दुनियाभर में जलवायु-परिवर्तन के भयावह प्रभाव तबाही मचा रहे हैं और ऐसे में सभी को विकास के वैकल्पिक ताने-बाने की याद सताने लगी है। कोयला, पैट्रोल और डीजल जैसे जीवाश्म ईंधन ‘ग्रीनहाउस गैसों’ का उत्सर्जन करते हैं और नतीजे में जलवायु-परिवर्तन को हवा देते हैं, इसलिए अब बिजली से चलने वाले वाहनों की बात होने लगी है। लेकिन क्या बिजली के ये वाहन हमें प्रदूषण से बचा पाएंगे?
जलवायु परिवर्तन की भयावह स्थिति को टालने के लिए बिजली के वाहनों को यातायात के एक वैकल्पिक साधन के रूप में देखा जा रहा है। ‘वर्ल्ड बिज़नस काउन्सिल फॉर सस्टेनेबल डेवलपमेंट’ के एक अध्ययन के मुताबिक सन् 2050 तक दुनिया में कारों की संख्या 200 करोड होने का अनुमान है। दुनिया की कुल ऊर्जा का 10 फीसदी कारें इस्तेमाल करती हैं और ‘ग्रीनहाउस गैस’ उत्सर्जन में भी उनका हिस्सा 10 फीसदी है। जाहिर है, कारों की तादाद बढ़ने के साथ-साथ पेट्रोल-डीज़ल की खपत भी बढ़ेगी और उसी अनुपात में ‘ग्रीनहाउस गैसों’ के उत्सर्जन, वायु-प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन की रफ़्तार भी तेज़ होगी।
कारों को बनाने की प्रक्रिया कच्चा माल, जैसे – लोहा, बॉक्साइट आदि के उत्खनन से शुरू होती है। खदानों से अयस्क निकाले जाता हैं, उनका शोधन करके इस्तेमाल लायक लोहा, अल्यूमीनियम आदि बनाया जाता है और कलपुर्ज़े बनाने वाले कारखाने तक पहुँचाया जाता है। कारों के कलपुर्जे अलग-अलग स्थानों, कभी तो अलग-अलग देशों में बनते हैं। उसके बाद उन्हें एक जगह लाकर असेम्बल किया जाता है। समूची प्रक्रिया में कच्चे माल, कलपुर्ज़ों, मशीनों आदि का परिवहन होता है। पेट्रोल-डीज़ल से चलने वाली कार हो या बिजली से चलने वाली, दोनों की निर्माण प्रक्रिया लगभग एक जैसी होती है। जो फर्क है, वह उनके इस्तेमाल यानी संचालन में हैं। चूँकि बैटरी-चलित वाहन से धुआँ नहीं निकलता, इसलिए मान लिया जाता है कि वे पर्यावरण के लिए हितकर हैं, हालाँकि बिजली से चलने वाले वाहनों में विविधता है।
भारत में चार तरह के वाहन हैं, जो पूर्ण या आंशिक रूप से बिजली से चलते हैं–बैटरी इलेक्ट्रिक व्हिकल (बीइवी) पूरी तरह से बिजली से चलते हैं। इनमें बैटरी लगी होती है, जिसे चार्ज करने के बाद वह वाहन में लगी मोटर को चलाती है। दूसरा प्रकार है–हाइब्रीड इलेक्ट्रिक व्हिकल(एचइवी)। इनमें पेट्रोल (या डीज़ल) से चलने वाला इंजन और मोटर होती है। पेट्रोल इंजन जब चलता है तो वह वाहन में लगी बैटरी को चार्ज भी करता जाता है। एचइवी का ही एक प्रकार प्लग-इन हाइब्रीड इलेक्ट्रिक व्हिकल(पीएचइवी) है। इसमें भी इंजन और मोटर दोनों लगे होते हैं। वाहन की मोटर बैटरी से चलती है, जब