अपने सीमित संसाधनों से अपनी खेती बागबानी बचाने वाले बहुत छोटे- छोटे किसान महिलाएं अपेक्षित सरकारी सहायता न मिलने और नीतिगत मामले में घोर लापरवाही के कारण नीति नियंताओं से बेहद नाराज़ हैं। उनका मानना है कि वे अपनी मांगों को पूरी कराने को लेकर वे लगातार राजनैतिक दलों और प्रशासन से गुहार लगाते लगाते तक चुके हैं, लेकिन सरकार और प्रशासन के कान में जूं तक नहीं रेंगती।
एक के समय में फल पट्टी और फलों का टोकरा कहा जाने वाले नैनीताल जिले के रामगढ़ इलाके के किसान और बागबान बिगड़ते पर्यावरण, और उजड़ते बागानों के बीच सरकारी उपेक्षा से बहुत गुस्से में हैं। गांधी के मूल्यों पर यकीन रखने वाले यहां के ग्रामीण अब डायरेक्ट एक्शन जैसा आंदोलन करने पर विचार कर रहे हैं।
अपने सीमित संसाधनों से अपनी खेती बागबानी बचाने वाले बहुत छोटे- छोटे किसान महिलाएं अपेक्षित सरकारी सहायता न मिलने और नीतिगत मामले में घोर लापरवाही के कारण नीति नियंताओं से बेहद नाराज़ हैं। उनका मानना है कि वे अपनी मांगों को पूरी कराने को लेकर वे लगातार राजनैतिक दलों और प्रशासन से गुहार लगाते लगाते तक चुके हैं, लेकिन सरकार और प्रशासन के कान में जूं तक नहीं रेंगती।
यह छोटे किसान अपने स्तर से परम्परागत खेती बागबानी को बचाने की कोशिश कर रहे हैं। उदाहरण के लिए बिना रजिस्ट्रेशन के पिछले कई वर्षों से चल रहे अनौपचारिक जनमैत्री संगठन ने जल व मृदा संरक्षण, बागबानी विकास आदि पर बेहतरीन काम किया है। जनमैत्री संगठन संसाधनों का फूल करके किसानों, बागबानों और महिलाओं के सहयोग से करीब छः गांवों में 600 अधिक पानी के टैंक बनवाकर जल संरक्षण का बेहतरीन काम किया। इन पानी के टैंकों में पानी इकट्ठा करके किसान और बागबान अपनी खेती बागबानी बचा रहे हैं और अपने रोजाना की ज़रूरत भी पूरी कर रहे हैं।
अपने इन प्रयासों से कितना पानी बचाया होगा इसकी नाप नहीं की जा सकती। इसी तरह गांव, संचायती जमीन और जंगलों में अपने प्रयासों से वृक्षारोपण करके इलाके की आबोहवा को बचाने का काम किया है।
लेकिन फिर बात आती है कि जिस तरह से पर्यावरण बिगड़ रहा है या बिगाड़ा था रहा है उसमें इनके प्रयास ऊंट के मुंह में जीरा की तरह ही हैं।
करीब चार विकास खण्डों, भीमताल, रामगढ़ धारी और ओखलकांडा के 100 से अधिक गांवों की पारिस्थितिकी बहुत बहुत बदल या कहें बिगड़ चुकी है।
वर्तमान में जलवायु परिवर्तन के संकट बढ़ गया है कभी असमय और अनियमित वर्षा का होती है तो कभी समय पर नहीं होती। यहां पर होने वाली बर्फबारी में निरंतर कमी हो रही है।
जंगलों में जैव विविधता का लगातार घट रही है। जिसके कारण जल के प्राकृतिक स्त्रोतों में लगातार पानी की कमी हो रही है।
जहां इस इलाके में गर्मी बढ़ी है तो सर्दी भी बढ़ी है और कम समय में एक साथ अधिक बरसात का होना भी यहां के लिए ख़तरनाक होता जा रहा है। इधर जंगलों में जानवरों की संख्या बढ़ने से वन्यजीव मानव संघर्ष का बढ़ रहा है। तेंदुए, भालू, सुअर और बंदर खेतों और बस्तियों में आ रहे हैं।
जहां खेती और बागबानी में उत्पादकता में कमी हुई है, वहीं फसलों में बीमारियां बढ़ गई है।
बाजार पर निर्भर रहने के कारण स्थानीय बीजों का विलुप्त हो रहे हैं पानी की कमी हुई तो खाद्यान्न में भी कमी आई। जिससे महिलाओं के कार्य बोझ में वृद्धि हो गई। जंगल और पानी अब बहुत दूर होता जा रहा है। यहां के खेत और बागानों में छः महीने की फसलें या उत्पादन होता है जिसपर ग्रामीण पूरे साल निर्भर रहते हैं। इन सब कारणों से लघु और सीमांत किसानों, बागवानों के जीवन में आर्थिक संकट का बढ़ता जा रहा है। गरीबी बढ़ती जा रही है।
