धरती का जीवन बचाने की खातिर वैश्विक जमावडे ‘कॉप 28’ की विफलताओं के सामने अब महात्मा गांधी खडे किए जा रहे हैं और कमाल यह है कि यह पहल मौजूदा संकटों को पैदा करने वाले पश्चिमी समाज की तरफ से हुई है। गांधी के कौन से मूल्य कैसे हमारे जीवन को बचाने में कारगर हो पाएंगे?
यह हैरानी की बात नहीं है कि जब दुनिया ‘कॉप-28’ के तमाशे में पेट्रोलियम बनाम कोयला की खपत और कुल मिलाकर जैवस्रोत से कार्बन उत्सर्जन घटाने की ‘लड़ाई या महायुद्ध’ में लगी थी और ताकतवर तेल उत्पादक देशों के दबाव में दुबई के इस जमावडे में पेश प्रस्तावों में हेर-फेर करनी पड़ी, तब अमेरिकी और पश्चिम के नागरिक समूहों की तरफ से एक दिलचस्प मांग उठी कि दुनिया को स्थानीय उत्पादों की खपत की तरफ ही लौटना पड़ेगा।
‘लोकल लवर्स’ से ‘लोकलवर्स’ बने इन सक्रिय समूहों की बुनियादी स्थापना है कि अगर हम अपने रहने की जगह से कुछ मील के दायरे में ही पैदा होने वाली फसलों, सब्जियों और फलों, मांस-मछली, दूध-दही का सेवन शुरू करेंगे तो दुनिया की ऊर्जा समस्या का काफी हद तक निदान हो जाएगा। आज ऐसी चीजों की ढुलाई और उनको उपयोग लायक स्थिति में रखने में जितनी ऊर्जा खपत होती है वह बेकार है। ऐसा करने में हमें महंगा ही नहीं, कम पौष्टिक, बेस्वाद भोजन मिलता है और खाने की चीजों का एक बड़ा हिस्सा बेकार हो जाता है। स्थानीय खाने-पीने से न सिर्फ ऊर्जा की बचत होगी, बल्कि पौष्टिकता की रक्षा होगी और स्वास्थ्य पर होने वाले खर्चे भी घटेंगे।
आश्चर्यजनक ढंग से यह बात आज पश्चिम से उठी है, लेकिन सौ फीसदी गांधी की बात है। इसे माना या न माना जाना उतने महत्व का नहीं है (दुबई में जुटे लोग क्यों अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारेंगे?), पर इसका ऐसे मौके पर जोरदार ढंग से उठना ही असली महत्व का है। इस मांग के उठने के साथ ऐसा आंदोलन लोगों के बीच से शुरू हो वह ज्यादा बड़ी जरूरत है और जब मांग उठने लगी है तो वह कदम भी उठेगा ही।
गांधी जिन वजहों से पश्चिमी सभ्यता को ‘शैतानी’ कहते थे उनमें पश्चिम का अंध-उपभोग भी एक बड़ा कारण था। तब भी गांधी की बातों को सही मानने वाले लोग पश्चिम में थे, लेकिन आज उपनिवेशवाद की विदाई के बाद की दो-तीन पीढ़ियों ने अपने अनुभव से गांधी की बातों को ज्यादा शिद्दत से सही पाया है। गांधी एक बड़ी राजनैतिक और सामाजिक लड़ाई में लगे थे इसलिए उनको सभी बातों को ज्यादा विस्तार से बताने-उठाने की फुरसत नहीं मिली, पर उन्होंने एक साफ सीमा बनाकर पचास मील (करीब 80 किलोमीटर) के दायरे से बाहर की चीजों का प्रयोग बहुत खास परिस्थितियों में ही करने की बात की थी।
स्थानीयता के साथ यह मसला जुडा है कि कुछ मोटा, कुछ खुरदरा, कुछ कड़वा, कुछ मीठा, कुछ सुडौल, कुछ बेडौल सब कुछ उपयोग करना होता है। इसलिए गांधी का आंदोलन इन मूल्यों को भी वापस लाने वाला बना। इस बात का सबसे बढ़िया उदाहरण खादी है, गांधी की झोपड़ी है, बकरी है, उनके आश्रमों का भोजन है। इसमें उत्पादों की साझेदारी और आदान-प्रदान पर रोक न थी, लेकिन खरीद-बिक्री और मुनाफे की जगह काफी कम थी। ये स्थानीय जलवायु, हमारे शरीर की बनावट और पाचन-क्रिया के अनुकूल थे, बहुत बड़ी बीमारियां/ महामारियां न आएं तो स्वास्थ्य का इंतजाम भी इनमें था और बाजार पर निर्भरता कम थी।