बैटरी की ऊर्जा खत्म होने लगती है तो यह पेट्रोल इंजिन से उसी तरह चलने लगता है जैसा एचइवी चलता है। इसका लाभ यह है कि बैटरी को बाहर से भी चार्ज किया जा सकता है। ऊर्जा की खपत के मामले में ये वाहन एचइवी से बेहतर, लेकिन बीइवी से कमतर हैं। चौथा प्रकार है, फ्यूल सेल इलेक्ट्रिक व्हिकल(एफसीइवी)। इनमें हाइड्रोजन जैसी रासायनिक ऊर्जा से बिजली पैदा की जाती है और उससे वाहन चलता है।
कार को बगैर रोके अधिक दूरी तक चलाया जा सके इसलिए उनमें यथासम्भव बड़ी, यानी अधिक क्षमता की बैटरी लगाई जाती है। बैटरी के निर्माण में निकल, कोबाल्ट, ग्रेफाइट और लीथियम जैसे पृथ्वी के गर्भ में पाए जाने वाले दुर्लभ खनिज (‘रेअर अर्थ एलीमेंट’) इस्तेमाल होते हैं। इन्हें हासिल करने के लिए खनन करना होता है जो अपने आप में प्रदूषणकारी प्रक्रिया है। एक टन लीथियम प्राप्त करने के लिए खदानों से 250 टन स्पोडूमेन नामक अयस्क निकालना पड़ता है। एक टन लीथियम पाने की प्रक्रिया में 1,900 टन पानी वाष्पीकृत किया जाता है। एक टन दुर्लभ खनिज प्राप्त करने के लिए 75 टन अम्लीय कचरा और एक टन रेडियोधर्मी अवशिष्ट निकलते हैं। इन घातक और दूषित पदार्थों को ठिकाने लगाना अपने आप में एक चुनौती है।
हम जानते हैं कि वाहन चलाने से पहले बैटरी को चार्ज करना पडता है, इसके लिए बिजली की अबाध आपूर्ति ज़रूरी है। भारत सरकार के ‘केन्द्रीय विद्युत प्राधिकरण’ के अनुसार अक्तूबर 2021 में वैकल्पिक ऊर्जा स्रोत (सौर और पवन) से भारत में 17,142.65 मिलियन यूनिट बिजली का निर्माण हुआ। इसके बरअक्स ताप-विद्युत 105.63 बिलियन यूनिट, जल-विद्युत 13.85 बिलियन यूनिट और परमाणु-विद्युत 3.81 बिलियन यूनिट का उत्पादन हुआ। अर्थात् भारत में तकरीबन 75 फीसदी बिजली कोयला जलाकर बनती है।
ताप विद्युतघर में बिजली बनाने के लिए 1,700 डिग्री सेल्सियस तापमान पर कोयला जलाया जाता है। इससे उसमें मौजूद नाइट्रोज, हवा में मौजूद ऑक्सीजन के साथ क्रिया करके नाइट्रोजन-ऑक्साइड बनाती है। इसी तरह कोयले में मौजूद कार्बन हवा की ऑक्सीजन से मिलकर कार्बन-डाइऑक्साड बनाता है। कोयला जलाने की प्रक्रिया में नाइट्रस-ऑक्साइड भी उत्सर्जित होती है। ये तमाम गैसें वायुमण्डलीय तापमान बढ़ाने और जलवायु परिवर्तन के लिए ज़िम्मेदार हैं। सल्फर-ऑक्साइड और नाइट्रोजन-ऑक्साइड जैसी अम्लीय प्रकृति की घातक गैसें इमारतों, स्मारकों वगैरह के क्षरण और अम्लीय वर्षा के लिए भी ज़िम्मेदार हैं। सल्फर-डाइऑक्साइड और नाइट्रस-ऑक्साइड से श्वसन और हृदय से जुड़ी बीमारियाँ होती हैं।
