कहा जा रहा है कि गंगा के पानी में प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। सवाल यह है कि अरबों रुपये खर्च होने के बाद भी गंगा का पानी पीने लायक क्यों नहीं है ? चाहे उत्तर प्रदेश सरकार प्रधानमंत्री को खुश करने के लिए कहे कि पानी आचमन योग्य है। गंगा के यह हाल है तो लावारिस शिप्रा ,नर्मदा जैसी नदियों में डुबकी लगाने के पहले सोचा जाना चाहिए। गंगा में जानलेवा प्रदूषण की खबर फिर उजागर हुई है।
कोविड 19 में लगाये गए सरकारी लॉकडाउन से जल और वायु प्रदूषण के बढ़ते नर्क से काफी राहत मिली थी। कोविड 19 से इस दौरान भयभीत नजरबन्द दुनिया की नजर नदियों को नहीं लगी। लॉकडाउन का फायदा उठाते हुए गंगा, यमुना, क्षिप्रा, नर्मदा नदी सहित अधिकतर नदियाँ कल- कल करती अपनी जलीय जीव सम्पदा के इकोसिस्टम को समृद्ध करती बहती रही । इन नदियों का पानी नीरकंचन हो गया। खासकर गंगा नदी का पानी कहीं- कहीं उच्च गुणवत्ता स्तर तक प्रदूषण मुक्त हुआ। इसका उदाहरण देते हुए आगे भी प्रदूषण रोकने की समझाईश जनजागरण के उद्देश्य से दी गई। जनता व सरकार से उम्मीद की गई थी कि लॉकडाउन के बाद भी नदियों व वायु को दूषित करने के कर्मकांड पर अपने अपने तरीकों से रोक लगायेंगे। खुद गर्ज दुनिया में ऐसा होता कहां है। ऐसा होता तो पवित्र पावन गंगा या क्षिप्रा या देश की तमाम नदियां आज भी साफ रहती। अब ये नदियां पुनः सीवेज की गंदगी व मेला ढोने के लिए अभिशप्त हो गई है। लॉकडाउन के पुण्य प्रताप से नदी जलीय जीवों व वनस्पतियों को दो घड़ी के लिए जहरीली गंदगी से मिली मुक्ति को हमने ज्यादा देर टिकने नहीं दिया।
नदियों के इस दर्द का एहसास 14 दिसंबर को सोमवती अमावस्या के दिन शिप्रा, नर्मदा, गंगा ,यमुना आदि के दर्शनों में नजर आया। श्रद्धालुओं ने गन्दगी से भर दी गई पुण्य प्रदान करती नदियों में कैसे पवित्र डुबकी लगाई, कैसे प्रदूषित जल का पवित्र मान आचमन किया…. यह श्रद्धालुओं के साथ जल परीक्षण से जाना जा सकता है। शिप्रा नदी भी सीवेज के नाले की तरह गन्दगी से बीते सिंहस्थ में स्नान करवाने को मजबूर थी । तब से अब तक उसी तरह सीवेज को ढोते बह रही है। जबकि नदी जल शुद्धिकरण पर शिवराज सरकार ने करोड़ों रुपये खर्च किये थे । नतीजा यह हुआ कि सरकार के भ्रष्टाचार ने नदी को और ज्यादा गन्दगी से भर दिया। अब माघ मास के मेले इन नदियों किनारे सजने को है ।
कहा जा रहा है कि गंगा के पानी में प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। सवाल यह है कि अरबों रुपये खर्च होने के बाद भी गंगा का पानी पीने लायक क्यों नहीं है ? चाहे उत्तर प्रदेश सरकार प्रधानमंत्री को खुश करने के लिए कहे कि पानी आचमन योग्य है। गंगा के यह हाल है तो लावारिस शिप्रा ,नर्मदा जैसी नदियों में डुबकी लगाने के पहले सोचा जाना चाहिए। गंगा में जानलेवा प्रदूषण की खबर फिर उजागर हुई है। बीते नवबंर माह की 29 तारीख को देव दीपावली पर भी गंगा में मानव व पशु मल – मूत्र ही नहीं अन्य प्रदूषित तत्व मौजूद रहे होंगे। उस दिन प्रधानमंत्री अपने संसदीय इलाके के वाराणसी शहर में गंगा आरती कर रहे थे। कार्तिक पूर्णिमा की देव दीपावली के अवसर पर सजाए गए सरकारी उत्सव में गंगा नदी के प्रदूषण व इस गन्दगी से गंगा को मुक्त करने की खरबों रुपये की योजनाओं पर बात तक नहीं हुई। क्रूज बोट चलाने पर जरूर फोकस था। जबकि प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट बताती है कि गंगा माई की सेहत खराब है।वह मेलों व कुम्भ का वजन कैसे वहन करेगी।