खाने-पीने की चीजों का उत्पादन कोई धन्ना सेठ बनने के लिए नहीं करता था। अदला-बदली और उधार से ऊपर की बात बहुत कम थी। अक्सर बिक्री से शिकायत होती थी और कोई गृहस्थ खरीदकर खाए तो उसके लिए नाक कटाने जैसी बात हो जाती थी। यह बहुत पहले की कहानी नहीं है। गांधी के समय के हिंदुस्तान में ही नहीं, हमारे बचपन के हिंदुस्तान तक में यह बात थी, लेकिन तब तक बदलाव शुरू हो गया था। आज तो आंधी बह रही है, गाँव-गाँव में बोतलबंद पानी, कोक-पेप्सी पहुँच गए हैं।
इसका अति देखना हो तो अपने यहां से भी ज्यादा अमेरिका-यूरोप और अफ्रीका-लातिन अमेरिका को देखना चाहिए जहां पश्चिम के लिए सिर्फ केला पैदा करते-करते देश ‘बनाना रिपब्लिक’ कहलाने लगे और उनके यहां की हर चीज उनका केला खरीदने वाले तय करने लगे। ऐसा सिर्फ केला ही में नहीं हुआ है, मांस की आपूर्ति के लिए ‘एनिमल राँच’ बने, टमाटर और बंदगोभी के फार्म बने, अंगूर और सेब के फार्म बने। यहां जानवर पालकर, काटकर, उनके माँस को रसायनों से सुरक्षित बनाकर हवाई जहाज से लाना भी पश्चिम को सस्ता पड़ता है।
पश्चिम में अगर इस शोषक उत्पादन और व्यापार व्यवस्था, नुकसानदेह रसायनों और दवाओं से भरे खाद्य पदार्थों तथा चार पैसे का सामान लाने पर आठ पैसे का तेल जलाने जैसी विसंगतियां दिखने लगी हैं और कुछ लोगों को स्थानीय उत्पादन और खपत का तर्क भाने लगा है, तो इस बात का स्वागत होना चाहिए। इसे हमारे जैसे मुल्कों से समर्थन मिलना चाहिए जो मौजूदा अंतरराष्ट्रीय व्यापार की मुश्किल शर्तों को झेलने के लिए मजबूर हैं। इसके साथ ही गरीब देश अपने यहां के लोगों का पेट काटकर डालर कमाने के लिए अपना सबसे अच्छा उत्पाद विदेश भेजने को मजबूर हैं। कुछ साल पहले का यह अनुमान था कि हम सोयाबीन की खेती से सिर्फ पचास डालर प्रति एकड़ की कमाई करते हैं और बदले में हमने अपने पारंपरिक तिलहन और दलहन का उत्पादन छोड़ दिया है।
यहां एक और प्रसंग याद आता है। ‘विश्व व्यापार संगठन’ बनाने की बातचीत का ‘सिएटल दौर’ जब जनसंगठनों के भारी विरोध के चलते तानाशाही वाले दोहा में ले जाया गया तो वहां भी विरोधी न सिर्फ पहुंचे, बल्कि उन्होंने एक संगठित रूप लेने की कोशिश की। उनकी तरफ से जो जबाबी रणनीति पेश की गई उसके भी बुनियादी शब्द ‘डायवर्सिटी’ और ‘सस्टेनेबिलिटी’ ही थे जो सीधे-सीधे गांधी दर्शन से लिए गए थे। अब अगर सरकारी और गैर-सरकारी जमातों वाले पर्यावरण के वैश्विक जमावड़ों के साथ ‘लोकलवर्स’ यह आवाज उठा रहे हैं तो हमें गांधी को भुलाने की कोशिशों को दरकिनार करके इस आवाज के साथ खड़ा होना चाहिए। (सप्रेस)
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