तरह-तरह की योजनाओं, भारी-भरकम बजट और ढेर-सारे मानव व प्राकृतिक संसाधनों को लगाने के बावजूद पर्यावरण की सफाई का जो काम बरसों से नहीं हो पाया था, उसे ‘कोविड-19’ की वजह से लगाए गए लॉकडाउन ने सफलतापूर्वक कर दिया है। लेकिन ‘विकास’ की दौड में अव्वल आने को बेताब सरकार इसे कैसे मंजूर कर ले? तो उसने सबसे पहले ‘पर्यावरण प्रभाव आंकलन’ (ईआईए, एनवायरोंमेटल इम्पेक्ट असेसमेंट) के कानून-कायदों को उद्योगों की तरफदारी में ढीला कर दिया और दूसरे अपने इस कदम का असर जानने की खातिर देशभर में 41 कोयला खदानों को मंजूरी दे दी।
‘कोविड-19’ से फैली महामारी की रोकथाम हेतु विश्व के कई देशों के साथ हमारे देश में भी एक निश्चित समयावधि के लिए तालाबंदी (लॉकडाउन) की गयी थी। इस तालाबंदी से कई क्षेत्रों में बड़ी आर्थिक हानियां हुईं, परंतु पर्यावरण काफी साफ-सुथरा हो गया। अमेरिकी संस्थान ‘नासा’ ने उपग्रह से प्राप्त चित्रों के आधार पर बताया है कि संपूर्ण उत्तर-भारत में लगभग दो दशक के बाद वायु प्रदूषण निम्न स्तर पर आया है। देश के 400 शहरों में ‘वायु गुणवत्ता सूचकांक’ (एक्यूआई) भी संतोषप्रद श्रेणी में आ गया है। जालंधर से लगभग 100 किलोमीटर दूर हिमालय की गोलाकार पहाड़ियां दिखायी देने लगीं। ज्यादातर शहरों में शोर कम होने से पाक्षियों का कलरव सुनायी देने लगा। गंगा एवं यमुना के साथ कई अन्य नदियां एवं झीलों, तालाबों का पानी भी 30 से 40 प्रतिशत शुद्ध हो गया।
कुछ शहरों के भूजल-स्तर में भी सुधार आया है। ब्रिटेन के ‘सरे विश्वविद्यालय’ के अध्ययन के अनुसार दिल्ली, मुम्बई सहित पांच महानगरों में प्रदूषण की कमी से लोगों के स्वास्थ्य में सुधार आया एवं उससे 49 करोड़ डॉलर की बचत हुई। इस बचत का मतलब यह हो सकता है कि इतनी राशि इन महानगरों के लोगों के उपचार एवं प्रदूषण की रोकथाम पर व्यय होती। कोरोना की तालाबंदी में साफ हुए पर्यावरण का जो उपहार हमें मिला है, उसे संभालकर लगभग यथा-स्थिति में रखना जरूरी है। अमेरिका के ‘हार्वर्ड विश्वविद्यालय’ ने वहां के देशव्यापी अध्ययन के आधार पर बताया था कि जिन क्षेत्रों में प्रदूषण ज्यादा था, वहां कोरोना का संक्रमण एवं मौतें भी अधिक हुईं।
हमारे देश के डॉक्टरों के संगठन ’’डाक्टर्स फॉर क्लीन एअर’’ ने भी मार्च में चेतावनी देते हुए कहा था कि जहां प्रदूषण अधिक है, वहां कोरोना संक्रमण भी ज्यादा होगा। मध्यप्रदेश के वन विभाग के एक प्रारंभिक अध्ययन ने भी यही दर्शाया है कि हरियाली की कमी वाले ज्यादातर जिले कोरोना के रेड जोन में रहे हैं। इस प्रकार ये अध्ययन एक तरह से चेतावनी देते हैं कि बीमारियों एवं महामारियों से बचाव हेतु साफ पर्यावरण एवं हरियाली की अधिकता जरूरी है। हमारे देश में साफ पर्यावरण को संरक्षित करने के बजाए कोरोना काल में ही दो ऐसे प्रयास किये गये जो पर्यावरण एंव हरियाली के लिए खतरनाक साबित होंगे।
