चण्डी प्रसाद भट्ट

खगोलीकरण और जलवायु परिवर्तन का दौर हिमालयी समाजों तथा प्रकृति दोनों के लिए चुनौती और चेतावनी भरा है,ये खतरे हमारे जीवन संसाधनों उत्पादन और जीवन पद्वति के लिए घंटी बजा चुके हैं। ऐसे में इन सबके प्रभाव को सरकारों और समाजों द्वारा नियंत्रित किया जाना अत्यधिक कठिन है। हिमालय के संसाधनों पर हो रहे आक्रमण से प्रकृति ने भी अपना गुस्सा प्रकट करना शुरू किया है। इन्हीं गंभीर मुद्दों और धरती की सुंदरता को बरकरार रखने के संदर्भ में हिमालय संरक्षण के पहलुओं पर केंद्रित आलेख।

श्रृष्टि के असंख्य ग्रहों-उपग्रहों में हमारी पृथ्वी सबसे विशिष्‍ट है। हमारी यह पृथ्वी, जिसे अपरिमित संसाधनों से सम्पन्न मानी जाती है, और जो सम्पूर्ण प्राणी जगत का शाश्‍वत जीवन स्थल है,आज इस स्थिति में पहुँच गई है कि यह सवाल उठने लग गये हैं कि इस पर प्राणी मात्र का जीवन यापन असंभव तो नहीं होने जा रहा है? और ऐसे अनेक सवाल जब उठते हैं तो उनके उत्तर तलाशने का क्रम शुरू हो जाता है। जब जीवन यापन असहज और दुरूह हो जाता है तो उसे सहज और सरल बनाने की कोशिश होती है।

हम देख रहे कि आज हमारे देश और दुनिया के अधिकांश भाग पर्यावरणीय बिगाड़ से त्रस्त है। एक ओर हमारी आवश्‍यकता बढ़ रही है, दूसरी ओर उससे भी अधिक तेजी से संसाधनों का हास हो रहा हैं। पानी के परम्परागत स्रोत सूख रहे हैं। वायुमण्डल दूषित हो रहा है। मिट्टी की उर्वरा शक्ति क्षीण हो रही है। भूक्षरण, भूस्खलन, भूमि-कटाव, नदियों द्वारा धारा परिवर्तन की घटनाएँ बढ़ती जा रही है। बाढ़ से प्रतिवर्ष लाखों लोगों की तबाही हो रही है और विकास योजनाएँ नष्ट हो रही हैं। इससे हमारी आर्थिक,सामाजिक और सांस्कृतिक समृद्धि के भविष्य पर प्रष्न चिन्ह लग रहा है।

इसका सर्वाधिक दुष्प्रभाव पहाड़ों पर पड़ रहा है। पर्वतों में भी हिमालय पर्वत सर्वाधिक प्रभावित है। आज पर्यावरणीय बिगाड़ का दूसरा नाम हिमालय है। यद्यपि हिमालय के साथ हमारा बहुत पुराना सम्बंध है। इतना पुराना सम्बंध है कि जब गीता लिखी गई होगी उससे भी पुराना। इसी प्रकार महाकवि कालिदास ने सदियों पहले हिमालय का वर्णन करते हुए हिमालय को पृथ्वी का मेरूदण्ड (आधार) कहा है। हिमालय को भारतीय संस्कृति और मनीषा के केन्द्र में रखा गया है। इस प्रकार हिमालय सांस्कृतिक और आध्यात्मिक क्षेत्र भी है, वहीं एशिया की जलवायु का निर्माता है। हिमालय एक बहुक्षेत्रीय, बहुराष्ट्रीय और बहुसांस्कृतिक पर्वत है और इसकी जैव विविधता भी विश्‍व के लिए वरदान स्वरूप है।

हिमालय हमारी संस्कृति ही नहीं, संसाधनों का भी आधार है। इसकी मिट्टी, जल तथा वनस्पतियाँ, जंगल आदि सिर्फ यहाँ के मानव जीवन तथा पर्यावरण को ही प्रभावित नहीं करते, बल्कि भारतीय उप महाद्वीप के जीवन तथा आर्थिकी इससे अभिन्न है। यह मानव समाज द्वारा निर्मित कार्बन को धारण करने वाले जंगलों को लिए हुए है।

