हम राजनीतिक रूप से स्वतंत्र अवश्य हो गए हैं परंतु अभी भी मानसिक तौर पर उपनिवेशवाद की स्थिति से मुक्त नहीं हो पाए हैं। इस बीच कारपोरेटीकरण एवं वैश्वीकरण ने नए तरह के उपनिवेशवाद को हमारे ऊपर लाद दिया है।
स्वराज हमारा लक्ष्य रहा है। स्वराज के दर्शन और जनसंघर्ष से हमारा मुक्तिसंग्राम ओतप्रोत था। उसके सपने थे औपनिवेशिक शासनतन्त्र से आजादी, स्वदेशीमूलक स्वराज की संरचना, गु़लामी की मानसिकता को तिलाँजलि, नैतिक शक्ति की अभिव्यक्ति और स्वतन्त्र चेतना की सिद्वि यानी कुल मिलाकर लोकसत्ता की स्थापना। विडम्बना के चलते बुनियाद से अर्थात् तृणमूल स्तर से लोकसत्ता के प्रस्फुटन के बजाय शीर्ष पर ‘सत्ता का हस्तान्तरण’ हुआ।
फिरंगी साम्राज्य द्वारा प्रवर्तित और संचालित शासनतन्त्र की नकेल भले ही देश के मुट्ठीभर विशिष्ट सुविधाभोगी, यथास्थितिवादी और पश्चिमपरस्त अभिजनों के हाथ में आ गयी, लेकिन फौलादी औपनिवेशिक ढाँचा जस का तस बरकरार रहा। ऊपर से कोढ़ में खाज यह कि हम सच्चे अर्थों में मानसिक रूप से स्वाधीन नहीं हो सके। ब्रितानी साम्राज्य द्वारा गढ़ी गयी संस्थाओं, परम्पराओं और मूल्य व मान्यताओं को यथावत् चलायमान् रखने में काले अंग्रेजों की ज्यादा दिलचस्पी थी, क्योंकि पश्चिमी रंगढंग से पिटेपिटाये ढर्रे पर चलना उन्होंने क़बूल किया।
कम्पनी बहादुर इस देश को सभ्य बनाने के नाम पर आए थे। दरअसल वह दौर ‘सिविलाइजिंग मिशन’ का था। उन्होंने हमें ग़ुलाम बनाया। ब्रितानी साम्राज्य से निजात मिलने के बाद हमारा केन्द्रित सत्ता-प्रतिष्ठान, विकास की दुहाई देते हुए अन्य नवस्वाधीन देशों के साथ आधुनिकीकरण, औद्योगीकरण, मशीनीकरण और शहरीकरण की चूहादौड़ में शामिल हो गया। साम्राज्यवादी औद्योगिक या तथाकथित विकसित देशों एवं उनके बहुराष्ट्रीय कॉरपोरेट समूहों तथा अन्तरराष्ट्रीय वित्त व व्यापार संगठनों के चंगुल में देश फँसता गया। इसी बीच बहुराष्ट्रीयकरण का दौर चल पड़ा जिसकी परिणति वैश्वीकरण के रूप में हुई है। पुनरौपनिवेशीकरण (Recolonisation) करने वाली ताकतें अब ‘ग्लोबलाइजिंग मिशन’ के नाम पर देश को मुकम्मल तौर पर गु़लाम बना रही हैं।
पिछले उपनिवेशवाद का तरीक़ा निहायत भोंडा, बर्बर और आक्रामक था। उसमें सशस्त्र बल का प्रयोग या अधिष्ठान ज्यादा था। उसे टिकाये रखने के लिए हमेशा सशस्त्र बल की ज़रूरत पड़ती थी। उस दौर में पराजित जनगण को दिमाग़ी तौर पर भी ग़ुलाम, पालतू या स्वामिभक्त बनाने के सिलसिले का सूत्रपात हो गया था। कहने का मतलब यह है कि पुराने औपनिवेशिक तन्त्र को चलायमान् रखना तत्कालीन साम्राज्यों के लिए ज्यादा खर्चीला, समयसाध्य और श्रमसाध्य तो था ही; साथ-साथ वह भीषण ज़ोर ज़बर्दस्ती, नग्न हिंसा या भयंकर दमन-उत्पीड़न पर टिका था।
