वन और वन्य-प्राणियों के संरक्षण-संवर्धन में लगी कथित ‘वैज्ञानिक वानिकी’ के हल्ले में हम अपनी उन परम्पराओं को भूलते जा रहे हैं जिनकी बदौलत हमारे पास आज भी वन और वन्यप्राणी सम्पदा बची हुई है। भारी-भरकम किताबी ज्ञान की टक्कर में निरे निरक्षर, लेकिन ज्ञानी ग्रामीणों ने ‘पवित्र-वन,’ ‘देव-वन’ जैसी अपनी परम्पराओं की मार्फत यह कमाल किया है।
दुनिया भर में हमारे पूर्वजों ने, वे चाहे किसी भी सम्प्रदाय या धर्म के हों, वन्य-जीवन को बचाने हेतु एक दीर्घकालीन व्यवस्था प्रारंभ कर स्थापित की थी। यह व्यवस्था देवी-देवताओं के पूजन, उनकी नाराजगी एवं प्रेतात्माओं के भय से जुड़ी थी। वन्य-जीवन के संरक्षण का महाभारत में उल्लेख है एवं कालिदास ने भी अपने साहित्य में इसका वर्णन किया है। इस व्यवस्था के तहत जंगल का कोई चुना हुआ हिस्सा मानव हस्तक्षेप से दूर संरक्षित किया जाता था। इन वन-क्षेत्रों को अंग्रेजी में ‘सेक्रेड ग्रोव्स’ कहा गया है, परंतु हिन्दी में इनके प्रचलित नाम ‘पवित्र-वन,’ ‘देव-वन’ एवं ‘तपोवन’ बताये गये हैं। इनमें पारम्परिक ग्राम-देवता या कुल-देवता की प्रतिमा स्थापित की जाती थी और पहचान के चिन्ह लगाकर मंदिर निर्माण भी किया जाता था। स्थानीय लोगों का विश्वास था कि ‘पवित्र-वन’ की सारी वनस्पतियां तथा जीव-जंतु किसी वन-देवता की पनाह में होते हैं और इस कारण वहां न तो पेड़ काटे जा सकते और न ही शिकार किया जा सकता। सूखी पत्तियों, आपरूप गिरे फल तथा चारा आदि एकत्र करने की कहीं पाबंदी थी, तो कहीं छूट। प्रतिबंध एवं पाबंदियां तोड़ने पर वहां के देवता के नाराज हो जाने से इसका परिणाम बाढ़, सूखा, बीमारियां एवं फसल खराब होने के रूप में प्रकट होता था। पवित्र वनों में देवी-देवताओं को उपस्थिति तथा उनके गुस्से से पैदा डर ने इन्हें लम्बे समय तक अक्षुण्ण बनाये रखा। अंटार्कटिका को छोड़कर, ‘पवित्र-वन’ अन्य सभी महाद्वीपों के देशों में पाये गये हैं। इन वनों में वनस्पतियों तथा जीव-जंतुओं की स्थानीय तथा कुछ दुर्लभ प्रजातियां संरक्षित रहकर फलती-फूलती रही हैं।
हमारे देश में भी ‘पवित्र-वन’ बहुतायत से देखे जा सकते हैं। हमारे यहां लगभग 400 संस्कृतियां, 550 आदिवासी समाज एवं 226 मानव जाति समूहों के साथ-साथ असंख्य भाषाएं भी बोली जाती हैं। इन सभी लोगों से जुड़े विभिन्न समाजों ने अपनी-अपनी परम्पराओं के अनुसार ‘पवित्र-वन’ स्थापित कर वन्य-जीवन को संरक्षण प्रदान किया है। फिलहाल देश के 20 प्रदेशों में 14,000 ‘पवित्र-वन’ होने की जानकारी है, परंतु यह संख्या एक लाख तक बढ़ सकती है। देश के कई लोग इनकी खोज एवं जानकारियां एकत्र करने में जुटे हैं। ‘पवित्र-वनों’ को देश के राज्यों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है। अरूणाचल, उत्तराखंड तथा मध्यप्रदेश के कुछ इलाकों में इन्हें क्रमशः ‘देव-स्थली,’ ‘देव-भूमि’ तथा ‘देव-कोट’ कहा जाता है। झारखंड तथा छत्तीसगढ़ में कहीं-कहीं ये ‘शरण’ नाम से जाने जाते हैं, तो राजस्थान में ‘ओरांस।‘ जिन राज्यों में संस्कृतियों की बहुलता तथा आदिवासियों व जन-जातियों की अधिकता है वहां इनकी संख्या भी ज्यादा है। महाराष्ट्र में 250 से अधिक ‘पवित्र-वन’ हैं जो 3570 हेक्टर में फैले हैं। अरूणाचल के तवांग जिले में 11 ‘पवित्र-वन’ हैं। छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल सरगुजा जिले के प्रत्येक गांव में एक-एक ‘पवित्र-वन’ है। मेघालय में भी लगभग 1000 वर्ग कि.