हिमालय से तीन नदी प्रणालियाँ निकलती हैं । ये है-गंगा,ब्रहमपुत्र और सिन्धु। ये तीनों जल प्रणालियाँ देश की 43 प्रतिशत जमीन में फैली है और इन नदियों में देश के सकल जल का 63 प्रतिशत बहता है। ये नदियाँ भारत की भाग्य विधाता है। पेयजल, सिंचाई जल विद्युत तथा औद्योगिक इस्तेमाल के साथ यह पानी बोतलों में बंद करके बेचा जाता है।

इन तीनों नदियों में गंगा का महत्व किसी से छिपा नहीं है,यह आस्था से जितनी जुड़ी है उससे  अधिक हमारे अस्तित्व से जुड़ी है। इसका बेसिन भारत के 26 प्रतिषत क्षेत्र में फैला है और देश के कुल जल का 25 प्रतिशत गंगा और उसकी सहायक नदियों में बहता है। भारत के 9 राज्यों में गंगा के बेसिन का फैलाव है और देश की  41 प्रतिषत आबादी इसके बेसिन में निवास करती है। साथ ही नेपाल में जन्म लेने वाली नदियाँ भी गंगा में समाहित होती है।

हिमालय का एक और स्वरूप है। भूगर्भविदों के अनुसार-हिमालय एक अत्यन्त युवा पहाड़ है। बैचेन और अति संवेदनशील है यह नाजुक और गुस्सैल स्वभाव का है। वह अपनी स्थिरता ढूंढ रहा है। उसके विविध भ्रंश और दरारें ऋतु क्रियाएँ उसके स्वभाव को बताती है, भूकम्पों ने समय-समय पर इसे झंझोड़ा है। जिससे हिमस्खलन, भूस्खलन, ग्लेशियर तालों का टूटना, नदियों का अवरूद्ध होना तथा बाढ़ों का प्रकोप जैसा प्राकृतिक दबाव है। इस प्रकार के प्राकृतिक दबाव को देखते हैं तो बीसवीं शताब्दी में 1950 का अरूणाचल के 8.6 रियेक्टर के भूकम्प से नदियों में अस्थाई झीलों के टूटने से भयंकर तबाही हुई, कई इलाकों का भूगोल ही बदल गया, नदियों में धारा परिवर्तन हुआ। इसी प्रकार हिमाचल प्रदेश में 1975 के भूकम्प ने भी काफी तबाही मचाई, इधर 1991 का उत्तरकाशी तथा 1999 का चमोली तथा कश्‍मीर के भूकम्प से जानमाल की भारी हानि हुई। लेकिन उस काल में आपदाओं के अन्तराल में काफी लम्बा समय रहता था।

इधर पिछले चार-पाँच दशकों से इन नाजुक क्षेत्रों में कई प्रकार के दबाव बढ़े। पहले से आज हिमालय में मनुष्य की घुसपैठ ज्यादा है, खगोलीकरण ने इस प्रक्रिया को बढ़ा दिया है, जलवायु परिवर्तन एक और आयाम है। इसके प्रभाव को सरकारों और समाजों द्वारा नियंत्रित किया जाना अत्यधिक कठिन है,ऊपर से वनों का विनाश ,नदियों के आसपास महाविकास, बाजार का दबाव, शिथिल कार्यान्वयन, अतिभ्रमण तथा राजनैतिक इच्छाशिक्‍त का अभाव जैसे कारकों ने हिमालयी नदियों में आपदाओं को कई गुना बढ़ा दिया और अन्तराल को बहुत ही कम कर दिया है।

