धर्म संसद में महात्मा गांधी पर की गई टिप्पणियों पर गांधी संस्थानों का बयान
नईदिल्ली (सप्रेस) । देशभर की गांधी विचार से जुड़ी शीर्षस्थ संस्थानों ने हाल ही में हरिद्वार व रायपुर में हुई धर्म संसद में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के संदर्भ में की गई टिप्पणियों पर अपना रोष प्रकट किया है। गांधी शांति प्रतिष्ठान, गांधी स्मारक निधि, राष्ट्रीय गांधी संग्रहालय, राष्ट्रीय युवा संगठन, सर्व सेवा संघ, सेवाग्राम आश्रम प्रतिष्ठान ने संयुक्त रूप से जारी बयान में कहा है कि हरिद्वार से शुरू हुई ‘धर्म-संसद’ अब तक दिल्ली होती हुई रायपुर पहुंची है। यह सारे देश में एक संकीर्ण, विषैला और विद्वेष भरा वातावरण बनाती जा रही है। खबर है कि ऐसी कई ‘धर्म-संसदों’ की योजना है। इन सारे आयोजनों के पीछे एक ही राजनीतिक दल का हाथ है, एक-सी सांप्रदायिक शक्तियों ने इसका अभियान चला रखा है।
गांधी संस्थाओं ने कहा कि हम देख रहे हैं कि ऐसी धर्म संसदों से शह पा कर दूसरे धर्मावलंबी राजनीतिज्ञ भी समाज में जहर घोलने में लगे हैं। इन धर्म-संसदों से और ऐसे लोगों से धर्म और अधर्म के बीच की रेखा मिटती ही नहीं जा रही है, धर्म की समझ विकृत, बाजारू व अश्लील होती जा रही है। यह असहमति का नहीं, राष्ट्रीय असहिष्णुता, असभ्यता और अशोभनीयता का मामला है।
सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों की मुखर व मौन सहमति
सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों ने इसे शुरू किया और उनकी ही मुखर व मौन सहमति से उनके पैदल सिपाहियों द्वारा इसे चलाया व बढ़ाया जा रहा है। प्रधानमंत्री से ले कर सांप्रदायिकता को राजनीतिक शक्ति के तौर पर इस्तेमाल करने वाले सभी लोगों-संगठनों और चापलूस प्रशासन व पुलिस अधिकारियों के चेहरों पर यह काला दाग लगा है।
संस्थाओं ने कहा कि महात्मा गांधी इन सबके निशाने पर हैं; क्योंकि मनुष्यता के खिलाफ जब भी, जो भी कदम उठाता है, उसे वे ही राह रोके खड़े मिलते हैं। ये सब परेशान हैं कि क्या इस आदमी को मारने वाली गोली अब तक बनी नहीं; उन्हें दफन कर सके, ऐसी कब्र अब तक खोदी नहीं जा सकी ? इसलिए इन धर्म संसदों में उन्हें गालियां दी जा रही हैं, अपशब्दों से उनका अपमान किया जा रहा है। गुलाम भारत में भी किसी धर्म-जाति विशेष के लोगों ने, अंग्रेज प्रशासन ने महात्मा गांधी के लिए कभी इतने अपशब्द नहीं कहे, जितने पिछले कुछ वर्षों में सत्ताधारी पार्टी के नेताओं व अन्य छुटभैय्यों ने कहे हैं। इनके शब्दों,व्यवहार और इनकी मंशा ने दुनिया में भारत की छवि जैसी और जिस हद तक कलंकित की है, उसका कोई दूसरा उदाहरण खोजना मुश्किल है।
जनता को खुद ही आगे आ कर लोकतंत्र का संरक्षण व संवर्धन करना होगा
संस्थानों ने आगे बयान में कहा कि महात्मा गांधी से असहमति रखने और उनकी आलोचना करने का अधिकार किसी को न हो, ऐसा भारत न हम चाहते हैं, न हम उसका समर्थन करते हैं। किसी भी लोकतंत्र में स्वस्थ व तथ्यों पर आधारित असहमति की जगह ही नहीं होती है बल्कि वह लोकतंत्र का अनिवार्य हिस्सा है। लेकिन लोकतंत्र में मिली आजादी व अधिकार का इस्तेमाल कर, कोई लोकतंत्र की ही जड़ काटने लगे तो इसे रोकना तथा इसके विरुद्ध कानूनसम्मत कार्रवाई करना पुलिस-प्रशासन व न्यायपालिका की संवैधानिक जिम्मेवारी है। इसलिए सुप्रीम कोर्ट के 76 वरिष्ठ वकीलों ने भारत के चीफ जस्टिस को लिखा है कि हिंसा व नरसंहार का खुला आह्वान करने वाले ऐसे आयोजनों का वे संज्ञान लें तथा जरूरी कार्रवाई करें।
लेकिन हमें खेद है कि सत्ता की अनुकंपा की भूखी संवैधानिक व्यवस्थाएं बौनी साबित हो रही हैं। ऐसी स्थिति में जनता को खुद ही आगे आ कर अपने लोकतंत्र का संरक्षण व संवर्धन करना होगा। हम संविधान के जनक भी हैं और उसके संरक्षक भी; हमने ही सरकारों को व कार्यपालिका व विधायिका को रचा भी है और उसे मान्य भी किया है। इसलिए जब भी इनका पतन होता है, नागरिकों को संगठित हो कर इनका प्रतिकार करना चाहिए। हम लोकतंत्र की ढहती इमारत के खामोश दर्शक नहीं रह सकते।
इसलिए यह महात्मा गांधी के सम्मान का ही नहीं, लोकतंत्र के संरक्षण का सवाल भी है। लोकतंत्र ही बिखर गया तो नागरिकों के लिए कोई जगह बचेगी क्या ? फिर बर्बर व बौराई सत्ता, पुलिसिया राज की असंवैधानिक ज्यादतियां, जेल व यातनागृह ही हमारे हाथ में बचेंगे। राजनीतिक दल, राष्ट्रविरोधी सांप्रदायिक शक्तियां, पुरुषत्वहीन नौकरशाही और गूंगी न्याय-व्यवस्था हमें वैसे मुकाम पर पहुंचा दे, इससे पहले देश के सभी लोकतंत्रप्रेमियों के लिए यह सावधान होने, सक्रिय होने व आवाज उठाने का नाजुक दौर है।