माघ मेले की शुरुआत, प्रदूषण और बढ़ेगा
गंगा नदी की चिंताजनक हालत पर ‘द डायलाग’ के लिए कंचन श्रीवास्तव की तथ्यात्मक रपट में बताया गया है कि उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (यूपीपीसीबी) द्वारा वर्ष 2020 के लिए जारी एक रिपोर्ट से पता चला है कि वाराणसी, कानपुर, मिर्जापुर और गाज़ीपुर के क्षेत्रों में गंगा नदी के पानी में फीकल कोलीफॉर्म बैक्टीरिया की औसत संख्या 12,000 से 13,000 एमपीएन(अधिकतम अनुमानित संख्या) प्रति 100 मिलीलीटर है।
रिपोर्ट में अक्टूबर माह तक की जांच के आंकड़े हैं। तालाबंदी के दौरान इनमें से अधिकांश स्थानों में गंगा जल में फीकल कोलीफॉर्म (एफसी) का स्तर काफी कम था, अब यह बीमारियों के कारक जीवाणु एक बार फिर कोरोना से भी तेज गति से बढ़ गये है। पानी में इनकी सीमा से अधिक मौजूदगी रोग संक्रमण का कारण है। संक्रांति से शिवरात्रि तक माघ मेला करीब एक मास बाद 14 जनवरी मकर संक्रांति से गंगा नदी किनारे शुरू हो रहे माघ मेले में हजारों लोग जुटेंगे।
यह और भी चिंताजनक इसलिए है कि अगले माह यहाँ माघ मेले की शुरुआत होने पर प्रदूषण और ज्यादा बढ़ेगा । इसी पानी का उपयोग मेले में जुटने वाले सैकड़ों श्रद्धालुओं द्वारा होगा। मेला महाशिवरात्रि तक होता है। 57 दिनों तक यानी करीब दो माह तक गंगा नदी के पवित्र जल (?)में खूब पवित्र डुबकियाँ लगाई जायेगी। उतनी ही ताकत से मेले का मैला भी गंगा व अन्य पवित्र नदियों में बहाया जाएगा और प्रयागराज, वाराणसी और कानपुर सहित सभी प्रमुख शहरों में गंगा के तट पर माघ मेला लगता है । यह मेला मकर संक्रांति स्नान के साथ शुरू होगा और 11 मार्च 2021 को महा शिवरात्रि स्नान के साथ संपन्न होगा।
पानी में फीकल बैक्टीरिया यानी मल-मूत्र की उपस्थिति
सदा नीरा कल-कल बहती गंगा नदी का जल स्वच्छ होता है। गंगा या किसी भी नदी की पवित्रता के लिए नदी के पानी में फीकल बैक्टीरिया नहीं होना चाहिए। विशेषज्ञों और जानकारों का कहना है कि मनुष्यों और जानवरों के मलमूत्र से उत्सर्जित फीकल कोलीफॉर्म की मौजूदगी बताती है कि नदी का पानी दूषित है।
इस तरह का पानी पीने और नहाने दोनों के लिए खतरनाक है। इससे लोगों को दूषित पानी से होने वाले गम्भीर रोग होने का खतरा होता है। पत्रकार कंचन की रपट के अनुसार प्रदूषित जल घातक रोगों का कारण है फिर भी केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड व यूपी प्रदूषण नियंत्रण मंडल ने नदी के पानी में एफसी, फीकल बैक्टीरिया की संख्या के लिए कोई स्वीकार्य सीमा निर्धारित नहीं की है। तो क्या यह व्यवस्था सोची समझी नीति के तहत सरकार की असफलता छुपाने के लिए बनाई गई है?
