राजकुमार सिन्हा

जिन वन और वन्यप्राणियों को इंसानी हस्तक्षेप से बचाने की खातिर समूची सरकारी ताकत जंगलों में बसे इक्का-दुक्का गांवों को खदेड़ने में लगी है, उन्हीं वनों को दान-दक्षिणा में पूंजीपतियों को सौंपा जा रहा है। क्या इस तरह की मौजूदा नीतियां जंगलों को सुरक्षित, संरक्षित कर पाएंगी?

विकास कार्य के लिए जंगल कट रहे हैं, उनके स्थान पर हुए पौधारोपण को जंगल मान लिया गया है। पर्यावरणविद एवं ‘विधि सेंटर फॉर लीगल पालिसी’ में ‘जलवायु और पारिस्थितिकी तंत्र’ के लीडर देबादित्यो सिन्हा का कहना है कि सिर्फ पौधारोपण करने से जंगल का निर्माण नहीं हो सकता। प्राकृतिक वनों में वनस्पतियों की कम-से-कम तीन परतें होती हैं, जिसमें सबसे नीचे आता है ‘वन तल’ जो कि मिट्टी एवं जङी-बूटियों से बना होता है। इसके बाद झाडियां और फिर आते हैं पेङ। वन-तल एवं झाङीनुमा वनस्पति की सबसे अहम भूमिका होती है। केवल पेङों की संख्या पर निर्भर रहना मौजूदा पारिस्थितिकी तंत्र की जटिल संरचना और प्राकृतिक संतुलन की उपेक्षा करता है। ‘राष्ट्रीय वन नीति’ का लक्ष्य पर्यावरणीय स्थिरता और पारिस्थितिकी संतुलन के लिए मैदानी क्षेत्रों में 33.3 प्रतिशत और पहाड़ी क्षेत्रों में 66.6 प्रतिशत भूमि को वनाच्छादित करना है। 

‘वैश्विक प्रकृति संरक्षण सूचकांक 2024’ की रिपोर्ट में 180 देशों में भारत को 176 वें स्थान पर रखा गया है। भारत का सबसे निचले स्थान पर होना मुख्य रूप से अकुशल भूमि-प्रबंधन और जैव-विविधता पर बढते खतरों के कारण है। हम एक ऐसे समय में रह रहे हैं जब संपूर्ण पारिस्थितिकी विनाश की संभावना के बारे में चर्चा करना जरूरी है, लगभग उसी संदर्भ में जैसे परमाणु हथियारों के आलोचकों ने अक्सर पूर्ण परमाणु विनाश की संभावना का उल्लेख किया है। हमारी वर्तमान सामाजिक व्यवस्था, मानव स्वतंत्रता और प्रकृति के साथ मानवीय संबंध के यांत्रिक दृष्टिकोण में उलझी हुई है, जो सीधे तौर पर पारिस्थितिक अनिवार्यता के विपरीत है।

भारत की बात करें तो इंग्लैंड स्थित ‘यूटिलिटी बिडर’ की एक रिपोर्ट के अनुसार, पिछले तीस वर्षों में 6,68,400 हेक्टेयर जंगल देश ने खो दिया है। वर्ष 1990 से 2020 के बीच वनों की कटाई की दर में भारत दुनिया के दूसरे सबसे बङे देश के रूप में उभरा है। भारत सरकार द्वारा वन क्षेत्र में वृद्धि के बावजूद, ‘ग्लोबल फारेस्ट वाच’ जैसे अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों ने रिपोर्ट दी है कि भारत ने 2001 से 2023 के बीच 23300 वर्ग किलोमीटर वृक्ष-क्षेत्र खो दिया है। ‘ग्लोबल फारेस्ट वाच’ ने यह भी बताया है कि 2013 से 2023 तक 95 प्रतिशत वनों की कटाई प्राकृतिक वनों में हुई है।

मध्यप्रदेश वन विभाग की रिपोर्ट के अनुसार 1980 से अब तक सबसे ज्यादा वन‌-भूमि, 86330.52  हेक्टेयर सिंचाई परियोजनाओं के लिए खत्म हुई है, उसमें भी सबसे ज्यादा नर्मदा घाटी के बांधों से हुई है। अगस्त 2024 को राज्यसभा में एक पूरक प्रश्न का उत्तर देते हुए वन, पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन मंत्री भूपेंद्र यादव ने कहा कि ‘पिछले 10 वर्षों में विकास गतिविधियों के कारण 1,73,396 हेक्टेयर वनक्षेत्र नष्ट हो गया है।‘ उन्होंने दावा किया कि 2013 से 2023 के बीच 21,761 वर्ग किलोमीटर प्रतिपूरक वनरोपण से वन-क्षेत्र की भरपाई हुई है।

