डॉ. राजेंद्र सिंह

भारत की विविध भूमि, जलवायु और सांस्कृतिक पहचान को एक साथ दर्शाने वाला “भारत का भू-सांस्कृतिक मानचित्र” तरुण भारत संघ की एक अभिनव पहल है। यह मानचित्र देश की आत्मा से जुड़ी प्रकृति और संस्कृति के रिश्ते को उजागर करता है। राजनीतिक नक्शों से परे जाकर यह हमें विकास की समरस, टिकाऊ और अहिंसक दृष्टि प्रदान करता है, जिसमें विविधता को सम्मान देकर एकता की वास्तविक भावना को समझा जा सकता है।

भारत एक ऐसा देश है जहाँ प्रकृति और संस्कृति के रिश्ते सदियों से लोगों के जीवन, सोच, व्यवहार और सदाचार में गहरे रचे-बसे हैं। हमारी सभ्यता की जड़ें नदियों, पर्वतों, वनों और खेतों से जुड़ी रही हैं। लेकिन अफसोस की बात है कि आज़ादी के बाद हमारे देश के विकास मॉडल में इन गहरे और परंपरागत रिश्तों को उचित महत्व नहीं दिया गया। सरकारों और संस्थानों ने कभी भारत की विविधता को भू-सांस्कृतिक दृष्टि से देखने की ज़रूरत नहीं समझी। इसका परिणाम यह हुआ कि हमारा विकास दृष्टिकोण खंडित और लालची बन गया, जिसने हमें टुकड़ों में सोचना सिखाया, समग्रता में नहीं।

तरुण भारत संघ जैसे संगठन ने इस कमी को महसूस किया और वर्षों के अध्ययन, अनुभव और समर्पण से एक ऐसा मानचित्र तैयार किया, जो न केवल भारत की भौगोलिक बनावट को दिखाता है, बल्कि उसकी सांस्कृतिक आत्मा, लोगों के प्रकृति से संबंध, व्यवहार, और जीवन दृष्टि को भी समेटे हुए है। इस अनूठे दस्तावेज़ का नाम है – “भारत का भू-सांस्कृतिक मानचित्र” Geo-cultural map.

क्यों ज़रूरी है यह मानचित्र?

अब तक हमारे पास केवल राजनीतिक या प्रशासनिक नक्शे (मानचित्र)  रहे हैं – जिले, राज्य, संसदीय क्षेत्र आदि – जिनमें भारत की सांस्कृतिक और प्राकृतिक विविधता को नहीं दर्शाया जाता। जबकि भारत के पास ऐसी समृद्ध विविधता है, जिसे समझे बिना हम टिकाऊ और समावेशी विकास की कोई योजना नहीं बना सकते। भू-सांस्कृतिक मानचित्र हमें यह समझने में मदद करता है कि कोई क्षेत्र कैसे जलवायु, जल स्रोत, धरती की बनावट, खेती, और वहां के लोगों के व्यवहार के साथ एक विशेष सांस्कृतिक पहचान बनाता है।

भारत की भौगोलिक विविधता और 86 सांस्कृतिक क्षेत्र

यदि हम भारत की भौतिक बनावट की बात करें, तो यह देश लगभग 50 प्रमुख भौगोलिक इकाइयों में विभाजित है – जैसे कश्मीर हिमालय, अरावली पर्वत, मालवा और बुंदेलखंड के पठार, गंगा और यमुना के मैदान, गुजरात का कच्छ क्षेत्र, छोटा नागपुर, असम घाटी, बंगाल का डेल्टा आदि। लेकिन जब इन क्षेत्रों की सांस्कृतिक गहराइयों को हम जोड़ते हैं – वहां की भाषा, बोली, लोक-परंपराएं, कृषि विधियां, जल स्रोतों के साथ लोगों का संबंध – तब ये 50 भौगोलिक क्षेत्र  86 भू-सांस्कृतिक क्षेत्रों में परिवर्तित हो जाते हैं।

ये क्षेत्र भारत के सूक्ष्म एग्रो-इकोलॉजिकल और क्लाइमेटिक ज़ोन को भी दर्शाते हैं। यानी जहां एक जिले में एक से अधिक सांस्कृतिक क्षेत्र मौजूद हो सकते हैं, वहां प्रशासनिक नक्शे हमें अधूरी जानकारी देते हैं, जबकि भू-सांस्कृतिक मानचित्र इन विविधताओं को विस्तार से सामने लाता है।

संस्कृति और प्रकृति के रिश्ते की पुनर्परिभाषा

यह मानचित्र केवल भौगोलिक नहीं, बल्कि भावनात्मक और सांस्कृतिक जुड़ाव की भाषा भी बोलता है। जब हम ब्रज क्षेत्र को इस मानचित्र में देखते हैं, तो केवल यमुना नदी या कृषि नहीं दिखती – श्रीकृष्ण की लीलाएं, गोपालक समाज का जीवन, ब्रज की भाव-भूमि, सब कुछ इस चित्र में जीवंत हो उठता है। जब हम अयोध्या को देखते हैं, तो वह केवल एक ऐतिहासिक नगर नहीं, बल्कि राम के जीवन मूल्यों और मर्यादा की धरती बनकर हमारे मन में उतरती है।