इन बिजलीघरों में प्रति यूनिट बिजली उत्पादन में औसतन 150 लीटर पानी खर्च होता है, जो कोयला धोने, भाप बनाने और बॉयलर तथा अन्य उपकरणों को ठण्डा रखने के काम आता है। बिजलीघर से निकलने वाला प्रदूषित पानी आम तौर पर सीधे नदी-नालों में बहा दिया जाता है। कोयले की राख को आस-पास के किसी मैदान में डाला जाता है। इसमें बोरॉन, आर्सेनिक, सीसा और पारा होता है। यह पानी में मिलकर उसे विषैला बनाते हैं। पारे की वजह से मस्तिष्क, तंत्रिका-तंत्र, गुर्दे और यकृत की बीमारियाँ होती हैं। सीसे की वजह से बच्चों की अधिगम क्षमता और स्मृति पर बुरा असर पड़ता है। एक शोध के अनुसार कोयला जलाने से रेडियो-न्यूक्लासाइड भी उत्सर्जित होते हैं, जो रेडियोधर्मी पदार्थ हैं।
जल-विद्युत यानी पानी से बिजली बनाने को पर्यावरण के अनुकूल माना जाता है। जलचक्र तो प्राकृतिक रूप से अबाध चलते रहता है और साथ ही इसमें किसी खनिज को जलाने की ज़रूरत भी नहीं होती। बांध जिस पानी को रोकता है, उससे एक कृत्रिम सरोवर बनता है। यह अपने भीतर बहुत सारी ज़मीन, जंगल, चारागाह, कीटों, पशु-पक्षियों के प्राकृतिक आवास आदि के साथ-साथ खेत, गाँव और रास्तों को भी लील जाता है। यद्यपि इसमें हानिकारक गैसों का उत्सर्जन नहीं होता, लेकिन बांध से बने सरोवर के भीतर मृत वनस्पति और अन्य जैविक पदार्थ होते हैं जो पानी में सड़कर कार्बन-डाइऑक्साइड और मीथेन जैसी ‘ग्रीनहाउस गैसों’ का उत्सर्जन करते हैं।
इस तरह हम देख सकते हैं कि बिजली के वाहन भी पर्यावरण के लिए घातक हैं। आने वाले 20-30 वर्षों में हमें इसके नतीजे नज़र आने लगेंगे, तब शायद हम फिर नए विकल्पों की तलाश में जुटेंगे। दरअसल, हमें वैकल्पिक ऊर्जा के स्रोत का नहीं, जीवनशैली, नगर-नियोजन और अर्थव्यवस्था के स्वरूप को खोजना चाहिए। आज लोग शिक्षा पाने और पैसा कमाने के लिए सैकड़ों-हज़ारों मील दूर जाकर बस जाते हैं। घर से कार्यस्थल दूर हो तो हमें निजी या सार्वजनिक वाहन इस्तेमाल करना पड़ता है। हम रोज़मर्रा का जो सामान खरीदते हैं, वह ना जाने कितनी दूर से बनकर आता है। उसे बनाने के लिए कच्चा माल भी पता नहीं कहाँ-कहाँ से आता है। यह समूचा ढाँचा परिवहन और माल-ढुलाई को ज़रूरी बनाता है, जो खनिज ऊर्जा की अनावश्यक बरबादी और अन्ततोगत्वा जलवायु परिवर्तन का कारण है।
वैकल्पिक अर्थव्यवस्था और जीवनशैली कुछ वैसी हो सकती है, जैसा गाँधी ने सपना देखा था। गाँव-कस्बे स्वयंपूर्ण और स्वावलम्बी आर्थिक इकाई बनें, जहाँ उत्पादन और खपत दोनों ही स्थानीय स्तर पर हो। यही तो स्वदेशी है! पेट्रोल-डीज़ल से चलने वाली कार का विकल्प बिजली से चलने वाली कार नहीं हो सकता। कार छोड़कर जब हम पैदल चलेंगे या फिर साइकिल की सवारी करेंगे, तभी हम सच्चे अर्थों में विकल्प की राह पर होंगे। (सप्रेस)
[block rendering halted]