गरीबी और शांति के बीच गहरा और एक-दूसरे पर निर्भरता का द्वंद्वात्मक रिश्ता रहा है। यानि यदि किसी समाज में गरीबी होगी तो वहां शांति स्थापना असंभव है। पडौसी बांग्लादेश में करीब चालीस साल पहले इसे एक प्रोफेसर ने महसूस किया और नतीजे में उनकी बनाई योजनाओं ने वहां गरीबी के साथ-साथ अशांति को भी कम कर दिया।
पिछले महीने (सितम्बर) की 21 तारीख को हमने ‘अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति दिवस’ मनाया था। इस मौके पर शांति के लिए तरह-तरह के विचार और सिद्धांत कहे-लिखे गए, लेकिन इन सब के बीच सबसे बड़ा सवाल बिना सुलझे रहा कि किसी समाज, देश और पूरी दुनिया में शांति कैसे आए? शांति सब तरफ हो, पूरी दुनिया में हो, यह आज की ज़रूरत है, लेकिन शांति के लिए युद्ध न होना या युद्ध की परिस्थितियों का न होना ही काफी नहीं है। शांति के लिए यह भी ज़रूरी है कि दुनिया का हर इंसान अपने जीवन में शांति महसूस कर सके।
इस नज़रिए से शांति तब तक नहीं आ सकती जब तक हर इंसान उन सब हालातों में ना हो जिसमें वह आजकल है। इन हालातों में सबसे बड़ी और बुरी बात गरीबी है। तमाम तरह की तरक्की के बाद भी दुनिया की 30 फीसदी आबादी गरीबी की हालत में रहने को मजबूर है। जिसके लिए यह आबादी जिम्मेदार नहीं है। जिम्मेदार वो लोग हैं जो अपने आप को रहनुमा कहते हैं और कहीं-न-कहीं व्यवस्था से जुड़े हैं।
एशिया, ख़ासकर दक्षिण एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में लाखों-करोड़ों लोग ऐसे हैं जो गरीबी के मानक, दो डालर या यूं कहें 150 रुपए रोज से कम में जिंदा रहने को मजबूर हैं। भारत में तमाम तरह की कोशिशों के बावजूद 28 फीसदी आबादी सरकारी तौर पर गरीबी में रहने को मजबूर है, जबकि गैर-सरकारी तौर पर यह आंकड़ा बहुत ज्यादा है।
देश में गांधीजी और आचार्य विनोबा ने इस स्थिति को अपनी जिंदगी के शुरुआती दौर में बहुत अच्छी तरह समझ लिया था। गांधी ने अपने प्रयोगों में गरीबी दूर करने के अनेक उपायों को आजमाया। जिसमें ग्राम स्वराज की परिकल्पना और उसका अमलीजामा देश की गरीब दूर करने में बहुत कारगर हो सकता था। बदक़िस्मती से आजादी के फौरन बाद गांधी जी की शहादत हो गई, नहीं तो गांधी जी ने जैसे अंग्रेजी राज के ख़िलाफ़ मुहिम चलाई वैसे ही वह गरीबी के ख़िलाफ़ मुहिम चलाते।
आचार्य विनोबा ने इसी गरीबी को खत्म करने के लिए भूदान और ग्रामदान की मुहीम चलाई और मुल्क को गरीबी से निजात दिलाने की एक राह और रोशनी की, लेकिन बाद में हमारी शासन व्यवस्था उस राह पर नहीं चल सकी, या ऐसे खराब हालात पैदा हो गए जिससे भूदान और ग्रामदान का उद्देश्य पूरा नहीं हो सका।
विनोबा जी भूदान और ग्रामदान अभियान के दौरान जिन सात बातों पर जोर देते थे उनमें पहली बात गरीबी दूर करने की थी, तो सातवीं बात विश्व शांति की थी। यानि दुनिया में शांति और सुकून तब तक नहीं आ सकता जब तक गरीबी खत्म नहीं हो जाती। यह बड़े मार्के की बात थी। यह सूत्र था जिसे हमारी व्यवस्था ना जान सकी और ना मान सकी। जब हम अपने मुल्क में इस पर ढंग से ध्यान नहीं दे सके, तो दुनिया में इस बात का झंडा कौन उठाता?
