तरह-तरह के प्राकृतिक और इंसानी धतकरमों की ‘कृपा’ से दिनों-दिन बदहाल होती दुनिया को बचाने और सही-सलामत रखने की कोशिशें अंतत: महात्मा गांधी के विचारों पर आकर टिकती हैं। आखिर क्या हैं, बापू की सहज, सरल सीख-सलाहें? बता रहे हैं, भारत डोगरा।
अनेक वैश्विक समस्याओं के बीच भारत को अपना मार्ग बहुत सावधानी से खोजना है। इस प्रयास में महात्मा गांधी की सोच आज भी बहुत महत्त्वपूर्ण मार्ग-दर्शक की भूमिका निभा सकती है। महात्मा गांधी की सोच के मूल सिद्धान्त हैं – सत्य व अहिंसा, सादगी व समता, अन्याय के विरुद्ध दृढ़, पर अहिंसक संघर्ष, सभी धर्मों के प्रति सम्मान, किसी समुदाय के प्रति भेदभाव न करना, अर्थनीति में निर्धन वर्ग की भलाई को उच्चतम प्राथमिकता देना, विकेन्द्रित, आत्म-निर्भर व आपसी सहयोग से हुए ग्रामीण विकास को अधिक महत्त्व देना। यदि समकालीन संदर्भ में इन सिद्धान्तों को प्रतिष्ठित किया जाए तो देश ही नहीं पूरी दुनिया की बड़ी समस्याओं को सुलझाने की दिशा मिल सकती है।
इसके लिए इन सिद्धान्तों को समकालीन संदर्भ में भली-भांति समझना और प्रतिबद्धता से उन पर चलना होगा। यह एक बहुत रचनात्मक मार्ग है। इसमें तरह-तरह की प्रसन्नता व उत्साह देने वाली उपलब्धियां हैं, पर साथ में शक्तिशाली स्वार्थों का सामना करने की चुनौतियां और कठिनाईयां भी हैं। बड़ी बात यह है कि केवल कहने के स्तर पर या कागजी स्तर पर इस सोच को अपनाने से कुछ प्राप्त नहीं होगा, वास्तविकता और निरंतरता से इसे अपनाना होगा।
यदि एक गांव के स्तर पर ही इस सोच को देखें तो भूमिहीनों के लिए कुछ भूमि की व्यवस्था करनी चाहिए। दबंगों के अवैध कब्जों को हटाकर, सीलिंग की व्यवस्था लागू कर, बंजर भूमि सुधारकर व अन्य उपायों से थोड़ी सी ही सही, पर कुछ भूमि सभी भूमिहीन परिवारों को अवश्य देनी चाहिए। जल-संरक्षण, मिट्टी का प्राकृतिक उपजाऊपन बढ़ाने के उपाय, प्राकृतिक खेती, परंपरागत बीजों की रक्षा, कुंओं व तालाबों की रक्षा, दस्तकारियों की रक्षा, खाद्य प्रसंस्करण, खाद व कीड़ों-बीमारियों से फसल की रक्षा, किसानों के मित्र विभिन्न जीव-जंतुओं, विशेषकर गोवंश की रक्षा, गांववासियों में आपसी सहयोग व भाईचारे को मजबूती, गांव में एकता व आत्म-निर्भरता बढ़ाना, परस्पर सहयोग से गांव का पर्यावरण सुधारना, वनों की रक्षा करना व नए वृक्ष लगाना – ये सब विकास की प्राथमिकता के कार्य हैं जो जलवायु बदलाव के संकट को कम करने व उसकी सहन-क्षमता बढ़ाने से भी जुड़े हैं।
गांधीजी की सोच इन कार्यों के अनुकूल है व ग्रामीण विकेंद्रीकरण तथा पंचायती राज को इस रूप में मजबूत करना चाहती है कि उसके माध्यम से इन प्राथमिकताओं के लिए पर्याप्त संसाधन प्राप्त करते हुए, गांववासी परस्पर सहयोग से इन उद्देश्यों के लिए अपनी क्षमतानुसार अधिकतम प्रयास करते हुए सार्थक व टिकाऊ उपलब्धियों की ओर बढ़ें। परस्पर सहयोग की इसी मजबूती का उपयोग वे सभी तरह के नशे को दूर रखने व जुए, दहेज-प्रथा जैसी अन्य सामाजिक बुराईयों से निपटने में करें। इस सोच में महिला विरोधी हिंसा, अन्य तरह की हिंसा, लंबी व खर्चीली मुकदमेबाजियों के लिए कोई स्थान नहीं है।