आईआईटी-बीएचयू में इलेक्ट्रॉनिक्स विभाग के प्रमुख विश्वंभर नाथ मिश्रा, जो लंबे समय से गंगा नदी के प्रदूषण पर अध्ययन कर रहे हैं, कहते हैं, फीकल कोलीफॉर्म की बहुतायत, जो आमतौर पर मनुष्यों और जानवरों के मलमूत्र से आती है, इंगित करता है कि अनुपचारित मल गंगा नदी में सीधे छोडा जा रहा है। सरकार एफसी की सीमा तय नहीं करना चाहेगी क्योंकि इससे सरकार की अपनी अक्षमता उजागर होती है।”
प्रोफ़ेसर मिश्रा, जो वाराणसी के संकटमोचन मंदिर के महंत भी हैं, कहते हैं, ” प्रदूषित पानी न तो नहाने लायक है और न ही आचमन के लिए। ताजा रिपोर्ट मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के इन दावों के विपरीत है कि गंगा का पानी आचमन के लिए उपयुक्त है। ”
जानलेवा पेट के रोग
टीसी, फीकल कोलीफॉर्म बेक्टेरिया के उपसमूह में ज्यादातर एस्चेरिचिया कोलाई बैक्टेरिया, जिन्हें ई-कोलाई कहा जाता है, शामिल हैं । शहरों-गाँवों की अनुपचारित सीवेज जब नदी नालों में मिलती है तो पानी दूषित हो जाता है। सीवेज के माध्यम से नदियों में घातक रोगाणु व जीवाणु प्रवेश करते हैं। एस्चेरिचिया कोलाई (ई – कोलाई) एक बैक्टीरिया की प्रजाति है जो सामान्य रूप से स्वस्थ लोगों और जानवरों की आंतों में पाए जाते है। जब गंगा जल के नमूनों की जाँच की तो लगभग आधे नमूनों में बैक्टेरिया टीसी में एफसी का योगदान है। “ई – कोलाई के 700 से अधिक सेरोटाइप की पहचान की गई है। ई-कोलाई के कारण दस्त, पेट में ऐंठन, खूनी दस्त और उल्टी हो सकती है ” जैसा चिकित्सक कहते है।
नमामि गंगे बजट
मोदी सरकार की प्रमुख परियोजना नेशनल मिशन फॉर क्लीन गंगा या नमामि गंगे के तहत गंगा नदी को प्रदूषण मुक्त करने के लिए 2015 के बाद से 12,300 करोड़ रुपये की लागत से सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) स्थापना और देश भर में गंगा नदी के किनारों पर रिवरफ्रंट और श्मशान घाटों का विकास करना था।
नवीनतम उपलब्ध सरकारी जानकारी के अनुसार मार्च 2020 तक 8,900 करोड़ या 75 प्रतिशत का उपयोग किया गया था। दूसरी ओर 2019-20 के लिए बजट आवटन घटा दिया गया ।
मिशन गंगा , हर सरकार में भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ा है । जिम्मेदार विभागों में हर स्तर पर भ्रष्टाचार की अति और राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी से गंगा मैली होती जा रही हैं। केंद्र सरकार तथाकथित विकास में इतनी तल्लीन है कि वह विशेषज्ञों की बात नहीं सुनती है और न ही सम्बंधित संस्थाओं को संरक्षण देती है। आईएएस अधिकारी एकतरफा फैसले ले रहे हैं और नदी प्रदूषण के आंकड़ों में भी हेरफेर कर रहे हैं। यह स्थिति शिप्रा, नर्मदा व कान्ह सहित सभी मुख्य नदियों की है।
जलीय जीव और रेती का विनाश
गंगा नदी के किनारों पर बिल्डर्स व डेवलपर्स ने वर्षों से अतिक्रमण कर रखें है, जिसके कारण रेत के रूप में एक प्राकृतिक जल शोधक प्राकृतिक तन्त्र खत्म हो गया है। प्रयागराज में गंगा की पाँच छोटी धाराएँ प्रवेश करती हैं। अर्द्ध कुंभ के लिए उनमें से चार नदियों के किनारोंपर भराव कर रेतीले क्षेत्र खत्म कर दिये ताकि अधिक भूमि उपयोग के लिए उपलब्ध हो। इस तरह मछलियों और कछुओं के घोंसले वाले आवास क्षेत्रों सहित बड़े पैमाने पर जलीय जैव विविधता नष्ट हो गई है। इस तरह नदियों की हत्या करने के प्रयास हर नदी के साथ किये जा रहे है।
स्थानीय लोगों का कहना है कि गंगा में विलीन होने वाली यमुना, असि और वरुणा नदियाँ भी प्रदूषण की शिकार है। इन नदियों के किनारों की बसाहट व खेती से मल- मूत्र, कीटनाशक व उद्योग गंगा के प्रदूषण को और ज्यादा भयावह बना देते है। तीनों नदियों के किनारे व आसपास लोग खुले में शौच करते हैं और सिंचाई के लिए नदी के पानी का अनियंत्रित दोहन किया जाता हैं।
अकेले उत्तरप्रदेश के 30 शहरों में प्रतिदिन लगभग 2 हजार मिलियन लीटर सीवरेज उत्पन्न होता है। गंगा मैया में इस सीवेज का तीन चौथाई-हिस्सा बहा दिया जाता है। एसटीपी से सीवेज का उपचार सिर्फ प्रयागराज, कानपुर और वाराणसी में किया जा रहा है और वह भी आंशिक रूप से।
गंगा सहित सभी नदियोँ के आसपास आधुनिक विकास के बेतरतीब बसाए गए शहर देश के प्राकृतिक संसाधनों को खत्म करने में कसर नहीं छोड़ रहे है। (सप्रेस)
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