विनायक नरहरि भावे यानी विनोबा भावे (11सितंबर 1895-15 नवंबर 1982) की आज 129 वीं जयंती है। आज विनोबा न सिर्फ इसलिए प्रासंगिक हैं कि वे हिंदू धर्म ही नहीं, इस्लाम, ईसाई और अन्य धर्मों के उदार और अप्रतिम व्याख्याकार हैं बल्कि वे समाज में अमन चैन कायम करने के लिए शांति सेना नामक संगठन के संस्थापक भी रहे हैं। विनोबा तो वेद, उपनिषद, मनुस्मृति की व्याख्या तो करते ही थे साथ में वे कुरआन, बाइबल और जिंद अवेस्ता की भी व्याख्या करते थे। दर्जनों भाषाओं पर उनकी पकड़ थी और दुनिया की तात्कालिक राजनीति की जानकारी के साथ उन्हें वैश्विक संस्कृति का गहरा बोध था।
विनायक नरहरि भावे यानी विनोबा भावे (11सितंबर 1895-15 नवंबर 1982) की आज जयंती है। सत्ता और संघर्ष दोनों की राजनीति में विनोबा को हाशिए पर फेंक दिए जाने के लिए विनोबा एक हद तक ही जिम्मेदार हैं। बाकी जिम्मेदारी सत्ता और संघर्ष करने वाले राजनेताओं की भी है। लेकिन उससे भी कम जिम्मेदारी देश के उन संत-महात्माओं की भी नहीं है जो अपने अपने स्वार्थ के लिए न तो इस राजनीतिक संत के मार्ग पर चलने के लिए तैयार होते हैं और न ही उसके विचारों का अवगाहन करते हैं। लेकिन आज जब इस देश के गली मोहल्ले से लेकर संसद तक सांप्रदायिकता निर्लज्ज होकर घूम रही है तब वर्धा की धाम नदी के तट पर खड़े पवनार आश्रम में अपना मौन तोड़कर विनोबा जय जगत के नारे के साथ इस देश को शांति और सौहार्द के लिए पुकार रहा है।
विनोबा महात्मा गांधी के आध्यात्मिक अनुयायी थे लेकिन उनकी कार्यशैली में दो तत्व ऐसे थे जिनसे बाद के लोगों ने उन्हें हाशिए पर ठेल दिया। एक तो वे अपना आंदोलन/ अभियान सरकार की सरपरस्ती में चलाते थे। इसके नाते डॉ राममनोहर लोहिया ने गांधीवादियों की जो तीन श्रेणियां बनाईं उसमें विनोबा की अहिंसक क्रांति को वैसा महत्त्व नहीं मिला जैसा मिलना चाहिए था। लोहिया ने कहा था कि देश में तीन तरह के गांधीवादी हैं—एक सरकारी गांधीवादी, दूसरा मठी गांधीवादी और तीसरा कुजात गांधीवादी। विनोबा मठी गांधीवादी कहे जाते थे। डॉ लोहिया अपने को कुजात गांधीवादी कहते थे। उनका मानना था कि देश में आमूल परिवर्तन तो कुजात गांधीवादी ही करेंगे। विमर्श की इस हवा में तकरीबन 25 साल (1951-1974) तक चले विनोबा के भूदान, ग्रामदान और जीवनदान जैसे सर्वोदयी विचार के आंदोलन उपेक्षित कर दिए गए। हालांकि उस दौरान लाखों एकड़ जमीन वितरित की गई, डाकुओं के आत्मसमर्पण हुए और नक्सली हिंसा से लेकर सांप्रदायिक हिंसा पर लगाम लगी। विनोबा की उपेक्षा करने में उन वामपंथी और मार्क्सवादी लोगों का भी कम योगदान नहीं था जो विनोबा के हर आंदोलन को कम्युनिस्टों के खिलाफ साजिश मानते थे। उनको लगता था कि विनोबा उनकी वर्ग संघर्ष की धार को कुंद कर रहे हैं इसीलिए उन्हें जमींदारों और पूंजीपतियों की तरफ से भेजे गए दूत की संज्ञा भी दी गई।