बेंगलुरु के ‘टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च’ के डाक्टर एमडी मधुसूदन ने बताया कि आमतौर पर नक्शे सार्वजनिक नहीं होते, परन्तु ‘जियो स्पेशल डेटा नीति’ के बाद ‘प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना’ के लिए नक्शे सार्वजनिक हुए। देहरादून स्थित ‘इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ रिमोट सेंसिंग’ ने 1999 से 2019 के दौरान असम के सोनीतपुर में 34,400 हेक्टेयर वनक्षेत्र कम होने की जानकारी दी थी, जबकि इसी दौरान ‘फारेस्ट सर्वे रिपोर्ट’ में वहां 33,800 हेक्टेयर वनक्षेत्र बढ़ा बताया गया। मधुसूदन के मुताबिक जब सोनितपुर के डिजिटल नक्शे को जूम किया गया तो पता चला कि जिस इलाके को फोरेस्ट दिखाया गया है, वह चाय बागान है।

तमिलनाडु के कोयंबटूर के वेलापरई  में चाय बागानों को भी फोरेस्ट कवर दिखाया गया है। लक्षद्वीप का 95 फीसदी इलाका फारेस्ट कवर है, जबकि वहां नारियल के पेड़ हैं और उनके बीच घनी आबादी बसी है। दिलचस्प तो यह है कि जैसलमेर के मरुस्थली इलाके को फारेस्ट कवर दिखाया गया है, जबकि वहां रेगिस्तानी झाङियां थीं। दिल्ली के लुटियन-जोन का कुछ हिस्सा भी ‘फारेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया’ के नक्शे में फारेस्ट कवर है। ‘सेंटर फॉर साइंस एंड इन्वायरमेंट’ (सीएसई) की महानिदेशक सुनीता नारायण कहती हैं कि ‘स्टेट ऑफ फारेस्ट रिपोर्ट- 2021’ के मुताबिक देश में 1.6 लाख हेक्टेयर (0.2 %) वन क्षेत्र बढ़ा है। देश में 7.753 करोड़ हेक्टेयर वन भूमि है जिस पर 5.166 करोड़  हेक्टेयर फारेस्ट कवर है। बचे 2.587 करोड़ हेक्टेयर (34%) वन-भूमि का क्या हुआ, उसका कोई जिक्र नहीं है।

भारत 17 विशाल जैव-विविधता वाले देशों में से एक है। यहां दुनिया की 12 फीसद जैव-विविधता है। यह समृद्ध जैव-विविधता पारिस्थितिकी संतुलन, पोषण-चक्र और जलवायु विनियमन को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। भारत के 27.5 करोड़ लोगों की आजीविका को सहारा देती है, जो वन-संसाधनों पर निर्भर हैं। देश के 10 जैव-भौगोलिक क्षेत्रों में 1,03,258 से अधिक जीव-जंतुओं और 55,048 से अधिक वनस्पतियों की प्रजातियां दर्ज की गई है। जैव-विविधता भारत की जलवायु परिवर्तन के शमन और अनुकूलन (मिटिगेशन एंड एडॉप्टेशन) में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। ‘लोक लेखा समिति’ की रिपोर्ट के अनुसार ‘पर्यावरण और वन मंत्रालय’ 45000 पौधों और 51000 जानवरों की प्रजातियों की पहचान करने के बाबजूद‌ जैव-विविधता संरक्षण के मोर्चे पर विफल रहा है।

भारत में गुजरात और महाराष्ट्र की सीमा से शुरू होकर गोवा, कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल के बाद कन्याकुमारी तक जाने वाले 1600 किलोमीटर लंबे इलाके को ‘पश्चिमी घाट पर्वत श्रृंखला’ कहा जाता है। वर्ष 2010 में पर्यावरणविद् प्रो. माधव गाडगिल की अध्यक्षता में गठित ‘पश्चिमी घाट इकोलॉजी एक्सपर्ट पैनल’ ने इस संपूर्ण क्षेत्र को पारिस्थितिकी संवेदनशील क्षेत्र का दर्जा दिया था और यहां सीमित खनन का पक्ष लिया था। हालांकि, पेड़ काटने, खनन और अतिक्रमण के कारण ‘पश्चिमी घाट’ के पारिस्थितिकी तंत्र पर विपरीत असर पङ रहा है। गोवा में 2007 से 2011 तक करीब पैंतीस हजार करोड़ रुपये का अवैध खनन किया गया। ‘इसरो’ के अध्ययन के अनुसार 1920 – 2013 में ‘पश्चिमी घाट’ का 35 फीसद क्षेत्र नष्ट हो चुका है।

