री डा0 शेषाद्रि, रक्षा-विशेषज्ञ डा0 हक्सर और बालकवि बैरागी आए थे। अटल जी ने भारत की विदेश-नीति पर अपना व्याख्यान दिया था जिसमें गांधी जी कहीं नहीं थे। बैरागी जी ने अपनी चीन पर लिखी मशहूर कविता सुनाई थी। उसमें भी गांधी जी नदारद थे। सन् 1962-63 के अलावा 1966 से 1968 तक इसी कालेज में पढ़ा, लेकिन गांधी पर केन्द्रित कोई कार्यक्रम कालेज में नहीं हुआ, यह मैं पूरे भरोसे के साथ कह सकता हूँ।
तीसरा आम-चुनाव सन् 1962 में हुआ। इस चुनाव में ग्वालियर संसदीय क्षेत्र से वहाँ की महारानी विजया राजे सिंधिया कांग्रेस की उम्मीदवार थीं। उनके विरोध में डा0 राममनोहर लोहिया की पहल पर सुक्को मेहतरानी को उतारा गया था। यह चुनावी संघर्ष उस समय देश भर में ‘महारानी बनाम मेहतरानी’ के नाम से मशहूर हुआ था। जीत तो महारानी की तय थी, फिर भी डा0 लोहिया ने मेहतरानी को प्रतीक बनाकर गांधीवाद की लड़ाई बहुत ठसक से लड़ी थी।
चूंकि मेहतर शब्द में गांधी के कई संदर्भ जुड़े हैं, अतः इस चुनावी संग्राम में वे पूरी पवित्रता से मौजूद थे। पहली बार मैंने लोहिया जी से मेहतर का नया, किन्तु पूरी तरह सटीक अर्थ सुना था-मेहतर यानि जो महत्तर (महत्वपूर्ण) कार्य करे। क्या वक्त था और क्या लोग थे। यह एक तरह से लोकतांत्रिक प्रक्रिया में आखिरी बार, गांधी जी की मौजूदगी थी।
बाद के सभी चुनावों में राजनीतिक दलों के लिए गांधी पूरी तरह अप्रासंगिक हो गए। दल-बदल और ‘आयाराम-गयाराम’ की राजनीति से गांधी का सामंजस्य संभव ही नहीं था। देश में थोड़े से ‘कुजात गांधीवादी’ बचे थे जिनको वक्त के थपेड़ों ने खत्म कर दिया था। ‘मठी गांधीवादी’ गांधी के नाम पर देश भर में फैले गांधी-आश्रमों, भवनों और संस्थाओं पर काबिज होने की लड़ाई में पूरी ताकत से जुट गए। कुछ पर सरकार ने कब्जा कर लिया। साबरमती और वर्धा के गांधी से जुड़े स्मारक ‘टूरिस्ट डेस्टीनेशन’ हो गए हैं।
आजाद हिन्दुस्तान में गांधी बार-बार मारे जाते हैं। केवल पहली बार ही उनका नाम महात्मा गांधी था। दूसरी दफा जब उन्हें मारा गया तो उनका नाम था, बाबरी मस्जिद। तीसरी बार उनका नाम था, पादरी ग्राहम स्टेन्स जिसे उसके बच्चों के साथ जिन्दा जला दिया गया था। हर बार मारने वाले करूणा के आवरण में लिपटे, हाथों में धर्मध्वजा लहराते धर्मरक्षक थे। यह सिलसिला थमता नहीं है, जारी रहता है। नाम बदलते रहते हैं।
पिछले पन्द्रह सालों से मैं भोपाल के कुछ गैर-सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की भर्ती-प्रक्रिया का हिस्सा हूँ। हर साल सौ से ज्यादा युवाओं के साक्षात्कार में शामिल रहता हूँ। साक्षात्कार के दौरान प्राचार्य साहबान विषय से संबंधित सवाल पूछते हैं। मैं उनसे गांधी को लेकर बातचीत करता हूँ। मेरा उनसे सवाल होता है कि गांधी जी के जन्मदिन, जन्मस्थान, माता-पिता-पत्नी और पढ़ाई के अलावा वे उनके बारे में अन्य कोई जानकारी दें। दो-चार को छोड़कर सभी का जवाब होता है कि गांधी जी ने भारत को अंग्रेजी हुकूमत से आजादी दिलाई। शिक्षक बनने के लिए आतुर ये युवा गांधी के संघर्षों की विविधता से पूरमपूर जीवन के बारे में कुछ नहीं बता पाते।