विनोबा की कार्यशैली में दूसरी दिक्कत यह थी कि वे दलीय राजनीति से ऊपर उठकर सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन को देखते थे। वे अविरोध के अनिवार्य आख्यान की बात करते थे। उनकी भाषा धर्म और अध्यात्म से अनुप्राणित थी। जिसे लेकर कई बार सेक्यूलर लोग उन्हें ब्राह्मणवादी और हिंदू सांप्रदायिक भी बता सकते हैं। विशेष कर दलित विमर्श में तो विनोबा एकदम फिट नहीं होंगे। क्योंकि विनोबा तो वेद, उपनिषद, मनुस्मृति की व्याख्या तो करते ही थे साथ में वे कुरआन, बाइबल और जिंद अवेस्ता की भी व्याख्या करते थे। दर्जनों भाषाओं पर उनकी पकड़ थी और दुनिया की तात्कालिक राजनीति की जानकारी के साथ उन्हें वैश्विक संस्कृति का गहरा बोध था। दलीय राजनीति से ऊपर उठकर देखने की वजह से ही विनोबा और जयप्रकाश नारायण का संबंध टूटा और विनोबा आपातकाल को अनुशासन पर्व तक कहने तक चले गए। फिर वे सरकारी संत कहलाए जाने लगे। उसके बाद जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आंदोलन में शामिल लोगों ने उन्हें अप्रासंगिक करार दे दिया। जबकि विनोबा का यह कहना था कि क्रांति का काम तो दीर्घकाल में चलता ही रहेगा लेकिन उसे सरकार को बदलने से मत जोड़िए। सरकार बदलने का काम आंदोलन को देने की बजाय उसे मतदान पर छोड़ दीजिए। यह बात छात्रों और विपक्षी दलों के चौहत्तर के आंदोलन के विरुद्ध जाती थी और इंदिरा गांधी की सरकार के पक्ष में। इसलिए आंदोलन के साथ क्रांति का स्वप्न देखने वाले उनके सर्वाधिक नजदीकी राजनेता जेपी उनसे दूर हो गए।
आज विनोबा न सिर्फ इसलिए प्रासंगिक हैं कि वे हिंदू धर्म ही नहीं, इस्लाम, ईसाई और अन्य धर्मों के उदार और अप्रतिम व्याख्याकार हैं बल्कि वे समाज में अमन चैन कायम करने के लिए शांति सेना नामक संगठन के संस्थापक भी रहे हैं। विनोबा ने 11 जुलाई 1957 को केरल के कोझीकोड में शांति सेना का विचार रखा और 23 अगस्त 1957 को उसकी स्थापना की। उन्होंने यह पहल तब की थी जब उनके ग्रामदान के कार्यक्रम के सांप्रदायिक दंगों की आग में झुलस जाने का खतरा था। शांति सेना की सप्तविध प्रतिज्ञा इस प्रकार हैः—
1. सत्य, अहिंसा में निष्ठा,
2. निर्भय, निर्वैर, निष्पक्ष वृत्ति,
3. देश, धर्म, वंश, जाति, भाषा में अभेद दृष्टि,
4. सत्ता, दलीय राजनीति से मुक्तता,
5. युद्ध का समर्थन न करना,
6. अशांति- शमनार्थ जान की जोखिम उठाने
की तैयारी,
7. शांति सेना का अनुशासन पालन।
विनोबा ने इसी के साथ जय जगत का घोष किया और आगे इसकी व्याख्या करते हुए कहा, “हम किसी देश विशेष से जुड़े नहीं हैं। हम किसी संबंध विशेष पर जोर नहीं देते। हम किसी समुदाय विशेष से बंधे नहीं हैं। हमारा अध्ययन दुनिया भर में फैले श्रेष्ठ विचारों के क्षेत्र में उड़ान भरना है। श्रेष्ठ विचारों को आत्मसात करना हमारा कर्तव्य है। विभिन्न विशिष्टताओं में अपनी समझ को स्थापित करना, विश्व दृष्टि विकसित करना हमारा विचार अनुशासन है।’’
वास्तव में शांति सेना का मूल विचार तो गांधी का ही था। लेकिन गांधी इतने सारे कामों में लगे रहते थे कि उनके लिए अपने जीवन काल में उन विचारों को मूर्त दे पाना संभव नहीं था। इसीलिए गांधी के बारे में आचार्य जेबी कृपलानी कहते थे कि वे आते हैं और बोल कर चले जाते हैं और बाकी लोग माथापच्ची करते रहते हैं कि अब यह काम होगा कैसे। गांधी ने शांति सेना का विचार 1938 में ही रखा था। लेकिन गांधी स्वयं शांति सेना के महारथी थे इसलिए वे जब चाहते