राकेश दीवान

संसद में बजट प्रस्तुत करने वाली देश की वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण के पास इस सहज सवाल का कोई जबाव है कि देश के कुल 63 अमीरों के पास उन्हीं के पिछले साल पेश किए गए केन्द्रीय बजट से ज्यादा सम्पत्ति किस गांधीवाद की देन है? पिछले छह-साढे छह सालों में खासतौर पर चले गांधीवाद की एक रोचक बानगी है- किसी घरेलू कामगार महिला की सालभर की आय कमाने में जिस कंपनी-सीईओ को कुल जमा दस मिनट लगते हैं, ठीक वही महिला अगर उसी कंपनी-सीईओ की सालभर की आय कमाना चाहे तो, 2018-19 की दर से उसे 22,727 साल लगेंगे। यह कमाल कौन-से गांधीवाद की मेहरबानी से हुआ है?

गांधी को याद करने के सालाना अवसरों में से एक, ‘गांधी पुण्यतिथि’ या ‘शहीद दिवस’ मनाकर अभी दो -तीन दिन पहले फारिग हुए हमारे मन में क्या कभी यह खयाल भी आता है कि खुदा-न-खास्ता साक्षात गांधी हमारे सामने खड़े हो जाएं तो हम उन्हें किस तरह से देखना, महसूस करना और वापरना चाहेंगे? सब जानते हैं कि देखने-सुनने में भले ही कितने-भी सरल, सीधे हों, वापरने में गांधी सचमुच की टेढी-खीर हैं। ऐसे में क्या चहुंदिस, अहर्निश गांधी-गांधी का भजन गाकर, ‘दो-अक्टूबर’ और ‘30 जनवरी’ जैसे कुछ ‘दिवसों’ और ‘यात्राओं’ के टोटकों की मार्फत उन्हें देवता मान लेने से काम चल जाएगा? या फिर दक्षिण-अफ्रीका, फीनिक्स आश्रम, चंपारण, दांडी मार्च, नोआखली आदि के गांधियों में से किसी एक को चुनना होगा? आखिर अपनी पसंद के गांधी को चुनने के बाद ही तो हमें ‘गांधी-100,’ ‘गांधी-125’ और ‘गांधी-150’ मनाने की पात्रता मिलेगी।

भक्तों, भजनमंडलों के सुभीते के लिए चार-साढ़े चार दशक पहले डॉ. राममनोहर लोहिया ने गांधी को मानने वालों का रोचक वर्गीकरण कर दिया था। उनके मुताबिक तीन प्रकार के गांधीवादियों में ‘सरकारी,’ ‘मठी’ और ‘कुजात’ गांधीवादी शामिल थे। ‘सरकारी’ राज्य या सत्ता के साधन-संसाधनों की दम पर गांधी की नकल करने की कोशिश करता है और पारंपरिक ‘मठी’ गांधीवादी संस्था्ओं में बैठकर कर्मकांड की तरह गांधी को भजता है, लेकिन इनके बरक्स डॉ. लोहिया ‘कुजात’ को असली, मैदानी और कारगर गांधीवादी मानते थे। खुद और खुद के जैसों को ‘कुजात’ गांधीवादी बताते हुए डॉ. लोहिया का कहना था कि इस तरह का गांधीवादी अहिंसक सत्या‍ग्रह से लेकर मैदानी रचनात्मक कार्यों तक में खासी सक्रियता बरतता है। खुद डॉ. लोहिया ने भी संभवत: इससे प्रभावित होकर सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए ‘फावडा और जेल’ की तजबीज पेश की थी। बाद के दिनों में कॉमरेड शंकरगुहा नियोगी ने भी अपने ‘संघर्ष और निर्माण’ के नारे से कमोबेश इसी तरह की बात की थी।

डॉ. लोहिया के वर्गीकरण को मानें तो हमारे आम-फहम जीवन में ‘सरकारी’ गांधीवादियों का प्रभाव लगातार सक्रिय रहता है। वे ‘सौ वां,’ ‘सवा सौ वां’ और ‘डेढ सौ वां’ साल घोषित करते, हर स्कूल-कॉलेजों में गांधी-प्रतिमाएं लगाते, सभा-सम्मेलन, भाषण-प्रवचन करते-करवाते और इन्हें करने-करवाने की खातिर तरह-तरह की समितियां बनाते गांधी को याद करते हैं। यह साल ‘गांधी-150’ का है और हम सरकार की अगुआई में इसे लेकर भांति-भांति के कौतुक होते हुए देख और तालियां भी बजा रहे हैं, लेकिन क्या गांधी को याद करने के लिए ऐसे तमाशे काफी हैं? मसलन-आज संसद में बजट प्रस्तुत करने वाली देश की वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण के पास इस सहज सवाल का कोई जबाव है कि देश के कुल 63 अमीरों के पास उन्हीं के पिछले साल पेश किए गए केन्द्रीय बजट से ज्यादा सम्पत्ति किस गांधीवाद की देन है? पिछले छह-साढे छह सालों में खासतौर पर चले गांधीवाद की एक रोचक बानगी है- किसी घरेलू कामगार महिला की सालभर की आय कमाने में जिस कंपनी-सीईओ को कुल जमा दस मिनट लगते हैं, ठीक वही महिला अगर उसी कंपनी-सीईओ की सालभर की आय कमाना चाहे तो, 2018-19 की दर से उसे 22,727 साल लगेंगे। यह कमाल कौन-से गांधीवाद की मेहरबानी से हुआ है?

