अपने जीने के लिए जरूरी पर्यावरण के साथ हम एक व्यक्ति, समाज और सत्ता की तरह जैसा क्रूर, आत्महंता व्यवहार कर रहे हैं, वह एक सीमा के बाद हमें खुद ही भोगना पडेगा। विकास के झांसे में की जा रही इन नासमझ इंसानी हरकतों पर अनेक विद्वान वैज्ञानिकों ने अपने-अपने तरीकों से टिप्पणियां की हैं जिनमें से एक जेम्स लवलॉक की भी है।
जेम्स लवलॉक ने पर्यावरण और विकास पर अपनी परिकल्पना 1970 के आसपास प्रस्तुत की थी। कई वैज्ञानिकों ने प्रारंभ में इसका विरोध किया, परंतु बाद में धीरे-धीरे कुछ संशोधनों सहित इसे मान लिया गया। जेम्स लवलॉक मूलरूप से रसायन शास्त्री थे, परंतु उन्होंने अमेरिका की प्रसिद्ध संस्था ’’नासा’’ में मंगल ग्रह पर जीवन की संभावना पर भी कार्य किया था। संभवतः यहीं पर कार्य करते समय उनकी जो सोच बनी वह एक परिकल्पना के रूप में ‘क्वेस्ट आफ गाया’ (quest of gaia) शीर्षक से प्रकाशित हुई। अपनी इस परिकल्पना को उन्होंने यूनान की पूजनीय भू-देवी ‘गाया’ के सम्मान में ‘गाया-परिकल्पना’ कहा।
इस परिकल्पना के अनुसार पृथ्वी एवं जैव-मंडल एक विराट जीव या महाजीव की तरह हैं जिसे ‘गाया’ नाम दिया गया है। मनुष्य, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे एवं समुद्री जीवों के साथ जल, हवा, मिट्टी एवं खनिज आदि इस महाजीव के अंग हैं। यह जीव अपने आपको नियंत्रित कर अपना संतुलन बनाये रखता है। इसे हम साधारण ढंग से इस प्रकार भी समझा सकते हैं कि जिस प्रकार किसी जीव में हृदय, फेफड़े, दिमाग, किडनी एवं लिवर आदि अंग होते हैं, ठीक उसी तरह विभिन्न प्रकार के जीव-जंतु, पेड़-पौधे, वायु, जल एवं मिट्टी आदि इस महाजीव ‘गाया’ के अंग हैं।
ये सभी अंग एक-दूसरे से जुड़कर एवं आपसी क्रियाएं कर एक जटिल यंत्र बनाते हैं। यह जटिल तंत्र ही ‘महाजीव गाया’ माना गया। इस तंत्र के स्व-संचालित तथा स्व-नियंत्रित होने से पृथ्वी पर जीवों के लिए अनुकूल वातावरण बना रहता है एवं जीवन नियमित रूप से आगे बढ़ता रहता है। स्व-संचालित तथा स्व-नियंत्रित से लवलॉक का तात्पर्य था, दिन-रात का होना, मौसम व ऋतुओं में बदलाव, वर्षा एवं बर्फ का गिरना, विभिन्न जीवों की संख्या पर नियंत्रण तथा वायु मंडल में गैसों का अनुपात तथा समुद्री क्षारीयता का लगभग स्थिर बना रहना।
इस परिकल्पना का विरोध ज्यादातर इस बात को आधार बनाकर किया गया कि यह महज एक धार्मिक व्याख्या है, क्योंकि इसकी पुष्टि प्रायोगिक आधार पर नहीं की गयी है। विज्ञान के क्षेत्र में कोई परिकल्पना तब ही सिद्धान्त का रूप लेती है जब वह प्रयोगों के आधार पर सिद्ध की जा सके।
जेम्स लवलॉक ने ‘द रिवेंज ऑफ गाया’ तथा ‘द वेनिशिंग फेस ऑफ गाया : ए फाइनल वार्निंग’ पुस्तकें क्रमश: 2004 एवं 2006 में प्रकाशित (पेंग्विन बुक्स) कीं। इन पुस्तकों में मनुष्य को ‘गाया’ में पैदा हो रहे असंतुलन के लिए जिम्मेदार ठहराया गया है। मनुष्य ने यह मान लिया है या अनजाने में यह भ्रम पाल लिया है कि पृथ्वी पर जो भी जीवित एवं निर्जीव वस्तुएं हैं वे सभी उसी के उपयोग के लिए हैं, जबकि वास्तविकता में इसका कार्य ‘गाया’ का संतुलन बनाये रखना है। इसी मान्यता या भ्रम के तहत मनुष्य जिस तेजी से इन वस्तुओं का उपयोग, उपभोग या खपत कर रहा है उससे ‘गाया’ का संतुलन बिगड़ चुका है एवं जीवन को खतरा पैदा हो गया है। ‘गाया’ के संतुलन के लिए जरूरी पेड़-पौधे, जानवर-पक्षी, जल, हवा एवं मिट्टी आदि या तो कम हो गये हैं या प्रदूषित।
फिजूल खर्ची एवं ज्यादा कचरा पैदा करने वाली जीवनशैली बाजार के दबाव से पैदा होकर फैलती जा रही हैं। इन हालातों में सतत-विकास (सस्टेनेबल डेवलपमेंट) एक कल्पना भर रह गया है। लवलॉक ने चेतावनी देते हुए कहा है कि ‘गाया’ का संतुलन जब बहुत अधिक बिगड़ जाएगा तब वह संतुलन बनाने एवं प्राकृतिक संसाधनों के पुर्नजीवन का प्रयास करेगा। बढ़ती प्राकृतिक आपदाएं एवं कोरोना के लाकडाउन में साफ हुए तालाब, नदियां, झीलें, साफ हुई हवा, दूर से दिखायी दिए पहाड़ एवं पवन चक्कियां तथा पशुपक्षियों का स्वतंत्र विचरण आदि ‘गाया’ के प्रयास माने जा सकते हैं।
जेम्स लवलॉक की ‘गाया’ परिकल्पना को वर्तमान के पर्यावरण एवं परिस्थितिकी विज्ञान की कसौटी पर रखा जाए तो परिकल्पना की ज्यादातर बातें वास्तविक एवं सही लगती हैं। जैव-विविधता के लगातार घटने के साथ-साथ वायु, जल एवं मिट्टी काफी प्रदूषित हो चुके हैं। प्राकृतिक संसाधनों का दोहन इस तेजी से हो रहा है कि वर्ष 2020 में ‘अतिदोहन दिवस’ (ओवरशूट डे) 22 अगस्त को हो गया। इसका मतलब यह है कि जो संसाधन वर्ष भर में उपयोग करना थे, वे आठ माह में ही कर लिए गए। प्राकृतिक संसाधनों के अतिदोहन से पृथ्वी घायल हो गयी है। इसी चिंता को ध्यान में रखकर ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ ने 2021 से 2030 तक का दशक ‘पारिस्थतिकी पुनरूद्वार दशक’ घोषित किया है।
लवलॉक की परिकल्पना के अनुसार हम पृथ्वी को महज ‘गाया’ मानें या पर्यावरण विज्ञान के संदर्भ से एक जटिल तंत्र, परंतु यह वास्तविकता है कि पृथ्वी घायल एवं असंतुलित हो गयी है। इसे बचाने हेतु अब किसी वैश्विक आंदोलन की जरूरत है। (सप्रेस)
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