स्थानीय आदिवासी समुदाय द्वारा छत्तीसगढ के हसदेव के जंगलों को बचाने के संघर्ष को राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय सुर्खियां मिल चुकी हैं। ‘केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय’ की ‘फारेस्ट एडवाइजरी कमेटी’ द्वारा 15  जनवरी 2019 को छत्तीसगढ़ में ‘पारसा ओपन कास्ट कोल माइंस’ को फारेस्ट क्लियरेंस दे दिया गया। आदिवासी बहुल सूरजपुर और सरगुजा जिले में स्थित यह क्षेत्र एक लाख सत्तर हजार हेक्टेयर में फैले ‘हसदेव अरण्य’ का हिस्सा है जो सघन वनों से आच्छादित है। इसी में से 841.538 हेक्टेयर जैव-विविधता से परिपूर्ण हिस्से को खनन के लिए दे दिया गया है, जबकि 2009 में ‘पर्यावरण मंत्रालय’ ने ‘हसदेव अरण्य’ को माइनिंग के लिए ‘नो गो क्षेत्र’ घोषित किया था। ‘हसदेव अरण्य’ में स्तनपायी जीवों की 34, सरीसृपों की 14, पक्षियों की 111 और मत्स्य वर्ग की 29 प्रजातियां हैं। इसी प्रकार वृक्षों की 86, औषधीय पौधों की 51, झाङी प्रजाति के पौधों की 19 और घास प्रजाति के पौधों की अनेक प्रजातियां यहां मौजूद हैं।

‘भारतीय वन सेवा’ के पूर्व अधिकारी अशोक कुमार शर्मा और अन्य लोगों द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दायर एक जनहित याचिका में ‘वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980’ में किए गए संशोधनों को भारत के जंगलों के लिए ‘मृत्यु की घंटी’ बताया है। वरिष्ठ पत्रकार हृदयेश जोशी बताते हैं कि धरती के 36 जैव-विविधता हॉट-स्पॉट में से चार भारत में हैं, लेकिन आज उन पर भी खतरा मंडराना रहा है। बढते शहरीकरण, औद्योगिक विस्तार और संसाधनों के दोहन से समृद्ध पारिस्थितिकी तंत्र को खतरा बढ़ रहा है। जैव-विविधता पर ‘अंतर-सरकारी निकाय’  (आईपीबीईएस) के अनुसार, पृथ्वी की सतह का तीन-चौथाई हिस्सा पहले ही मानव जाति के लालची उपभोग के कारण काफी हद तक बदल चुका है और दो-तिहाई महासागरों का क्षरण हो चुका है। भारतीय अर्थशास्त्री पवन सुखदेव ने अनुमान लगाया है कि जैव-विविधता की हानि की लागत प्रतिवर्ष 1.75 से 4 लाख करोड़ रुपये तक होती है। अक्टूबर 2024 को कोलंबिया के केली में आयोजित 16 वें ‘संयुक्त राष्ट्र जैव-विविधता सम्मेलन’ के बाद भारत ने वैश्विक लक्ष्यों के अनुरूप 2030 तक अपने स्थलीय, अंतर्देशीय जल एवं तटीय और समुद्री क्षेत्रों के कम-से-कम 30 प्रतिशत को संरक्षित करने के लक्ष्य के साथ कार्ययोजना शुरू की है। ‘नेशनल बायो-डायवर्सिटी स्ट्रेटजी एण्ड एक्शन प्लान’ के अनुसार भारत ने 2017-2018 से लेकर 2021-2022 तक जैव-विविधता सुरक्षा, संरक्षण और पुनर्स्थापन के लिए 32,200 करोड़ रुपये खर्च किए हैं। आगामी 2029- 2030 तक जैव-विविधता संरक्षण के लिए अनुमानित वार्षिक औसत व्यय 81,664.88 करोड़ रुपये होने का अनुमान है। यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि प्रकृति संरक्षण पर होने वाले निवेश से क्या बदलाव आता है। (सप्रेस)

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