मी. का क्षेत्र ‘पवित्र-वनों’ का है। आंध्रप्रदेश के 23 जिलों में 800 ‘पवित्र-वन’ देखे गये हैं। केरल के ‘पवित्र-वन’ वहां की लोक-गीतों की संस्कृति व कलाओं से ज्यादा जुड़े पाये गये हैं। ‘पवित्र-वनों’ के नामकरण के कई आधार हैं एवं इनके क्षेत्रफल भी एक समान नहीं हैं। उत्तराखंड में चमौली के पास ‘हरियाली,’ हिमाचल प्रदेश में शिमला के पास ‘देवदार’ एवं कर्नाटक में ‘कोडागू’ नाम के ‘पवित्र-वन’ काफी बड़े हैं। उत्तराखंड का ‘कारीकरन,’ कुर्ग (कर्नाटक) का ‘तालका देवी’ एवं केरल का ‘भगवती’ तथा ‘सबरीवाल मंदिर’ ‘पवित्र-वनों’ में ही स्थापित हैं। राजस्थान के अलवर का ‘रैतगिरी’ व पाहल गांव के ‘शीतलदास’ व ‘गोपालदास देववाणी’ नामक ‘पवित्र-वनों’ में 75 प्रजातियों के पेड़-पौधे हैं। महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले के तिवरी गांव में स्थित ‘पवित्र-वन’ में 25 वृक्षों की प्रजातियां संरक्षित हैं जो जिले में अन्य कहीं भी नहीं पायी जातीं। ‘पवित्र-वनों’ में स्थानीय पेड़ों के साथ पीपल एवं बरगद का संरक्षण ज्यादा पाया गया है। मालपुर देवता व विंध्याचल में क्रमशः शीशम, खजूर व पलाश के पेड़ों की अधिकता है। देश के प्रसिद्ध वनस्पतिशास्त्री प्रोफेसर जेडी वार्टक के अनुसार ‘पवित्र-वन’ पेड़ों का प्राकृतिक संग्रहालय, विरल एवं क्षेत्रीय प्रजातियों के साथ संकटग्रस्त प्रजातियों का खजाना एवं औषधीय पौधों का भंडार होते हैं। वनस्पतिशास्त्र के लोगों तथा पर्यावरणविदों के लिए ये विराट प्रयोगशाला होते हैं।
पूर्वजों की धार्मिक आस्थाओं तथा स्थानीय परम्परागत मान्यताओं के आधार पर स्थापित ये ‘पवित्र-वन’ पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी के धरातल पर भी खरे पाये गये हैं। इस लिहाज से प्रत्येक ‘पवित्र-वन’ एक पारितंत्र (इकोसिस्टम) है जहां वन्य-जीव एक-दूसरे का सहयोग कर, एक-दूसरे को प्रभावित कर अपने पर्यावरण के साथ संतुलन बनाये रखते हैं। ‘पवित्र-वन’ जैव-विविधता संरक्षण के भी प्रमुख-स्थल (हाट-स्पाट) हैं। प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक डाॅ.एमएस स्वामीनाथन का कहना है कि ‘पवित्र-वन’ स्थानीय स्तर पर जैव-विविधता बचाने की भारतीय परम्पराओं का विशिष्ट उदाहरण हैं। ‘पवित्र-वन’ कई जीवों को आश्रय व संरक्षण प्रदान करने के साथ-साथ रेगिस्तान के फैलाव की रोकथाम, तापमान नियंत्रण एवं जल-संरक्षण में अहम भूमिका निभाते हैं और क्षेत्र-विशेष के जीवों का इतिहास तलाशने में भी सहायक होते हैं।
यह दुखद है कि दुनियाभर में ‘पवित्र-वनों’ की संख्या तेजी से घटती जा रही है। निर्माण कार्य (सड़क, रेल, नहर, बांध आदि), जंगलों का अतिदोहन, शिकार, अतिक्रमण, आग, खरपतवारों (गाजर घास आदि) व विदेशी पेड़ों (सूबबूल आदि) ‘पवित्र-वनों’ पर खतरा बन रहे हैं। नई पीढ़ियों में धार्मिक आस्थाओं का कम होना एवं पारम्परिक मान्यताओं को नकारना आदि भी ‘पवित्र-वनों’ का महत्व घटा रहे हैं। इस दुखद स्थिति के साथ एक सुखद बात यह भी है कि वैश्विक संस्था ‘इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर’ (आययूसीएन) ने ‘पवित्र-वनों’ की हमारी प्रकृति संरक्षण की प्राचीन व्यवस्था को स्वीकार कर सराहना की है। इस संस्था का कहना है कि ये ‘पवित्र-वन’ जैव-विविधता संरक्षण के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन एवं ग्लोबल वार्मिंग से लड़ने के छोटे-छोटे परंतु बिखरे हुए हथियार हैं। ‘द यूनाइटेड नेशन्स एजुकेशनल, साइंटिफिक एण्ड कल्चरल ऑर्गेनाइजेशन’ (यूनेस्को) भी ‘पवित्र-वनों’ के महत्व को समझकर उन्हें ‘विश्व धरोहर’ की सूची में शामिल करने हेतु प्रयासरत है। नेपाल का ‘लुम्बिनी’ ‘विश्व धरोहर’ सूची में शामिल भी किया गया है एवं प्राथमिक तौर पर दुनियाभर के करीब 15,000 ‘पवित्र-वन’ इस सूची में शामिल करने हेतु पहचाने गये हैं। हमारे देश में भी वन नीति व कानून में इस प्रकार बदलाव किया जाना चाहिये ताकि ‘पवित्र-वन’ सुरक्षित रहे एवं स्थानीय समाज का इनसे जुड़ाव बढ़े। (सप्रेस)