आज पूर्व सूचना तंत्र स्थानीय, हिमालयी, एशियाई तथा वैष्विक स्तर पर होना चाहिए। ताकि कम से कम मानव जीवन को तो आपदाओं से बचाया जा सके, साथ ही बारिश की मारक क्षमता को कम करने के कार्य बड़े पैमाने पर होने चाहिए। हिमनदों, हिम तालाबों, बुग्यालों एवं जंगलों की संवेदनशीलता की व्यापक जानकारी होनी चाहिए। आपदाओं का न्यूनीकरण करने का भरसक प्रयास होना चाहिए। हिमालय के संदर्भ में भारत, चीन, नेपाल और भूटान का पारिस्थितिक संयुक्त मोर्चा बनना चाहिए, बाढ़ों से सुरक्षा के लिए तो यह संयुक्त मोर्चा सर्वाधिक जरूरी है। इससे संयुक्त नीति और संयुक्त सुरक्षा की बात विकसित हो सकेगी।

आपदाओं के प्राकृतिक के साथ मानव निर्मित कारणों की गंभीर पड़ताल होनी चाहिए। वैज्ञानिक बताते हैं कि जहाँ 1894 की अलकनंदा बाढ़ पूरी तरह प्राकृतिक थी, 1970 की अलकनंदा बाढ़ को विध्वंसक बनाने में जंगलों के कटान का योगदान रहा, जिसके बाद हमने वनों को बचाने एवं बढ़ाने के लिए चिपको आन्दोलन आरंभ किया। वहीं 2013 में जल विद्युत परियोजनाओं सड़कों का अवैज्ञानिक निर्माण,विस्फोटकों के अनियंत्रित इस्तेमाल तथा नदी क्षेत्र में निर्माण कार्यों का भी योगदान रहा, साथ ही हिमनदों-हिमतालाबों एवं बुग्यालों में छेड़छाड़। आपदा के प्रभाव तथा दुष्प्रभाव के साथ जिम्मेदारी भी तय होनी चाहिए। ”किया किसने और भुगता किसने“ इसे भी सामने लाना जरूरी है। यदि बाँधों का निर्माण, अपार विस्फोटकों के इस्तेमाल, अवैज्ञानिक तरीके से सड़कों का निर्माण या सड़कों का गैर जरूरी चैड़ीकरण और नदी के प्रभाव क्षेत्र में घुसपैठ तथा अनियंत्रित शहरीकरण जैसे पक्षों की गहरी तथा सतर्क व्याख्या नहीं होगी तो हम कारण भी नहीं जान सकेंगे, निवारण तो दूर की बात है। इसी तरह हिमालय में किसी भी तरह की मानवीय छेड़छाड़ की पहले ही पड़ताल होनी चाहिए। पहले से हुए अध्ययनों एवं नियमों का अनुपालन न करने तथा मानकों की जिम्मेदारी भी सुनिष्चित की जानी चाहिए। समय रहते इन सब बातों को अमल में नहीं लाया गया तो इससे भी भयंकर त्रासदी को नकारा नहीं जा सकता है, फिर जिम्मेदारी को समझने के बजाय पहाड़ और नदियों को कोसेंगे।

खगोलीकरण और जलवायु परिवर्तन का दौर हिमालयी समाजों तथा प्रकृति दोनों के लिए चुनौती और चेतावनी भरा है, ये खतरे हमारे जीवन संसाधनों उत्पादन और जीवन पद्वति के लिए घंटी बजा चुके हैं। जून के प्रथम सप्ताह में देश और दुनिया में पर्यावरण दिवस मनाने की धूम मचेगी। इस दिवस पर हमें स्वयं में यह चेतना विकसित करनी होगी कि हम पृथ्वी के मूल स्वरुप को उसके विभिन्न घटकों तथा उसके पर्यावरण को संरक्षित रखने में सक्रिय रहे। हमें संकल्प लेना होगा कि धरती माता के जल, जंगल, जमीन जैसे घटकों का संरक्षण और संवर्द्धन करेंगे तथा इनका उपभोग अपनी जीवन की रक्षा एवं समृद्धि के लिए ही करेंगे। इस सुन्दर वसुन्धरा को स्वच्छ और सुन्दर बनाये रखने के लिए हमेशा सचेत एवं सक्रिय रहेंगे। (सप्रेस) 

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