एक जमाने में दुर्दान्त डाकुओं की शरण-स्थली की तरह ख्यात चंबल-घाटी की सम्पन्नता में बरसों पुरानी बीहडों की समस्या आडे़ आती रही है। इससे निपटने के लिए हवाई जहाजों से बीजों के छिड़काव से लगाकर भूमि-समतलीकरण तक सभी तरह के उपाय आजमाने वाली सरकार अब लगभग चुप बैठी है। ऐसे में उस इलाके में सक्रिय सामाजिक संगठन कुछ नए तरीकों को अमल करने के सुझाव दे रहे हैं।
चंबल की घाटियां एक समय डकैत गिरोहों से त्रस्त थीं। यहां के बीहड़ों में अनेक डकैत गिरोहों को स्थापित होने के लिए अनुकूल स्थान मिल जाता था और यह बीहड़ डकैतों के निवास के रूप में कुख्यात थे। गांधीवादी सोच पर आधारित इन डकैतों के समर्पण के बहुत प्रेरणादायक व सफल प्रयासों के बाद चम्बल क्षेत्र को डकैतों के आतंक से बहुत राहत भी मिली थी, पर बीहड़ों की समस्या जहां-की-तहां बनी रही। नदियों द्वारा भूमि-कटान से यहां बहुत-सी कृषि व चरागाह की भूमि बीहड़ों में परिवर्तित होती रही है और इसके चलते आम लोगों की आजीविका का संकट बढ़ता रहा है। मध्यप्रदेश के मुरैना जिले को ही लें तो यहां चम्बल, क्वारी, आसन, सिंध जैसी कई नदियां हैं जिनके बहाव में भूमि के कटाव की प्रवृत्ति अधिक है। इससे न केवल ऊपर की उपजाऊ मिट्टी का कटाव होता है, अपितु वर्ष-दर-वर्ष बीहड़ भी बनते चले जाते हैं।
इसका सामना करने के लिए भी ‘महात्मा गांधी सेवा आश्रम, जौरा’ ने प्रयास किए हैं। यहां के प्रमुख प्रेरणा-स्रोत विख्यात गांधीवादी कार्यकर्ता एसएन सुब्बराव ‘भाई जी’ रहे हैं जिन्होंने ‘राष्ट्रीय सेवा योजना’ (एनएसएस) के कैम्प आयोजित कर सैंकड़ों युवाओं का श्रमदान बीहड़ों को समतल करने, गांवों में सड़क मार्ग बनाने तथा खेती के योग्य भूमि तैयार करने में लगाया। इसके अतिरिक्त सरकारी स्तर पर बीहड़ सुधार द्वारा कृषि योग्य भूमि बनाने का कार्य किया गया। एक समय इसके लिए एक अलग विभाग होता था, पर बाद में यह कार्य सुस्त पड़ गया।
अब समय आ गया है कि इस कार्य को फिर से अधिक बड़े पैमाने पर आरंभ किया जाए। यहां के सामाजिक कार्यकर्ताओं ने एक सुझाव यह दिया है कि क्षेत्र के युवाओं में बेरोजगारी से बढ़ती बेचैनी को कम करने के लिए भी इस कार्य का उपयोग हो सकता है। बीहड़ प्रभावित भूमि को सुधार कर इसे युवाओं को रासायनिक खादों, कीटनाशकों और दवाओं से मुक्त जैविक या पर्यावरण की रक्षा करने वाली खेती के लिए दिया जा सकता है।
यहां की एक अन्य समस्या यह है कि खेती में रासायनिक खाद व कीटनाशकों का उपयोग तेजी से बढ़ रहा है। इस कारण किसानों का खर्च भी बहुत बढ़ रहा है व पर्यावरण की क्षति भी हो रही है। अतः बीहड़ों की सुधारी हुई भूमि को जैविक खेती के उदाहरण के रूप में विकसित करना चाहिए। जब आसपास के किसान इस भूमि पर जैविक खेती की सफलता देखेंगे तो पूरे क्षेत्र में इस तरह की खेती को बढ़ावा मिलेगा।
‘महात्मा गांधी सेवा आश्रम’ के कार्यकर्ता परसराम अनेक वर्षों से यहां के सार्थक प्रयासों से जुड़े रहे हैं। वे कहते हैं, “बीहड़ों की मिट्टी बहुत उपजाऊ है। यदि उनके समतलीकरण के बाद उन पर जैविक खेती को बढ़ावा मिला तो यह इस क्षेत्र के लिए वरदान सिद्ध होगा। यह कुछ युवा किसानों के लिए तो बहुत सार्थक होगा ही, इस तरह पूरे क्षेत्र के कृषि विकास को सही दिशा देने में भी मदद मिलेगी।”
बीहड़ की समस्या गंभीर होती जा रही है। राजस्थान के धौलपुर में तो रेलवे स्टेशन के बहुत पास तक बीहड़ पहुंच चुके हैं। ऐसे में सरकार को बीहड़ सुधारने के साथ-साथ बीहड़ों के प्रसार को रोकने व नदियों की मिट्टी व भूमि-कटाव को रोकने के लिए अपने प्रयासों को अधिक बढ़ाना व मजबूत करना होगा। विशेषकर मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश व राजस्थान की सरकारों को तो इस ओर तुरंत ध्यान देना चाहिए।
इस क्षेत्र के विभिन्न सार्थक प्रयासों से नजदीकी तौर पर जुड़े रहे ‘एकता परिषद’ के समन्वयक पीवी राजगोपाल ने बताया कि यहां के बुधवारी गांव में वे लंबे समय तक रहे हैं। उस समय बीहड़ सुधार का महत्वपूर्ण कार्य हुआ था। बीहड़ सुधार के आरंभिक समय से ही वहां का भूमि-पट्टा किसी जरूरतमंद परिवार या युवा को मिलना चाहिए, ताकि बीहड समाप्त होने के साथ-साथ खेती की दृष्टि से भी सुधार होते जाएं। श्री राजगोपाल ने बताया कि बीहड़ सुधार के कुछ बड़े कार्य मशीनों की सहायता से हो सकते हैं, पर इसके साथ-साथ युवा कैंप लगाकर बहुत सा कार्य श्रमदान के द्वारा भी होना चाहिए। इस तरह हाई स्कूल व कॉलेज के अनेक छात्र बीहड़ सुधार के कार्य के साथ एक बड़े अभियान व आंदोलन के रूप में जुड़ सकते हैं। (सप्रेस)
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