अर्थशास्त्र पढ़ा युवा, गांधी के आर्थिक सिद्धान्तों को लेकर और समाजशास्त्र का उपाधिधारी उनके सामाजिक दर्शन को लेकर मौन साध लेता है। शिक्षा में स्नातक और परास्नातक गांधी की शिक्षा की अवधारणा से अपरिचित हैं। गांधी ने कैसे लोकतंत्र की कल्पना की थी? वे प्रजातंत्र, खेती-किसानी, रोजगार, धर्म और साम्प्रदायिक सद्भाव को लेकर क्या सोचते थे? चरखा और खादी उनकी जिन्दगी का हिस्सा क्यों थे? उनकी पत्रकारिता कैसी थी? आधे बदन पर धोती लपेटे क्या यह आदमी बिलकुल नीरस था या उसकी जिन्दगी में कोई रस भी था? क्या देश की आजादी के लिए फिरंगियों से जूझने के अलावा लम्बी गुलामी से गुजरे हिन्दुस्तान की अन्य समस्याओं से उनका कोई वास्ता भी था? जहाँ एक ओर वे इन सवालों में निहित कोई जानकारी नहीं दे पाते, वहीं बिना बोले उनके सपाट चेहरे साफ तौर पर चुगली खाते हैं कि ये सभी सवाल इन युवाओं के लिए अप्रासंगिक और अर्थहीन हैं।
इन सवालों को लेकर पुरानी पीढ़ी के एक शिक्षाविद् से चर्चा की तो वे गुस्से से तमतमा गए और उन्होंने जो प्रतिप्रश्न खड़े किए उनसे मैं शर्म में डूब गया। उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या देश की अर्थव्यवस्था गांधी के अर्थशास्त्र से चल रही है? क्या हमारे लोकतंत्र का गांधी से कोई वास्ता है? क्या शिक्षा में गांधी की ‘बुनियादी तालीम’ को कोई तवज्जो मिली है? क्या खेती गांधी के तरीकों से हो रही है? पत्रकारिता के आदर्श गांधी रहे हैं क्या? क्या देश के कर्णधारों ने गांधी के लिए राजसी ठाठबाट की परम्परा छोड़ी थी? आप प्रश्न तो पूछते हो, लेकिन क्या खुद खादी पहनते हो? उनके इसी तरह के प्रतिप्रश्नों से मुझे युवाओं की गांधी से विरक्ति का जवाब मिल गया।
गांधी के अजमाए और बताए सत्याग्रह और अहिंसा के आन्दोलन जैसे हथियारों को अमल में लाने वालों का क्या हश्र हुआ? मामला चाहे साल-दर-साल जूझ रहे नर्मदा के विस्थापितों का हो या फिर दिल्ली की सीमा पर सर्दी, गर्मी और बरसात में बैठे लाखों किसानों का। पर्यावरणविद् प्रोफेसर जीडी अग्रवाल उर्फ स्वामी सानंद गंगा-शुद्धिकरण की मांग को लेकर आमरण अनशन पर बैठे तो फिर उठे ही नहीं, लेकिन उनसे कोई बात करने नहीं गया। नर्मदा के विस्थापितों, किसानों और स्वामी सानंद जैसे लोगों को सरकारें विकास विरोधी बताती रहीं और हमारा बहुसंख्यक समाज मौन रहकर देखता रहा। शायद आज गांधी का यही स्वरूप हमारे सामने है। (सप्रेस)
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