भूदान और ग्रामदान जैसे गरीबी दूर करने के सूत्र के आधे-अधूरे लागू होने के बाद भी दशक बीत गए, लेकिन इस पर गंभीर चर्चा नहीं हो सकी कि ग़रीबी दूर करने और शांति में आपसी सम्बन्ध क्या है। हालांकि गरीबी दूर करने के लिए अरबों-खरबों रुपए खर्च करके सैकड़ों योजनाएं चलाई गईं, लेकिन शांति तो कोसों दूर थी और अब भी है।
पूरी दुनिया में गरीबी दूर करने के लिए अलग-अलग मुल्कों में अलग-अलग तरीके अपनाए जाते रहे हैं। कहीं सरकारी तौर पर तो कहीं गैर-सरकारी तौर पर। हमारे मुल्क के पड़ौसी बांग्लादेश में घोर गरीबी थी। वहां की तानाशाही की सरकारें भी अपने मुल्क की गरीबी को दूर करने में जब कामयाब नहीं हो पाईं तो वहां एक गैर-सरकारी मुहिम शुरू हुई जिसने बांग्लादेश में ग्रामीण गरीबी को दूर करने में अहम किरदार निभाया।
यह मुहिम करीब चालीस साल पहले प्रोफेसर मुहम्मद यूनुस साहब ने शुरू की थी। हालांकि उस मुहीम का आधार गांधी और विनोबा के तौर-तरीकों से बिल्कुल अलग था। गांधी विनोबा के जाने के बाद उनके तमाम तरीकों के सामाजिक-आर्थिक बदलाव को देखते हुए और उस मुल्क के हालात को देखकर जो ज़रूरी लगा, वह आजमाया। लेकिन जो भी था, वह बहुत ही असरदार रहा।
प्रोफेसर मुहम्मद यूनुस ने बांग्लादेश में माइक्रोफाइनेंस का जो माडल बनाया वह बाद में बंगलादेश के ग्रामीण बैंक के गठन में और उसकी मार्फत बांग्लादेश में गरीबी दूर करने और मुल्क की तरक्की में अहम रहा। बाद में यह मॉडल दुनिया के और देशों में भी लागू किया गया। हमारे मुल्क में उस मॉडल को लागू तो किया गया, लेकिन अधूरे तौर-तरीकों से। बाद में यह माडल भी मुल्क की बाबूगिरी में उलझकर रह गया।
प्रो. मुहम्मद यूनुस ने अपने मुल्क में जो काम किया उसको अंतरराष्ट्रीय स्वीकृति भी मिलने लगी। लोग बांग्लादेश के गरीबी दूर करने के तौर-तरीकों की तारीफ करने लगे। बांग्लादेश के गरीबी दूर करने के मॉडल में प्राथमिक शिक्षा और प्राथमिक स्वास्थ्य को ध्यान में रखा गया था। इसका फल यह हुआ कि बांग्लादेश का ‘मानव विकास सूचकांक’ कई विकासशील देशों से भी ऊंचा हो गया। और-तो-और आर्थिक प्रगति में बांग्लादेश से कहीं आगे माना जाने वाला भारत भी ‘मानव विकास सूचकांक’ में बंगलादेश से पीछे हो गया।
ज़ाहिर है बंगलादेश में गरीबी मिटी तो सुख शांति आई और इसे अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर महसूस भी किया गया। इसी कारण 2006 में प्रोफेसर मुहम्मद यूनुस और उनके द्वारा स्थापित ‘बांग्लादेश ग्रामीण बैंक’ को संयुक्त रूप से ‘नोबेल पुरस्कार’ के लिए चुना गया। उन्हें यह पुरस्कार गरीबी दूर करके शांति स्थापित करने के लिए दिया गया जो कि एक अनोखी बात थी। मॉडल गरीबी दूर करने का और नोबेल पुरस्कार शांति का।
इस पुरस्कार ने गरीबी दूर करने और विकास में लगे कार्यकर्ताओं को चौंका दिया था। हमारे देश में विकास पुरुष कहे जाने वाले नेता तो भौंचक्के रह गए थे, जो बड़े-बड़े उद्योगों को ही विकास और गरीबी दूर करने का माध्यम मानते थे। लेकिन प्रोफेसर मुहम्मद यूनुस के मॉडल ने गरीबी दूर करने पर ही शांति और सुकून आने की अवधारणा को सिद्ध कर दिया। इससे यह भी सिद्ध हो गया कि बिना गांव और गांव के निवासियों की तरक्की के कोई भी देश ना तो तरक्की कर सकता है और ना वहां शांति स्थापित हो सकती है।(सप्रेस)
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