डॉ. ओ.पी.जोशी

प्रकृति को ‘प्रसाद’ मानने और उसी लिहाज से उसके ‘फलों’ का उपभोग करने की नैतिक, आध्यात्मिक निष्ठा के अलावा बीसवीं सदी में रचा गया हमारा संविधान भी पर्यावरण को लेकर खासा सचेत है। उसके कई हिस्से जल, जंगल, जमीन, वायु और जीव-जन्तुओं आदि के संरक्षण, संवर्धन का नियमन करते हैं, लेकिन मौसम परिवर्तन से लेकर बढ़ती भीषण गर्मी तक सभी अनुभव चीख-चीख कर खुलासा कर रहे हैं कि नागरिक की हैसियत से हम न तो आध्यात्मिक, नैतिक साबित हुए हैं और न ही कानून मानने वाले आम जिम्मेदार इंसान।

देश के शासन-प्रशासन का संचालन संविधान में बताए गए नियम-कानूनों के अनुसार चलता है। हमारा संविधान महज एक किताब न होकर एक जीवंत दस्तावेज है जो समय के साथ-साथ संशोधित होकर विकसित होता रहता है। पर्यावरण संरक्षण को लेकर संविधान में किए गए प्रावधान इसकी विकासशील प्रकृति को दर्शाते हैं। नागरिकों के जीने के बेहतर मानक और पदूषण रहित स्वच्छ वातावरण संविधान में निहित हैं। ‘पर्यावरण संरक्षण अधिनियम-1986’ के मुताबिक पर्यावरण में हवा, पानी एवं जमीन के साथ पेड़-पौधे व जीव-जंतु भी समाहित हैं। संविधान के अनुच्छेद-21 के अनुसार व्यक्ति को जीवन जीने एवं व्यक्तिगत आजादी का अधिकार है। किसी कानूनी कार्यवाही को छोड़कर इसी अनुच्छेद की समय-समय पर अच्छी तरह से व्याख्या की गयी है एवं बताया गया है कि यह जीवन जीने का मौलिक अधिकार भी प्रदान करता है।

स्वच्छ वातावरण में जीवन जीने के अधिकार को पहली बार उस समय मान्यता मिली जब 1978 में देहरादून में चूने की खदानों के खनन से पैदा प्रदूषण के विरोध में सुप्रीम कोर्ट में प्रकरण दर्ज हुआ। वर्तमान समय में देश में चारों ओर फैल रहे वायु, जल, ध्वनि एवं मिट्टी के प्रदूषण ने स्वच्छ वातावरण में जीवन जीने का मौलिक अधिकार ही छीन लिया है। साफ पर्यावरण में जीने के लिए शुद्ध हवा, पानी, शांति एवं विष-रहित खाद्य व पेय पदार्थ जरूरी हैं। एक औसत व्यक्ति को प्रतिदिन लगभग 14 किलो हवा, 5-6 लीटर पेयजल एवं 1.5 से 2.0 किलोग्राम भोजन लगता है। शुद्ध रूप में इनके मिलने से उसका स्वास्थ्य ठीक रहता है एवं वह स्वयं, उसका परिवार देश के विकास में योगदान देता है। वर्तमान समय में व्यक्ति को ये चीजें निर्धारित मात्रा में तो लगभग मिल रही हैं, परंतु वे प्रदूषित हैं।

कई कारणों से वायु प्रदूषण अब महानगरों, नगरों से होकर छोटे शहरों एवं गांवों में भी फैल गया है। यह दुखद संयोग है कि देश की राजधानी दिल्ली के निवासी शुद्ध वायु पाने के मौलिक अधिकार से सबसे ज्यादा वंचित है। इसका कारण यह है कि दुनियां के प्रदूषित शहरों में दिल्ली हमेशा उच्च स्थानों पर रही है। वर्ष 2015 के गणतंत्र दिवस समारोह में भाग लेने अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबाम जब दिल्ली आए तो वे वहां के खुले वातावरण में बाहर ही नहीं निकले थे। उनकी सुरक्षा में लगी अमरीकी ऐजेंसी ने उनके लिए सैकड़ों एअर प्युरीफायर लगवाये थे ताकि वे दिल्ली के प्रदूषण से प्रभावित न हों। दिल्ली का हरेक आम नागरिक तो बराक ओबामा नहीं है, उसे तो उसी प्रदूषित वातावरण में सांस लेकर जीवन-यापन करना है।