जहां एक ओर यह सहयोग व अमन की सोच है, वहीं दूसरी ओर एक अन्य सोच है जिसमें धर्म व जाति के आधार पर गुटबाजी की जाती है। गांव में कुछ लोग कहते हैं कि जातियों को ऐसे जोड़ो कि अधिक वोट मिल जाएं। दूसरा पक्ष कहता है कि ऐसे जोड़ो कि वोट के अलावा हम अन्य तरह से भी शक्तिशाली हों। कुछ अन्य लोग कहते हैं कि इससे भी अधिक लाभ धर्म के आधार पर बांटने से मिलेगा। इसके जवाब में दूसरा पक्ष कहता है कि हम जाति आधारित जोड़ से तुम्हारा जवाब देंगे। इन सभी तरह की सोच में महात्मा गांधी का यह उद्देश्य तो पूरी तरह पीछे छूट जाता है कि सभी को आपसी सहयोग के रिश्ते में बांधने का प्रयास किया जाना चाहिए।
एक गांव का उदाहरण छोड़कर राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो यहां भी हमें राष्ट्रीय हित के कार्यों के लिए आपसी सहयोग की बहुत कमी दिखाई देती है। बेशक कुछ हद तक लोकतांत्रिक राजनीति के दौर में विभिन्न राजनीतिक दलों व नेताओं में नोंक-झोंक होती है, पर इसके साथ व्यापक राष्ट्रीय हित के मुद्दों पर सहयोग बढ़ाना भी जरूरी है। लोकतांत्रिक व्यवस्था यह अवसर देती है कि किसी देश के विकास और प्राथमिकताओं पर विभिन्न विचार रखने वाले व्यक्ति, नेता व दल अपने-अपने विचारों को लेकर चुनाव क्षेत्र में जाएं व जिसे जनता का अधिक समर्थन मिले वे सरकार का गठन करें। इसका यह अर्थ नहीं है कि सभी लोगों के हित के महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर सहयोग न हो। सबसे महत्त्वपूर्ण राष्ट्रीय हित के मुद्दों पर आपसी सहमति बननी चाहिए व सभी दलों, सभी लोगों को इन मुद्दों पर आपसी सहयोग से कार्य करना चाहिए।
घरेलू पक्ष को देखें तो महात्मा गांधी की सोच के अनुरूप समता, सादगी, पारदर्शिता, ईमानदारी, विकेन्द्रीकरण, पर्यावरण की रक्षा, भेदभाव का अंत, सभी धर्मों का आपसी सम्मान व भाईचारा – यह राष्ट्रीय हित के लिए सबसे जरूरी हैं व इन पर आधारित आम सहमति के कार्यक्रम बनने चाहिए। जहां इन नीतियों के विरोध की नीतियां अपनाई जाएं, वहां अहिंसक विरोध होना चाहिए। विदेश नीति को देखा जाए तो पूरी दुनिया में अमन-शांति को बढ़ाना, अति विनाशकारी हथियारों की दौड़ को रोकना या नियंत्रित करना, विश्व को ऐसी दिशा में ले जाना जहां युद्ध की संभावना न हो या न्यूनतम हो, पर्यावरण की रक्षा को प्राथमिकता देना, धरती की जीवन-रक्षक स्थितियों को बचाने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग को उच्चतम महत्त्व देना, अभाव व भुखमरी से पीड़ित देशों की सहायता को प्राथमिकता देना बहुत जरूरी है।
पड़ौसी देशों से शांतिपूर्ण संबंध बनाए रखना व अपने सीमा-विवादों को यथासंभव सद्भावनापूर्ण माहौल में सुलझाना बहुत महत्त्वपूर्ण है। इनके लिए राष्ट्रीय सहमति से कार्य होना चाहिए, ताकि यह कार्य करते हुए सरकार की स्थिति मजबूत रहे। जहां अमन-शांति के लिए प्रतिबद्धता अति आवश्यक है, वहां स्थितियां प्रतिकूल हो जाने पर देश की रक्षा भली-भांति हो सके, इसके लिए भी तैयार रहना पड़ेगा। समकालीन संदर्भ में यह सोच महात्मा गांधी की सोच के बहुत नजदीक है। यदि भारत इस सोच को सही अर्थों में अपना पाता है तो इससे न केवल देश विकास की बहुत सार्थक समझ के अनुकूल प्रगति कर सकेगा, अपितु विश्व के लिए भी यह एक बहुत महत्त्वपूर्ण सीख होगी और इस तरह के विकास को विश्व स्तर पर अनुकरणीय माना जाएगा। महात्मा गांधी की सोच और भारत की आजादी की लड़ाई से निकले संदेश की एक बड़ी उपलब्धि है कि सात-आठ दशक बीत जाने के बाद भी इनकी प्रासंगिकता न केवल बनी हुई है, अपितु जलवायु बदलाव व महाविनाशक हथियारों की होड़ के बीच इस संदेश का महत्त्व और बढ़ गया है। जरूरत इस बात की है इस संदेश को समकालीन समस्याओं के संदर्भ में समझा व अपनाया जाए। (सप्रेस)
[block rendering halted]