आज का उपनिवेशवाद पुराने के मुकाबले अतीव सूक्ष्म, बेहद शातिर, घट-घट वासी और नितान्त जटिल है। उसने लोगों के दिलोदिमाग़ पर क़ब्ज़ा कर लिया है। जब मानसिक तौर पर लोग खुशी-खुशी किसी चीज, व्यवस्था या विचारधारा को अंगीकृत कर लेते हैं, तो भौतिक रूप से उन्हें गुलाम बनाने की आवश्यकता कतई नहीं रह जाती। आज नये-नये विविध आकर्षक रूपों में भूमण्डलीकरण स्वयं को हमारे सामने प्रस्तुत कर रहा है जिसके नियन्ता या चालक बहुराष्ट्रीय कॉरपोरेट-समूह हैं। एक शक्तिशाली सामन्तवादी व धनकुबेर प्रभुवर्ग ऐसा है जो उसका सबसे बड़ा लाभार्थी है और वह उसके मोहपाश में बुरी तरह जकड़ा हुआ है। एक बुद्धिभ्रष्ट वर्ग ऐसा है जो यह मानकर चल रहा है कि भूमण्डलीकरण के दौर में ‘कोई विकल्प है ही नहीं’ (At the end of the month) ‘टीना’ के बोझ तले दबे लोग अपने को इस व्यवस्था के हिसाब से ढाल रहे हैं इसमें जीना सीखने या गुज़र-बसर करने की कवायद में तल्लीन हैं और वे कुछ नया न कर पाने या सोच सकने की बेबसी ढो रहे हैं। अधिसंख्य आबादी ऐसी है जो अपने प्राकृतिक संसाधनों, रिहाइशी इलाक़ों, खेत-खलिहानों, स्थानिक समुदायों, आजीविका-स्रोतों और चिरंजीवी विकास प्रदाता अवसरों से ज़बरन बेदख़ल की जा रही है। खाली कराये गये उन स्थानों पर कॉरपोरेट-घरानों के कारोबारी अड्डे, ठौर ठिकाने, मेगा संयन्त्र आदि खड़े हो रहे हैं या कॉरपोरेट साम्राज्य-विस्तार के निमित्त बुनियादी ढाँचागत प्रकल्प स्थापित किये जा रहे हैं।
कॉरपोरेट संचालित विकास के जो ढोलनगाड़े बज रहे हैं उनके स्वर गगनभेदी हैं। उनके चलते विस्थापित, अधिकारवंचित या बेदख़ल अवाम की लड़ाई नक्कारखाने में तूती की आवाज़ जैसी बना दी गयी है। औपनिवेशीकृत दिमाग़ के चलते लोगों की संवेदना या संचेतना मद्धिम पड़ती गयी है। यही कारण है कि कॉरपोरेटनीत उपनिवेशवाद के खि़लाफ़ सामूहिक सविनय अवज्ञा के कार्यक्रम परवान नहीं चढ़ पा रहे हैं।
औपनिवेशीकृत मानस वाला व्यक्ति यथास्थितिवादी होता है। उसे ग़ुलामी में मज़ा आने लगता है अथवा वह गुलामी का अभ्यस्त हो जाता है। उसके अनुर्वर दिमाग से मौलिक सृजन, बुनियादी बदलाव या व्यवस्था से विद्रोह की अपेक्षा नहीं की जा सकती। वह मुक्तिकामी या परिवर्तनकाँक्षी बन सकता है, इसमें सन्देह है। इसलिए पहला कार्यक्रम लोगों के दिमाग को अनौपनिवेशीकृत (De-colonised) करने यानी स्वाधीन बनाने का होना चाहिए।
कॉरपोरेटनीत बहुराष्ट्रीय उपनिवेशवाद जनगण नीत सामुदायिक स्वराज का विलोम है। इसलिए स्वराज संरचना के लिए उपनिवेशवाद के ध्वंस या विसर्जन का कार्यक्रम प्रारम्भ करना होगा। ध्यान रहे कि उपनिवेशवाद से वही जूझ सकता है जिसका मानस कॉरपोरेट मोहपाश से मुक्त होगा।
स्वराज का उद्रेक दरअसल सर्वप्रथम व्यक्ति के मानस में होता है। उसके बाद उसका संचरण व्यक्ति के परिवेश और प्रत्यक्ष समुदाय में होता है। क्रमिक रूप में फिर उसका संचार उत्तरोत्तर वृहत्तर समुदायों में होते हुए समूचे राष्ट्रजीवन तक जाता है। स्वराज संरचना की इकाई समुदाय है जो आत्मनिर्भर होते हुए भी व्यापक हितों के लिए परस्परावलम्बी होते हैं। समुदाय की संरचना व्यक्ति व कुटुम्ब के इर्द गिर्द होती है। इसलिए व्यक्ति का स्वराजोन्मुखी या स्वाधीनचेता होना नितान्त आवश्यक है। स्वराजोन्मुखी वही हो सकता है जिसका चित्त औपनिवेशिक दबावों या प्रभावों को नकारता है और जो अपनी मुक्ति के साथ ही समाज की मुक्ति का उद्घोष करता है। (सप्रेस)
डॉ. कृष्णस्वरूप आनन्दी नई आजादी उद्घोष के संपादक हैं।