प्रदूषित वायु के कारण दिल्ली के ज्यादातर लोगों के फेफड़े काले या भूरे हो गये हैं। खतरनाक प्रदूषक पी.एम. 2.5 ने तो रक्त में पहुंच कर उसे भी प्रदूषित कर दिया है। वायु प्रदूषण से श्वसन व अन्य रोग तो बढ़े ही हैं, परंतु अब यह लोगों की जिंदगी की अवधि घटाकर मौत का कारण भी बनता जा रहा है। शिकागो, हार्वर्ड एवं येल विश्वविद्यालयों के अध्ययन के अनुसार प्रदूषित वायु से भारतीयों की मृत्यु चार वर्ष पूर्व हो रही है। यदि वायु प्रदूषण के संदर्भ में ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ (डब्ल्यूएचओ) के मानकों को अपनाया जावे तो औसत आयु 69 से 73 वर्ष तक बढ़ सकती है। वर्ष 2015 तथा 2017 में क्रमशः 03 एवं 12 लाख लोगों की मौत का कारण वायु प्रदूषण बताया गया है। ‘केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण मंडल’ के एक अध्ययन के अनुसार देश के 10 लाख से अधिक आबादी वाले शहरों में वायु प्रदूषण खतरनाक स्तर तक पहुंच गया है।

जीने के मौलिक अधिकार को लागू करने की दूसरी जरूरी वस्तु, यानि पानी भी अब शुद्ध नहीं रहा है। सतही जल के ज्यादातर स्त्रोतों के साथ भूजल भी प्रदूषण की गिरफ्त में है। ‘नीति आयोग’ की पिछले वर्ष की एक रिपोर्ट के अनुसार देश का 70 प्रतिशत से ज्यादा पानी पीने योग्य नहीं है। सम्भवतः इसी का परिणाम है कि ‘जल गुणवत्ता सूचकांक’ (वाटर क्वालिटी इंडेक्स) की 122 देशों की सूची में हमारा स्थान 120 वां है। पेयजल के प्रदूषण एवं कमी ने बोतल बंद पानी के एक नए व्यापार को जन्म देकर व्यापक रूप से फैला दिया है। देश का हर नागरिक इतना धनवान नहीं है कि वह रोजाना अपने परिवार के लिए बोतलबंद पेयजल खरीद सके। वर्ष 2011-12 की अपनी रिपोर्ट में ’केग’ ने बताया था कि देश में घेरलू उपयोग का पानी प्रदूषित तथा रोगजन्य है एवं देश की 500 में से 300 नदियों का पानी आचमन योग्य भी नहीं रहा है।

संविधान का अनुच्छेद 19(1) 2 शांतिपूर्ण जीवन जीने का अधिकार देता है, परंतु लगातार बढ़ रहे शोर-शराबे (ध्वनि प्रदूषण) से यह अधिकार भी संकटग्रस्त है। वायु प्रदूषण की तरह ध्वनि प्रदूषण भी छोटे-छोटे शहरों तक फैल गया है। देश के कई शहरों में दवाखाने, न्यायालय, स्कूल, कालेज एवं प्राणी संग्रहालयों जैसे स्थानीय प्रशासन द्वारा घोषित शांत-क्षेत्रों (साइलेंट जोन) में भी शोर की तीव्रता निर्धारित स्तर से 2-3 गुना ज्यादा आंकी गयी है।

‘खाद्य एवं कृषि संगठन’ की मई 2018 में रोम से जारी रिपोर्ट के अनुसार कृषि में अंधाधुंध रसायनों के उपयोग से कीटनाशक न केवल विभिन्न कृषि उत्पादों, अपितु मां के दूध तक में पहुंच गये हैं। भारत में कई स्थानों पर अब मां का दूध भी शुद्ध नहीं रहा है। इस स्थिति ने शाकाहारी खाद्य पदार्थों के मिलने के अधिकार को समाप्त कर दिया है। केन्द्र सरकार ने 1986 में अलग से पर्यावरण विभाग के गठन के भी पहले प्रदूषण नियंत्रण तथा कचरा प्रबंधन के ढेर सारे नियम-कानून बनाकर लागू किये, परंतु न तो प्रदूषण रूक पाया और न ही कचरे के ढेर कम हुए। इससे यह मतलब निकाला जा सकता है कि या तो नियम कानून कमजोर हैं या उन्हें सख्ती से लागू नहीं किया गया।

संविधान में एक ओर जहां नागरिकों के अधिकार बताये गये हैं वहीं दूसरी ओर कर्तव्यों की बात भी की गई है। अनुच्छेद 51 ’’अ’’(ग) के अनुसार प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य है कि वे प्राकृतिक पर्यावरण की, जिसके तहत वन, झील, नदियां तथा वन्य-जीव शामिल हैं, रक्षा करें, उनका संवर्धन करें व प्राणी मात्र के लिए दयाभाव रखें। अनुभव बताते हैं कि कुछ अपवादों को छोड़कर नागरिक भी अपने कर्तव्यों से ज्यादा अधिकारों पर जोर देने में लगे हैं। शासन-प्रशासन एवं समाज के मध्य आपसी सहयोग का रिश्ता काफी कमजोर हो गया है। ऐसे में सरकार शुद्ध हवा, पानी एवं शांत वातावरण के नागरिकों के मौलिक अधिकार उपलब्ध कराने के प्रयास करे एवं नागरिक भी गांधी समान अपने कर्तव्यों का पालन ईमानदारी से करें तो ही हम अपना भविष्य बचा सकते हैं। (सप्रेस)   

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