प्रतिभा चतुर्वेदी
पुण्यभूमि राम नगरी भगवान राम के कारण जानी जाती है तो वही उसी धरती पर प्रवाहित पवित्र नदी बेतवा के कंचन-घाट को बापू के अस्थि-विसर्जन के लिए भी जाना जाता है।
12 फरवरी सन 1948 को गांधीजी की अस्थियों का विसर्जन देश के विभिन्न भागों में अलग-अलग पवित्र सरोवर में किया गया था, रामनगरी ओरछा उन्हीं में से एक है। बापू जिस तरह राम नाम का जप करते थे, अंत समय उन्हें इस पवित्र रामनगरी से ही अंतिम विदाई दी गई।
बापू सिर्फ नाम नहीं, एक विचारधारा है, सत्य-अहिंसा और भाईचारे की, जिसे सदा अविरल बहना-बहाना है। महात्मा गांधी एक व्यक्ति नहीं, पूरे व्यक्तित्व हैं जिनका जीवन-दर्शन जीवंत था, है,और रहेगा। फिर भी बापू की विचारधारा को जिंदा रखना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। गोडसे के समर्थक और उसको पूजने वाले गांधी की विचारधारा को मिटाने की पुरजोर कोशिश में लगे हुए हैं।
यह वही बापू का देश है, जहां दोहरा चरित्र साफ तौर पर दिखाई देता है। विदेशी मेहमानों को बापू के ‘साबरमती आश्रम’ ले जाकर उनकी सादगी और विचारधारा से उन्हें अवगत कराया जाता है, तो वहीं दूसरी तरफ गोडसे को पूजने वाली विचारधारा को शह दी जाती है। जबकि बापू के देश में बापू की मुखालफत करने वालों के खिलाफ देशद्रोह का अपराध दर्ज होना चाहिए, क्योंकि राष्ट्रपिता का दर्जा यूं ही किसी को नहीं मिल जाता।
गांधी विरोधी विचारधारा के लोग तब कहां थे जब देश गुलामी की जंजीरों में जकड़ा था। देश को आजाद कराने के लिए धरती मां उन्हें पुकार रही थी। अंग्रेजों से माफी मांगकर गुलामी करने वाली विचारधारा ने गांधी को तब गोली मारी जब देश स्वतंत्र हो चुका था। स्वतंत्र भारत में अलगाववाद का जहरीला बीज लोगों के दिमाग में बो दिया, जिसने गांधी के दर्शन को कुचलने का प्रयास और डरपोक गोडसे की मानसिकता को पोसने का काम किया। ऐसी मानसिकता के समर्थक बापू की विचारधारा को खत्म नहीं कर सकते।
पिछले 18 वर्षों से ‘गांधी आश्रम, छतरपुर’ व गांधी समर्थक और सर्वोदय से जुड़े लोग प्रतिवर्ष 12 फरवरी को रामनगरी ओरछा में एकत्र होकर श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं। गांधीजी के व्यक्तित्व को याद कर अपने-अपने विचार साझा करते हैं। स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े उनके परिवार के लोगों के विचारों को सुनकर लगता है कि इतना आसान नहीं था, गुलामी की जंजीरों को तोड़ना। सत्य, अहिंसा वाली बापू की विचारधारा ने अंग्रेजों को देश छोड़ने पर मजबूर कर दिया पर अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि इतनी मुश्किल से मिली आजादी को लोगों ने इतनी आसानी से भुला दिया। ‘गांधी आश्रम, छतरपुर,’ ‘चरण पादुका’ व स्वतंत्रता संग्राम सेनानी परिवार से जुड़े लोग उनकी विचारधारा के वाहक बन गांधी संस्कृति से लोगों को अवगत कराने का निरंतर प्रयास कर रहे हैं। बेहद अफ़सोसजनक है कि जिस ओरछा में बेतवा नदी के ‘कंचन घाट’ पर गांधी की अस्थियां विसर्जित हुई थीं उस घाट पर गांधी की प्रतिमा या उनसे जुड़ी कोई जानकारी, शिलालेख तक अंकित नहीं है। इंतजार उस दिन का है, जब उस पवित्र घाट पर गांधी प्रतिमा स्थापित होगी साथ ही वहां पुस्तकालय भी होगा जहां गांधी दर्शन को पढ़ा जा सके और उनकी विचारधारा अविरल बहती रहे। (सप्रेस)
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