बिगड़ते पर्यावरण और उत्पादकता की कमी के साथ यहां के निवासियों में पेट और दांत की बीमारियों में वृद्धि हो गई है साथ ही कुपोषण से लोगों के शारीरिक,मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ा है
किसानों और बागबानों पर हर जगह दोहरी मार पड़ रही है। फसल/फलों का उत्पादन तो कम हुआ है बाजार का छोटे उत्पादकों के की पूंछ नहीं हैं मंडी व्यवस्था वैसी ही लूटखसोट की चल रही है।
जैसे जैसे क्षेत्र में आवाजाही और पर्यटन में बढ़ोतरी हुई है और सामान्य रूप से उपभोक्तावादी रुझान बढ़ा है उसी के साथ साथ क्षेत्र में प्लास्टिक कचरे का खतरा बढ़ रहा है, प्लास्टिक के रैपर बोतलें सड़कों से होते हुए गाड़ गधेरों नौलों और धारों तक पहुंच रहे हैं। पानी के स्रोत बंद हो रहे हैं तो दूसरी ओर प्लास्टिक के कचरे का उचित निस्तारण न होने से भारी बारिश का पानी और कचरा खेतों में भर रहा है। पिछले अक्टूबर में क्षेत्र में आई अप्रत्याशित बाढ़ के कारणों एक बड़ा कारण यह भी था। इसपर भी सरकार ने ना तो किसी किस्म की सहायता की और ना नोटिस दिया था।
कम और घटती हुई आमदनी,और रोजगार के अवसरों के कम होने से लोगों ने अपनी तात्कालिक जरुरतों और अन्य जरूरतों को पूरा करने का शार्ट तरीका अपनी जमीनों को बेचने में खोज लिया है। इसका परिणाम यह हुआ कि हिमालय भूदृश्य वाले व जल धारण करने वाले स्थान और जमीन बाहरी बिल्डर्स और होटल व्यवसायियों के कब्जे में जाती जा रही हैं। इस क्षेत्र से हिमालय का विहंगम दृश्य दिखाई देता है इसी कारण यहां की जमीन पर्यटन के नाम पर बिक रही है। जो जमीन बची है वह भूमि के नाप की कोई निश्चित व्यवस्था नहीं होने से छोटे छोटे टुकड़ों में बंट गई है।
स्थानीय जंगलों में अवैध कब्जे हो रहे हैं,अत्यधिक मानवीय घुसपैठ हो रही है। वन्य प्राणियों का भोजन, आवास और निजी जीवन असंतुलित रहा है तो वो शहरी इलाकों/बस्तियों की तरफ भागते हैं। पूरे इलाके में ऐसी घटनाएं लगातार हो रही हैं।
नदियों और जंगलों में अवैध शिकार से भी वन्य जीवों का अस्तित्व ही खत्म होने के कगार पर पहुंच गया है। इसके अलावा जड़ी बूटियों और कीमती औषधीय वनस्पतियों का अवैध दोहन भी बढ़ गया है। मनुष्य जो प्रकृति का संरक्षक होना चाहिए वो शोषक की भूमिका में आता जा रहा है।
सरकार लोगों के शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार सृजन जैसे बुनियादी मुद्दों की उपेक्षा कर रही है लेकिन सरकारी प्रोत्साहन देकर समाज में नशाखोरी को बढ़ा रही है।
हालांकि पिछले दिनों हुए जनमैत्री के सम्मेलन में बहुत बातों पर विचार विमर्श किया गया। वक्ताओं नें उपभोक्तावादी संस्कृति का न्यूनीकरण और जैवविविधता हेतु वन संवर्धन करने, वर्षा के पानी का अनुशासित तरीके से सहेजने संभालने, चाल,खाल ट्रेंच द्वारा जल संरक्षण. करते हुए परंपरागत स्रोतों का जीर्णोध्दार करने के साथ साथ परंपरागत फसलों के अलावा पानी की कम आवश्यकता वाली फसलों का उत्पादन करने, पॉलीथीन का न्यूनतम उपयोग करने पर जोर दिया। जिसके लिए ग्रामीण क्षेत्रों में विद्यालय और छात्रों के जागरूक किया जायेगा। लेकिन पर्वतीय क्षेत्रों में जो कंक्रीट के जंगल लगातार बढ़ रहे हैं वन और भूमाफिया के बढ़ते कारोबार के कारण जमीन, खेती किसानी और बागबानी बचानी मुश्किल हो रही है, उसका उपाय और उपचार क्या हो। और पर्यटकों द्वारा जो पर्यावरण के प्रति असंवेदनशीलता व गैरजिम्मेदार व्यवहार दिखाई दे रहा है वो कैसे रुके।
ग्रामीण तो जो काम वो पीढ़ी दर पीढ़ी करते चले आ रहे हैं उसको और व्यवस्थित तरीके से करेंगे लेकिन जो बाहर से आकर बिगाड़ पैदा कर रहे हैं उनसे कैसे निजात मिले?
यह सवाल क्षेत्र के हर संवेदनशील व्यक्ति के सामने है जो ज़रा भी जन सरोकारों से जुड़ा है।
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