यह पर्यावरण की बजाए खुद को बचाने का दौर है। इंसानी बिरादरी ने अपने धतकरमों की मार्फत समूचे सचराचर जगत को जिन हालातों में ला पटका है, उससे कोई उम्मीद तो दिखाई नहीं देती, लेकिन फिर भी चंद समझदारों के लिए कुछ जानकारियां संभव है, हालातों को बदलने में मददगार साबित हो सकें।
पर्यावरण कैसी बदहाल स्थिति में है यह किसी से छिपा नहीं है। देश की राजनीति में पर्यावरण जैसे मुद्दे को जगह मिलना आसान नहीं लगता, जबकि आज हम पर्यावरण के ऐसे आपातकाल की स्थिति में पहुंच गए हैं, जो मानव सभ्यता के लिए खतरे की घंटी बनता जा रहा है। हाल ही में इसके संकेत मार्च में प्रदेश में लू चलने, खरगोन विश्व का सबसे गर्म स्थान बनने और वर्तनाम में प्रदेश और देश के कई अन्य हिस्सों में प्रचंड गर्मी, जिसमें राजस्थान के गंगानगर और चुरू में तापमान 50 डिग्री सेल्सियस के पार करने के रूप में मिल चुके हैं। उन्नीसवीं सदी की औद्योगिक क्रांति के बाद पर्यावरणीय हितों को ताक पर रखा गया। नतीजे में हमारी आंखों के सामने तापमान में वृद्धि, वायु की गुणवत्ता में खराबी, कम और असमान बारिश, वनाच्छादन की कमी, सिंचाई के लिए भूमिगत जल का असीमित दोहन आदि प्रमुख चुनौतियाँ बढी हैं।
वन क्षेत्र लगातार घट रहा है। ‘फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया’ की ताजा “स्टेट ऑफ फारेस्ट रिपोर्ट” के अनुसार मध्यप्रदेश में वर्ष 2010 में दर्ज वन क्षेत्र 95,221 वर्ग किलोमीटर था जो 2017 में घटकर 64,469 वर्ग किलोमीटर रह गया है। देश में कुल भौगोलिक क्षेत्र का 21.54 प्रतिशत और मध्यप्रदेश में 27.73 प्रतिशत वन क्षेत्र है, जबकि ‘राष्ट्रीय वन नीति-1988’ के अंतर्गत वन क्षेत्र को कुल भौगोलिक क्षेत्र के 33 प्रतिशत तक बनाए रखना जरूरी है। इस गफलत के परिणामस्वरूप पिछले कुछ वर्षों में देश और मध्यप्रदेश में औसत बारिश और उसकी अवधि लगातार कम होती जा रही है। इसके अलावा मानसून का देरी से आना भी चुनौती बनता जा रहा है जिसका असर देश के कृषि क्षेत्र पर पड़ रहा है। प्रदेश के पिछले दस वर्षों के क्षेत्र-वार आंकडे देखें तो पाते हैं कि पूर्वी तथा पश्चिमी मध्यप्रदेश में औसत बारिश में काफी उतार-चढ़ाव आया है। पश्चिमी मध्यप्रदेश में 2016 में अधिकतम 1042 मिलीमीटर (मिमी) तो 2017 में न्यूनतम 769 मिमी बारिश दर्ज की गई, वहीं दूसरी ओर पूर्वी मध्यप्रदेश में वर्ष 2013 में अधिकतम 1521 मिमी तो वर्ष 2017 में न्यूनतम 840.1 मिमी बारिश दर्ज की गई। कम और असमान वर्षा का प्रभाव देश के ‘सकल घरेलू उत्पाद’ (जीडीपी) पर भी हो रहा है। जीडीपी में कृषि और इससे संबंधित क्षेत्रों की हिस्सेदारी लगातार गिरती जा रही है। वर्ष 2004 -05 में देश की जीडीपी में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी 19.5 प्रतिशत थी जो वर्ष 2017-18 में घटकर 17.1 प्रतिशत रह गई है। इसका एक प्रमुख कारण कम वर्षा और मानसून का देरी से आना भी है जिससे कृषि क्षेत्र प्रभावित हो रहा है।