भोपाल गैस त्रासदी के बाद इस प्रकार की दुर्घटनाओं को रोकने हेतु 1986 में केन्द्र सरकार ने ‘पर्यावरण सुरक्षा अधिनियम’ (ईपीए, एनवायरोमेंटल प्रोटेक्शन एक्ट) पारित किया था। इसी के तहत 1994 में ‘पर्यावरण प्रभाव आंकलन’ (ईआईए, एनवायरोंमेटल इम्पेक्ट असंसमेंट) के नियम जारी किये गये थे। इन नियमों के तहत किसी भी परियोजना को प्रारंभ करने के पूर्व उसके पर्यावरणीय प्रभावों का अध्ययन किया जाता है। इस अध्ययन में पर्यावरण के जानकार, परियोजना से जुडे़ लोग एवं स्थानीय जनता की भागीदारी होती है। कई स्तरों से गुजरने के बाद संतुष्ट होने पर ‘केन्द्रीय पर्यावरण विभाग’ ‘अनापत्ति प्रमाण-पत्र’ देता है एवं इसके बाद ही परियोजना पर निर्धारित नियमों के अनुसार कार्य प्रारंभ होता है। इसी ‘ईआईए’ नियम का एक नया मसौदा मार्च में जारी किया गया था एवं इस पर 11 अगस्त तक सुझाव मांगे गये थे। इस प्रारूप में वैसे तो कई बातें की गयी हैं, परंतु निम्नांकित बातें पर्यावरण सुरक्षा एवं जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों के विरूद्ध हैं।
इनमें से पहली है, परियोजना प्रारंभ करने के पूर्व ‘केन्द्रीय पर्यावरण विभाग’ के अनापति प्रमाण-पत्र की जरूरत को समाप्त करना। दूसरी है, ‘जन सुनवायी’ हेतु कम समय दिया जाना एवं सीमावर्ती क्षेत्रों में सुरक्षा को महत्व देकर इसे आयोजित नहीं करना। तीसरी है, किसी परियोजना में 1986 के ‘पर्यावरण सुरक्षा अधिनियम’ की शर्तों का उल्लघन होता है तो इसकी शिकायत का अधिकार किसी सरकारी एजेंसी को देना। चौथी है, नियमों के उल्लंघन पर जुर्माना राशी का कम होना। इनके बारे में अच्छे सुझावों पर ध्यान नहीं देकर, यदि इस प्रारूप को कानून का रूप दिया गया तो पर्यावरण की बर्बादी लगभग तय है।
‘विश्व पर्यावरण दिवस’ (पांच जून) मनाये जाने वाले जून के महीने में केंद्र सरकार ने 41 कोयला खदानों की नीलामी की घोषणा की। इनमें से 29 मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ एवं झारखंड में हैं जहां वनों की अधिकता है एवं कई क्षेत्र सघन वनों से ढ़ंके हैं। कोयला खनन के कार्यों का प्रभाव आसपास के जल-स्त्रोतों, जंगलों, भूमि एवं जैव-विविधता पर पडेगा। इस नीलामी के विरूद्ध झारखंड सरकार ने सुप्रीमकोर्ट में जाने एवं महाराष्ट्र तथा छत्तीसगढ़ की सरकारों ने इसे रोकने को कहा है। ‘कोल इंडिया’ की एक रिपोर्ट के अनुसार देश को लगभग 150 करोड़ टन कोयले की वार्षिक जरूरत होती है एवं सघन वन के बाहरी क्षेत्रों में कोयले का 14,800 करोड़ टन का भंडारण है। कोयले की इतनी अच्छी स्थिति होने एवं सौर ऊर्जा को बढ़ावा देने के प्रयासों के बीच कोयला खनन के पट्टों की नीलामी निश्चित रूप से वन एवं पर्यावरण के लिए घातक साबित होगी। वैसे भी ‘वैश्विक पर्यावरण-संरक्षण-सूचकांक’ में 180 देशों में हमारा देश 177 वें स्थान पर है।
‘पर्यावरण प्रभाव आंकलन’ के ‘प्रारूप-2020’ एवं 41 कोयला खदानों की नीलामी देश को और निचले स्थान पर ले जायेंगे। इन दोनों प्रयासों के पीछे सरकार का यह मत है कि इनसे कोरोना काल में हुई आर्थिक हानि की भरपायी होगी। कोयला खनन कार्य में 30 हजार करोड़ रूपये का निवेश होगा एवं 03 लाख लोगों को रोजगार मिलेगा। ‘पर्यावरण प्रभाव आंकलन प्रारूप-2020’ में दी गयी शिथिलता शायद सरकार के ’’ईज आफ डुइंग बिजनेस’’ के तहत है। यह भी प्रतीत होता है कि देश में बनने वाले छः औद्योगिक कोरिडोर के कार्यों को आसान बनाने हेतु एवं चीन से निकलकर आने वाली कंपनियों को आकर्षित करने हेतु ये प्रयास किये जा रहे है, लेकिन कोरोना की तालाबंदी से प्राप्त साफ पर्यावरण के अवसर को हम आपदाओं की ओर धकेल रहे हैं। (सप्रेस)
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