तकनीक-आधारित औद्योगीकरण, पूंजी का केन्द्रीकरण और उनके नतीजे में दो बडे युद्धों के बावजूद 20वीं और 21वीं शताब्दियां गांधीजी के नाम से जानी जाती हैं। कैसे थे वे और उनका जीवन? प्रस्तुत है, इसका खुलासा करता पत्रकार के. विक्रम सिंह का, ‘जनसत्ता’ से साभार लिया गया यह लेख।
कई वर्षों के बाद पिछले दस दिनों में मेरी गांधी से मुलाकात हुई, एक दफा नहीं दो दफा। हां, वही गांधी जी जिनकी तस्वीरें दीवारों पर लगाकर हम उन्हें भूल गए हैं और जिन्हें खोखली धार्मिक प्रक्रिया की तरह हम साल में तीन दफा याद कर लेते हैं – 15 अगस्त, 2 अक्टूबर और 30 जनवरी। हुआ यूं कि ‘भारतीय फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान’ यानी ‘एफटीआईआई,’ पुणे से ’साम्प्रदायिकता के विरूद्ध सिनेमा’ पर एक सेमिनार में भाग लेने के लिये न्यौता मिला था। इस कारण मैं लगभग दो दशकों के बाद ‘एफटीआईआई’ गया। सेमिनार तीन दिन का था। इसी दौरान मैं कुछ समय निकालकर आगाखाँ पैलेस देखने निकल पड़ा।
आगाखाँ पैलेस 1892 में ‘खोजा इस्माइली सम्प्रदाय’ के धार्मिक-प्रधान सुलतान मोहम्मद शाह आगाखाँ ने बनवाया था। ऐसा माना जाता है कि इसका उदेद्श्य साधारण लोगों को काम देना था, क्योंकि उस समय महाराष्ट्र में अकाल फैला हुआ था। मुझे आगाखाँ पैलेस के इस इतिहास में कोई खास दिलचस्पी नहीं थी। मेरी दिलचस्पी इस बात में थी कि जब नौ अगस्त 1942 को गांधीजी ने ’भारत छोड़ो आंदोलन’ शुरू किया और देश को ’करो या मरो’ का नारा दिया तो ब्रिटिश सरकार ने उन्हें कैद करके लगभग दो साल इसी आगाखाँ पैलेस में रखा था। उनके साथ ’बा’ भी थीं और महादेव देसाई भी, जो उनके निजी सचिव भी थे और जिन्हें गांधीजी बेटा समान मानते थे।
यह पैलेस यानी राजमहल आज भी बहुत भव्य लगता है, लेकिन जब मैंने उन कक्षों को देखा, जहां बा और गांधीजी रहते थे तो उन्हें अत्यंत सादा पाया। गांधीजी के कमरे में जमीन पर बिछा एक गद्दा और समाने लिखने-पढ़ने के लिये एक पुराने ढंग की छोटी मेज है। इसी गद्दे पर गांधीजी सोते थे और इसी पर बैठकर काम करते थे। बिल्कुल सादा जीवन, कहीं कुछ फालतू नहीं। दुर्भाग्य से ‘गांधी स्मारक निधि (केन्द्रीय)’ ने, जो अब इस स्मारक की देखरेख करती है, इस कक्ष की सादगी को दीवार पर गांधीजी का एक बड़ा-सा चित्र लगाकर बिगाड़ दिया है। यह चित्र लगभग उसी अंदाज में है जिस तरह राजाओं और देवताओं के चित्र बनाए जाते हैं। इस चित्र की वहां कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि उस कमरे की सादगी में अभी भी गांधीजी मौजूद हैं।
यह तो मुझे पहले से मालूम था कि 22 फरवरी 1944 को बा यानी कस्तूरबा गांधी की मृत्यु इसी पैलेस में हुई थी। यहीं पर उनका दाह-संस्कार हुआ था और यहीं पर उनकी समाधि बनी हुई है। यह समाधि भी बिलकुल सादा है। लेकिन मुझे यह मालूम नहीं था कि महादेव देसाई की मृत्यु भी आगाखाँ पैलेस में ही हुई थी। गांधीजी के गिरफ्तार होने के ठीक एक हफ्ते बाद महादेव देसाई को यहीं पर दिल का दौरा पड़ा और उनकी मृत्यु हो गई। इस पैलेस की दीवार पर एक पट्टिका लगी हुई है कि जब महादेव को दिल का दौरा पड़ा तो गांधीजी उनके बिस्तर के पास खड़े महादेव को बार-बार पुकारते रहे और यह कहते रहे कि अगर वह आंख खोलकर मुझे एक दफा देख लेगा तो फिर वह मुझ छोड़कर नहीं जायेगा। लेकिन महादेव ने आंखें नहीं खोलीं।