थे तो सत्ता की राजनीति करने वालों को शांति सेना में बदल देते थे और जब चाहते थे शांति सेना को सत्तारूढ़ दल बना देते थे। बल्कि अगर विश्व इतिहास के परिप्रेक्ष्य में कहा जाए तो दावा किया जा सकता है कि गांधी दुनिया के सबसे बड़े शांति सैनिक थे। तभी लार्ड माउंटबेटन ने कहा था कि भारत के पश्चिमी हिस्से में चलने वाले दंगों को शांत करने का जो काम हमारी 90,000 की सेना नहीं कर पा रही है वह काम पूर्वी हिस्से में गांधी की वन मैन आर्मी कर रही है।
गांधी विश्व स्तरीय शांति सैनिक थे और उनकी मांग भी दुनिया भर में थी। जब वे 1931 में युरोप की यात्रा पर थे तो स्विटजरलैंड में लोगों ने उनसे कहा भी कि युरोप पर युद्ध के बादल मंडरा रहे हैं, आप यहीं रुक कर शांति का काम कीजिए। गांधी ने उन्हें जवाब दिया कि अभी धरती के एक हिस्से में उनका प्रयोग चल रहा है। अगर वह सफल हो गया तो वे यहां भी आएंगे। लेकिन उन्हें जाने का मौका नहीं मिला। यह बात अलग है कि गांधी ने हिटलर को पत्र लिखा और यहूदियों को भी हिटलर के निपटने के लिए सुझाव दिया। उन्होंने युद्ध से निपटने के लिए ब्रिटेनवासियों को भी सत्याग्रह की सीख दी। लेकिन गांधी शांति के असली सैनिक थे यह बात उन्होंने 30 जनवरी 1948 को अपनी शहादत से प्रमाणित कर दिया।
विनोबा गांधी की राजनीति को अपने अध्ययन, मनन और कर्म से नया रूप देना चाहते थे और भारतीय राजनीति में गांधी की अनुपस्थिति से सत्ता के बाहर जो निर्वात पैदा हुआ था उसे भरना चाहते थे। वे अपने को पूरी तरह गांधी का शिष्य नहीं मानते थे और थे भी नहीं। उनकी अपनी मौलिता थी। लेकिन शायद उनका सर्वोदय का काम वही था जो गांधी की आखिरी वसीयत में बताया गया था। शांति सेना भी उसी का एक रूप थी। विनोबा जब 1959 में कश्मीर गए तो उनका समाज के हर तबके ने जबरदस्त स्वागत किया। वहां वे कुरआन पर प्रवचन देते रहे। जिसका कुछ तबकों ने विरोध किया तो कुछ ने उसकी काफी प्रशंसा की। विशेषकर पाकिस्तान के मुल्ला मौलवियों ने उसकी आलोचना की तो वहां के अखबारों ने यह कहते हुए तारीफ की कि अरबी का विनोबा का उच्चारण और उसका अर्थ समझने की क्षमता अद्भुत है।
विनोबा ने कहा था कि कश्मीर में राजनीति बहुत हो गई। अब उसकी समस्याओं का समाधान आध्यात्मिक नजरिए से किया जाना चाहिए। इसी बात को बाद में भारत के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा कि कश्मीर के लोगों से संविधान नहीं इंसानियत के दायरे में बात होनी चाहिए। आज जब कश्मीर के चुनाव में सत्ताधारी दल भाजपा के लोग कह रहे हैं कि वहां राज्य का दर्जा हमी बहाल कर सकते हैं तो राजनीतिक अहंकार का चरम दिखाई पड़ता है। इसका तो यही अर्थ है कि हमी ने दर्द दिया हमी दवा देंगे।
विनोबा पर `साम्ययोग के आयाम-विनोबा दृष्टि का पुनर्पाठ’ जैसी दार्शनिक विवेचन वाली पुस्तक लिखने वाले नंद किशोर आचार्य कहते हैं—`मुझे कभी कभी आश्चर्य होता है कि जिस बात को विनोबा जैसे संत ने इतने स्पष्ट तरीके से देख-समझ लिया था उसे हमारे आज के संत महात्मा क्यों नहीं समझ पा रहे हैं। केवल राजनीति करने वाले लोग अपनी सत्ताकांक्षा में समाज में भेद को बढ़ाना चाहें, यह अवांछनीय होते हुए भी समझ में आ सकने वाली बात है। लेकिन जिन संतों महात्माओं ने संपूर्ण जगत को एक ही परमतत्व की अभिव्यक्ति के रूप में स्वीकार किया है, वे यदि इस राजनीति के माध्यम या शिकार हो रहे हैं तो यह निश्चय ही अधिक चिंतित करने वाली बात है। इसका मतलब है कि संत महात्मा भी आत्मज्ञान की नहीं विकृत्ति चित्तवृत्तियों की राह पर हैं।’