और कुछ नहीं, केवल सस्ती-सी गांधी की आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ को पढ़ने से कोई भी समझ सकता है कि गांधी क्या, किस बात की तरफदारी करते थे। उनका तो कहना ही था कि उनका जीवन ही संदेश है, लेकिन आर्थिक से लेकर पर्यावरणीय तक, जीवन से जुड़े किसी भी मामले पर सरकारों और उन्हें चलाने वाले राजनेताओं का पाखंड भर दिखाई देता है। वे गांधी के नाम पर मजमे तो खूब जमाते हैं, लेकिन उनकी किसी, छोटी-से-छोटी बात को अमल में लाने से कतराते हैं। इन दिनों जारी डेढ़ सौ साल के उत्सव को ही देखें तो जगह-जगह रटे-रटाए, उबाऊ भाषणों, बरसों से छापी जा रही पुनर्प्रकाशित पुस्तिकाओं और (अक्सर फूहड) चित्रों-मूर्तियों की मार्फत गांधी को समाज के गले उतारा जा रहा है। क्या इस धतकरम को खुद गांधी भी मंजूर कर पाते जिन्होंने पहले ही कौल रखवा लिया था कि उनका कोई ‘वाद’ नहीं होगा?

ईमानदारी से देखें तो अपनी निष्ठा, समझ और विस्तार के चलते ‘बड़े’ बने लोग असल में समाज को बदलने या विकसित होने का एक इशारा, एक औजार या एक तरकीब भर उपलब्ध करवाते हैं। वे कभी एक जगह बैठकर उनके अनुसरण की कदमताल करने की तजबीज नहीं सुझाते। जाहिर है, उनका मन्तव्य इन इशारों, औजारों और तरकीबों की अपनी-अपनी समझ के जरिए बदलाव का रास्ता तलाशने का होता है। कॉर्ल मार्क्स हों या महात्मा गांधी, सभी ने व्यक्ति, समाज और सरकार को उनके बताए बदलाव के औजारों के उपयोग का आग्रह किया है, लेकिन उनका अनुसरण करने का ढोंग करने वाला समाज उनकी फूहड नकल करने से आगे नहीं बढ़ पाता।

एक उदाहरण है-धर्म का, जिसके बारे में गांधी साफ तौर पर बार-बार कहते हैं कि अव्वल तो यह नितांत निजी मान्यता है और दूसरे धार्मिक होने से कोई दूसरे धर्म का दुश्मन नहीं बन जाता। वे कहते हैं कि मैं हिन्दू हूं और अपनी इस आस्था के लिए जान तक कुर्बान कर सकता हूं, लेकिन किसी दूसरे धर्म को, उस पर आने वाली किसी तरह की आंच से बचाने के लिए भी मेरी जान हाजिर रहेगी। क्या गांधी की यह समझ हमें अपने निजी, सार्वजनिक और राजनीतिक व्यवहार को तय करने में मदद नहीं करती? लेकिन क्या ‘गांधी-150’ में लगा कोई भी राजनीतिक, सामाजिक नेता निष्ठापूर्वक ऐसा करता दिखाई देता है?

आज के जमाने का एक और उदाहरण विकास का है, जिसमें गांधी ‘संयम’ के बुनियादी मंत्र को सामने रखते हैं। यानि विकास की किसी भी पहल के लिए प्रकृति, पर्यावरण, संसाधन और इंसानों का संयम से उपयोग किया जाना चाहिए, लेकिन ‘गांधी-150’ मनाने वाले किसी भी सत्ताधारी ने इस लिहाज से विकास की किसी भी परियोजना की कल्पना की है? विकास के नाम पर हजारों-लाखों एकड उपजाऊ जमीन, हजारों-लाखों पीढियों के पेड, सदियों पुराने सदानीरा जलस्रोत और इन सबके साथ सामंजस्य बिठाकर रहने वाले ग्रामीण, आदिवासी, किसान बेरहमी से उन्हीं लोगों की मर्जी और आदेश से उजाडे जा रहे हैं जो ‘गांधी-150’ के समारोहों में गांधीवादी होने की कसमें खाते हैं। सवाल है कि क्या आज के दौर में सत्ता और समाज पर कब्जा जमाए बैठे लोगों से गांधीवादी होने की कोई उम्मीद पाली जा सकती है या नहीं?

गांधी की मौजूदगी में ही सत्ता और विपक्ष से अलग, समाज की राजनीति करने वालों के गैर-दलीय राजनैतिक समूह उभरे थे। बाद में पर्यावरण, कृषि, वन, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि जीवनोपयागी मुद्दों पर इन समूहों ने लंबी लडाईयां लड़ी थीं। केरल का ‘साइलेंट वैली,’ उत्तराखंड का ‘चिपको आंदोलन,’ नर्मदा घाटी का ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन,’ तमिलनाडु और राजस्था्न के ‘परमाणु संयंत्र विरोधी आंदोलन’ ऐसे ही कुछ संघर्ष थे। आजकल गांधी को समझकर उनके इशारों, औजारों के जरिए बदलाव की बातों पर आगे बढने में वामपंथियों, समाजवादियों ने भी पहल शुरु की है, लेकिन गांधीवादी होने की उम्मींद हाल के ‘नागरिकता संशोधन अधिनियम’ (सीएए), ‘राष्ट्रीय नागरिकता पंजी’ (एनआरसी) और ‘राष्ट्रीय जनसंख्या पंजी’ (एनपीआर) के विरोध में जारी देशव्याापी आंदोलनों और उसमें सक्रिय युवाओं से बढी है। जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र, खान-पान आदि के विभाजनों से परे ये निडर युवा अहिंसक तरीकों और मजबूती से अपनी बात रख रहे हैं। शायद ये ही गांधी को फिर से खड़ा कर पाएं। और कुछ नहीं तो कम-से-कम वे सत्तर साल से पाखंडी टोटकों की तरह वापरे जा रहे गांधी को मुक्त तो करा ही सकेंगे।

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