वायु प्रदूषण आज हमारे जीवन को त्रासद बनाने वाली सबसे गंभीर पर्यावरणीय समस्याओं में से एक है। वायु प्रदूषण पर्यावरण में हानिकारक गैसों, धूल, धुंएं, रसायनों, गंध और अन्य सूक्ष्म कणों की उपस्थिति के कारण होता है। आमतौर पर वायु प्रदूषण कार्बन मोनोऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड, क्लोरोफ्लोरोकार्बन (सीएफसी) और नाइट्रोजन ऑक्साइड जैसे प्रदूषकों के कारण होता है जो उद्योगों और मोटर-वाहनों से उत्सर्जित होते हैं। धूल के कण सांस के जरिए फेफड़ों तक पहुंचते हैं जिससे कई बीमारियां हो सकती हैं। ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार प्रदूषण के कारण भारत में हर साल 14 लाख लोगों की मौतें हो जाती हैं। चुनौती बाहरी प्रदूषण के अलावा घरेलू प्रदूषण की भी है। ‘संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम’ (यूएनईपी) के अंतर्गत वर्ष 2018 में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार भारत में मौजूद कुल वायु प्रदूषण में घरेलू (इनडोर) प्रदूषण की हिस्सेदारी लगभग 22 से 52 प्रतिशत की है। हवा में घरेलू प्रदूषण का प्रमुख कारण ठोस ईंधन और केरोसिन का उपयोग है जिसका विपरीत प्रभाव महिलाओं और बच्चों पर पडता है। डब्ल्यूएचओ की वर्ष 2018 में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार भारत में घरेलू प्रदूषण के कारण पिछले सालभर में, पांच वर्ष तक 66,890 बच्चों की मृत्यु हुई है जो दुनिया में सबसे अधिक है।
मध्यप्रदेश बिजली उत्पादन के मामले में आत्मनिर्भर रहा है, लेकिन कुल बिजली उत्पादन का 18.97 प्रतिशत ही गैर-परम्परागत स्रोतों से पैदा किया जाता है। बाकी 81.03 प्रतिशत बिजली का उत्पादन परम्परागत स्रोतों, जिनमें हाइड्रो और कार्बन आधारित स्रोत शामिल हैं, से होता है। इसमें कोई शक नहीं कि बिजली उत्पादन की परम्परागत स्रोतों पर निर्भरता से पर्यावरणीय हितों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। कम बारिश के बाद भी प्रदेश की ‘कृषि विकास दर’ में लगातार वृद्धि दर्ज की गई है। प्रदेश ने कृषि क्षेत्र में कई राष्ट्रीय पुरुकार भी जीते हैं, पर यह विकास दर किस कीमत पर हासिल की गई, इसे समझना भी जरूरी है। राजस्व विभाग के अनुसार वर्ष 2017-18 में प्रदेश में 155 लाख हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि है। प्रदेश में 70 प्रतिशत कृषि क्षेत्रफल सिंचित है, लेकिन इसके लिए भूमिगत जल का अत्यधिक दोहन किया जा रहा है। प्रदेश में कुल सिंचित क्षेत्र में से 68 प्रतिशत से अधिक नलकूपों और कुँओं से सिंचित हो रहा है।
सवाल है कि हमारा समाज जो पर्यावरण के प्रति इतना सजग और गंभीर था, जो नदी, जंगल, वन्यजीव, पशु-पक्षी और खेत-खलिहान से अपना जीवन-यापन ही नहीं करता था, बल्कि उन्हें अपने जीवन का अहम हिस्सा भी मानता था, आज प्रकृति से इतना दूर और विमुख क्यों हो गया है ? आज हम ऐसी असमान्य परिस्थिति में पहुंच गए हैं जहां से शायद ही सामान्य स्थिति में वापस लौट पायें। इन चुनौतियों से निपटने के लिए जन-जागरण की दरकार है, जिसमें देश के राजनीतिक दल, नौकरशाही, अदालतें और सामाजिक संगठन सभी मिलकर सहयोग करें। (सप्रेस)