महादेव की मृत्यु के बाद गांधीजी ने स्वयं उसके पार्थिव शरीर को धोया और उसे चंदन और फूलों से सजाया। बीच-बीच में वे फुसफुसाते रहे, ’’महादेव, मैं तो सोचता था कि यह तो तुम मेरे लिये करोगे।’’ जब महादेव की मृत्यु की खबर सरकार तक पहुंची तो पुलिस अधिकारी एक लॉरी और कुछ ब्राह्णों को लेकर आगाखाँ पैलेस पहुंचे, ताकि वे शरीर को ले जाऐं और कहीं बाहर उसका दाह-संस्कार करें। गांधीजी ने शरीर देने से यह कहकर इंकार कर दिया कि ‘‘कोई पिता अपने पुत्र का शरीर अजनबी लोगों को नहीं दे सकता। मैं उसका दाह-संस्कार स्वयं करूंगा। यदि सरकार मुझे उसका शरीर बाहर ले जाने की इजाजत नहीं दे सकती तो मैं उसे अपने मित्रों को सौंपने के लिये तैयार हूं। लेकिन मैं उसे जेल के अधिकारियों को नहीं सौंपूंगा।’’
गांधीजी के लिये नैतिकता और राजनीति दो अगल रास्ते नहीं थे। इसलिए ऊपर-लिखित बातें कहने के बाद वे सोचने लगे और फिर बोले कि, ‘‘मैं अपने बेटे की मृत्यु को एक राजनीतिक मुद्दा नहीं बनाना चाहता। यदि सरकार मुझे बाहर जाने या मित्रों को शरीर सौंपने की इजाजत नहीं देती है तो मैं इसका यहीं दाह-संस्कार करने के लिये तैयार हूं।’’ सरकार को गांधीजी की यह बात माननी पड़ी और उसी दिन बाद दोपहर आगाखाँ पैलेस के बाग के एक कोने में ही महादेव देसाई का स्वयं गांधीजी ने दाह-संस्कार किया। महादेव देसाई की समाधि भी बिलकुल सादा है और बा की समाधि के ठीक बगल में है।
पुणे यात्रा के दो दिन बाद मुझे वर्धा जाने का अवसर मिला। वर्धा से लगा हुआ ही सेवाग्राम है, जिसे गांधीजी ने 1936 में स्थापित किया था। सेवाग्राम पहुंचकर मुझे पता लगा कि जब यहां गांधीजी के रहने की व्यवस्था की जा रही थी तो उन्होंने यह आदेश दिया था कि उनके रहने के लिये जो कमरा बने, उस पर सौ रूपये से अधिक खर्चा नहीं होना चाहिये। कई वर्ष तक गांधीजी, बा और महादेव देसाई के साथ, एक ही झोपड़ी में रहे। फिर वही सादगी नजर आई जो गांधीजी की जीवनशैली का मूल मंत्र था और जिसे मैं आगाखाँ पैलेस में देख चुका था। इस सादगी के बारे में बा क्या महसूस करती थीं, मुझे मालूम नहीं। कैसे उन्होंने गांधीजी के सख्त उसूलों के साथ निर्वाह किया, यह फिल्म का एक अच्छा विषय है। हां यह जरूर जानता हूं कि यदि गांधीजी की सादगी का मूल-मंत्र हमारे आज के राजनेता, खासतौर से हमारे सांसद जो 80,000 रूपये प्रति माह तन्ख्वाह की मांग कर रहे हैं, थोड़ा-बहुत भी अपना लें तो देश की काफी समस्याऐं सुलझ सकती हैं। यदि हमारे नेता सादगी अपनायेंगे तो आज भी काफी लोग उनका अनुसरण करेंगे।
दो बातें और याद करा दूं। पहली बात, महादेव देसाई अहमदाबाद में एक युवा वकील थे जब 1917 में वे गांधीजी के साथ जुड़े। गांधीजी के साथ वे कई दफा जेल गये और उन्होंने ही गांधीजी की आत्मकथा का पहली बार अंग्रेजी में अनुवाद किया था जिसे हम आज ‘द स्टोरी ऑफ माई एक्स्पेरिमेन्ट्स विद ट्रुथ’ के नाम से जानते हैं। दूसरी बात, आगाखाँ पैलेस में उनकी मृत्यु 15 अगस्त 1942 को हुई थी। मुझे याद नहीं पड़ता कि पिछले कुछ सालों में मैंने 15 अगस्त के दिन अखबार में या टेलीविजन पर महादेव देसाई का कोई जिक्र सुना हो। (सप्रेस)