तेलंगाना को देखिए – उसकी माटी, जलवायु, तालाबों की परंपरा, खेती-बाड़ी, और लोगों की जीवन शैली – सब कुछ इस मानचित्र में उजागर होता है। यह मानचित्र मानवीय व्यवहार और संस्कार की अभिव्यक्ति है, जो हमें बताता है कि कैसे क्षेत्र विशेष की भौगोलिक बनावट, जलवायु और सामाजिक संरचना मिलकर एक अनूठा सांस्कृतिक क्षेत्र बनाते हैं।

दिल्ली राजधानी नहीं, भूसांस्कृतिक धरोहर

हमारे देश की राजधानी दिल्ली एक अच्छा उदाहरण है, जो प्रशासनिक रूप से 9 जिलों में बंटी है। लेकिन भू-सांस्कृतिक दृष्टि से देखें तो यह दो क्षेत्रों – इंद्रप्रस्थ और खांडवप्रस्थ – में विभाजित है। इंद्रप्रस्थ यमुना के दोनों ओर फैला क्षेत्र है, जहाँ श्रीकृष्ण की लीलाएं, यमुना के किनारे का जीवन और लोगों का भावात्मक जुड़ाव विद्यमान रहा है। वहीं खांडवप्रस्थ, जो आज संसद भवन और राष्ट्रपति भवन को समेटे हुए है, अरावली पर्वत की गोद में फैला क्षेत्र है।

आज दिल्ली को लोग केवल एक आधुनिक महानगर और सत्ता का केंद्र मानते हैं। लेकिन जब हम इस भू-सांस्कृतिक दृष्टिकोण से दिल्ली को देखते हैं, तो हमें इसका गहरा ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और पर्यावरणीय महत्व समझ में आता है। यह समझ ही वह आधार है जो नागरिकों को केवल निवासी नहीं, बल्कि धरती के संरक्षक और सहभागी बनाता है।

सात मापदंडों पर आधारित मानचित्र

इस मानचित्र की विशेषता यह है कि यह सात प्रमुख मापदंडों पर आधारित है – धरती की बनावट, जलवायु, मौसम, जल संसाधन, कृषि, उद्योग और लोगों का व्यवहार एवं संस्कार। इन सभी तत्वों को जोड़कर भू-सांस्कृतिक क्षेत्र का निर्धारण किया गया है। यह न केवल 96 विभिन्न रंगों के संयोजन में देश की विविधता को दर्शाता है, बल्कि क्षेत्रवार सूची के साथ एक समग्र दृष्टि भी प्रदान करता है। जब आप इस मानचित्र को देखते हैं, तो यह एक साधारण नक्शा नहीं रह जाता, बल्कि भारत की आत्मा को चित्रों और रंगों के माध्यम से अनुभव कराने वाला दस्तावेज़ बन जाता है।

भविष्य की दिशा : पुनर्जन्म का रास्ता

तरुण भारत संघ इस मानचित्र को केवल एक अध्ययन का साधन नहीं, बल्कि पुनर्जन्म” (Rejuvenation) की दिशा में एक कदम मानता है – ऐसा विकास जो अहिंसक हो, लोगों को जोड़ने वाला हो, और प्रकृति तथा संस्कृति दोनों को साथ लेकर चले। इस विकास में विस्थापन, बिगाड़ और विनाश के लिए कोई स्थान नहीं है। यह वही रास्ता है जो भारत की एकता को विविधता के सम्मान के साथ मजबूत करता है।

आज जब हम वैश्वीकरण, शहरीकरण और जलवायु संकट की चुनौतियों का सामना कर रहे हैं, तब यह और ज़रूरी हो गया है कि हम अपनी जड़ों की तरफ लौटें। भारत का भू-सांस्कृतिक मानचित्र हमें वह दृष्टि देता है, जिसके ज़रिए हम एक ऐसा विकास मॉडल बना सकते हैं जो समावेशी, संवेदनशील और टिकाऊ हो। यह मानचित्र हमारे सामने भारत को एक जीवंत, बहुरंगी, और आत्मीय इकाई के रूप में प्रस्तुत करता है – एक ऐसा भारत जिसे समझने और संवारने के लिए हमें पहले उसकी विविधताओं का सम्मान करना होगा।

तरुण भारत संघ का यह प्रयास सभी के लिए एक अमूल्य भेंट है। यह केवल मानचित्र नहीं, बल्कि भारत को समझने, महसूस करने और अपने होने से जोड़ने की एक गहरी प्रक्रिया है। आइए, इस मानचित्र के माध्यम से हम अपने देश, अपनी संस्कृति और अपनी धरती से एक नया रिश्ता बनाएं।