विनोबा की बहुत सारी आलोचनाएं हैं और सबसे बड़ी आलोचना तो यही है कि गांधी की नकल करने से कोई गांधी नहीं हो जाता। लेकिन विनोबा कई मायने में गांधी से अलग हैं और इसे वे तो स्वयं कहते ही थे और गांधी भी इस बात को मानते थे कि विद्वता के मामले में विनोबा पाणिनि के कंधे पर बैठकर बोलता है। जहां तक विनोबा और उनकी शांति सेना की बात है तो आज के गांधीवादी यही कहते हैं कि उस समय जब शांति सेना काम करती थी तो सरकारें उस पर यकीन करती थीं और सैनिकों को परेशान नहीं करती थीं। आज स्थिति उलट गई है। आज अशांति फैलाने वाले ही शांति सैनिक बनकर हर जगह उपस्थित रहते हैं। संघ परिवार के तमाम संगठनों को सरकारों की छूट है लेकिन कोई दूसरा अच्छा काम करने जाए तो भी उसे पुलिस से इजाजत लेनी होगी और वह इजाजत कब वापस ले ली जाए कहा नहीं जा सकता।
फिर भी आज गांधी और विनोबा के विचारों पर गठित शांति सेना की इस देश को जरूरत है। जब कहीं मुसलमान दोस्त का खून हिंदू भाई को चढ़ाने के लिए सरकारी अस्पताल मना कर रहे हों। किसी को मांसाहार के आधार पर पीट-पीट कर मार डाला जा रहा हो, किसी की गोमांस के शक में हत्या हो रही हो तो किसी को परधर्म का समझ कर गोली मारी जा रही हो, महज एफआईआर हो जाने पर किसी का घर इसलिए गिरा दिया जा रहा हो कि वह अल्पसंख्यक धर्म से जुड़ा है। कांवड़ यात्रा के दौरान दुकानदारों का धर्म पूछा जा रहा हो। अल्पसंख्यकों के धर्म की हर पुस्तक को बेकार ही बताया जा रहा हो और बहुसंख्यक धर्म की हर पुस्तक को श्रेष्ठ बताया जा रहा हो, तब विनोबा के मार्ग पर चल कर सभी धर्मों के आध्यात्मिक तत्व को पहचानने और मैत्री के महाअभियान को छेड़ने की जरूरत है।
शांति- सैनिक की प्रतिज्ञाओं में एक बात कही गई है कि उसे मृत्यु का भय नहीं होना चाहिए। इसी के साथ एक बात यह भी जोड़ी जानी चाहिए कि शांति सेना का काम कभी समाप्त नहीं होता। विनोबा शांति सेना के संस्थापक थे लेकिन जब वे 1974 में आश्रम में मौन धारण करके बैठ गए तो उन्होंने न सिर्फ अपना काम समाप्त मान लिया बल्कि कहीं मृत्यु का भय भी प्रदर्शित किया। यहीं पर वे गांधी से अलग हो गए। गांधी को 1947 में पंजाब से आए शरणार्थी हिमालय जाने की सलाह दे रहे थे लेकिन गांधी समाज में ही रह कर अपना काम करने पर अड़े थे। जबकि वे अपने जीवन का पूरा उद्देश्य ही मोक्ष बताते थे। उनके विपरीत विनोबा कहते थे कि समाधि व्यक्तिगत नहीं सामाजिक होनी चाहिए। लेकिन वे व्यक्तिगत इच्छा करते हुए मौन बैठ गए। वास्तव में गांधी के दावे कई बार व्यक्तिगत होते हुए भी उनके कर्म समष्टिगत होते थे। जबकि विनोबा के विचार और दावे समष्टिगत होते हुए भी उनके कर्म व्यक्तिगत हो जाते थे। पर आज जरूरत है दोनों को समझने और विनोबा और शांति सेना के काम को बढ़ाने की।