दुनियाभर के बाजारों और उनकी मार्फत वैश्विक राजनीति को प्रभावित करने वाले ‘ग्रूप-20’ के देश भी अब जलवायु परिवर्तन के प्रलयंकारी प्रभावों की चपेट में आते जा रहे हैं, लेकिन उनका सरगना अमेरीका अपने मौजूदा राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की जिद के चलते पेरिस में हुए समझौते से बाहर निकलने की रट लगा रहा है। ‘जी-20’ की ताजा बैठक में, जिसमें दुनियाभर के बीस राष्ट्र प्रमुखों के साथ हमारे प्रधानमंत्री भी मौजूद थे, भी इस बेहूदा जिद की बानगी देखी गई। ऐसे में दुनिया को कैसे बचाया जा सकेगा?
हाल में जापान के ओसाका शहर में आयोजित बीस देशों के समूह ‘जी-20’ के शिखर सम्मेलन में जलवायु संकट पर दो दिनी चर्चा के बाद पेरिस में 2015 में हुए ‘जलवायु परिवर्तन के समझौते’ पर 19 देशों ने एकजुटता दिखाई है। ये देश इस संधि की शर्तों में बिना कोई बदलाव किए उसके क्रियान्वयन पर सहमत हो गए हैं। अमेरिका ने एक बार फिर इस समझौते पर असहमति जताई है। इस तरह अमेरिका इस बैठक में अलग-थलग पड़ गया है। जर्मनी की चांसलर एंजेला मरकेल ने कहा है कि‘ ‘‘जी-20’’ देश जलवायु संकट पर हुए उस समझौते पर हस्ताक्षर करेंगे जो अर्जेंटीना में हुई पिछली बैठक में सहमति के आधार पर बना था।‘ अर्जेंटीना में इन्हीं देशों ने पेरिस समझौते को अपरिवर्तनीय घोषित किया था, हालांकि अमेरिका ने उसी समय पेरिस समझौते से बाहर निकलने की घोषणा भी की थी। समूची दुनिया में, जहां धरती को बचाने की चिंता की जा रही है, वहीं पेरिस समझौते से पीछे हटने वाले अमेरिका ने जलवायु परिवर्तन के संकट को व्यापार का सुनहरा अवसर मान लिया है।
आर्कटिक में पिघलती बर्फ का सीधा संबंध सूखे, बाढ़ और लू के साथ माना जा रहा है। समुद्री व हिमालयी बर्फ के पिघलने से जलस्तर बढ़ने के नतीजे भी दिखाई देने लगे हैं। इंडोनेशिया ने अपनी राजधानी जकार्ता को स्थानांतरित करने का प्रस्ताव संसद से पारित करा लिया है। जकार्ता दुनिया में तेजी से डूबने वाले शहरों में से एक है। समुद्र के बढ़ते जलस्तर के कारण जकार्ता का बड़ा हिस्सा सन 2050 तक डूब सकता है। भारतीय संसद के चालू सत्र में ‘केन्द्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण’ राज्य मंत्री अश्विनी कुमार चैबे ने बताया कि समुद्र के जल स्तर में वृद्धि की वजह से भारत के समुद्र-तटीय इलाकों में तूफान, सुनामी, बाढ़ और निचले इलाकों में मिट्टी का कटाव बढ़ रहा है। पिछले 50 वर्षों में समुद्र के जल में 1.3 मिलीलीटर सालाना की दर से वृद्धि दर्ज हुई है। पश्चिम बंगाल के डायमंड हार्बर स्थित समुद्र के जल में 1948 से 2005 के बीच 5.16 मिलीमीटर की बढ़ोत्तरी हुई है। गुजरात के कांडला में बीती एक सदी में 2.89 मिलीमीटर की दर से समुद्र का जल स्तर बढ़ा है। यह वैश्विक औसत दर से ज्यादा है। चैबे ने ‘पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय’ के आंकडों के आधार पर बताया है कि भारतीय उपमहाद्वीप का तापमान 0.6 डिग्री के हिसाब से बढ़ रहा है। साफ है, भारत जलवायु संकट के बड़े खतरे की ओर तेजी से बढ़ रहा है।
सन 2017 में पोलेंड के कातोवित्स शहर में, 2015 के पेरिस समझौते के बाद हुई जलवायु परिवर्तन की बैठक में 200 देशों के प्रतिनिधि गंभीर पर्यावरणीय चेतावनियों और जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न खतरों पर सहमत दिखे थे। इन प्रतिनिधियों ने 133 पन्नों की एक नियमावली को अंतिम रूप दिया था जिसमें वैश्विक तापमान वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस से कम रखने की मांग पर सहमति बन गई थी। यह समझौता 2020 से लागू होना है, हालांकि इस पर अमल करना आसान नहीं है। शायद इसीलिए संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटरेस ने कहा है कि ‘इसे पूरी तरह लागू करने के लिए मजबूत इच्छाशक्ति बतानी होगी, इसके लिए तकनीकी नवाचार अपनाने होंगे, अन्यथा बढ़ता तापमान आत्मघाती साबित हो सकता है।‘ इसके पहले ही अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपनी हठधर्मिता के चलते पेरिस में हुए ‘जलवायु परिवर्तन पर समझौते’ से बाहर होने की घोषणा कर दी थी जबकि इस समझौते पर खुद अमरीका समेत 200 देशों ने हस्ताक्षर किए थे। कार्बन उत्सर्जन करने वाले देशों में अमेरीका शीर्ष पर है। उसने इसमें 14 प्रतिशत कटौती का दावा किया है, जबकि वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में 20 प्रतिशत से ज्यादा की वृद्धि दर्ज हुई है।
ईटली में दुनिया के सबसे धनी देशों के समूह ‘जी-7’ की शिखर बैठक में भी ‘पेरिस समझौते’ के प्रति वचनबद्धता दोहराने के संकल्प पर ट्रंप ने हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया था। इस बैठक में ट्रंप ने भारत और चीन पर आरोप लगाया था कि इन दोनों देशों ने विकसित देशों से अरबों डॉलर की मदद लेने की शर्त पर ‘पेरिस समझौते’ पर दस्तखत किए हैं। लिहाजा यह समझौता अमेरिका के आर्थिक हितों को प्रभावित करने वाला है। यही नहीं ट्रंप ने आगे कहा था कि भारत ने सन 2020 तक अपना कोयला उत्पादन दोगुना करने की अनुमति भी ले ली है और चीन ने कोयले से चलने वाले सैकड़ों बिजलीघर चालू करने की शर्त पर दस्तखत किए हैं।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ट्रंप द्वारा खड़े किए गए इस सवाल का उत्तर देते हुए कहा था कि ‘भारत प्राचीनकाल से ही पर्यावरण के प्रति जिम्मेदारी निभाता चला आ रहा है। हमारे 5000 साल पुराने शास्त्र पर्यावरण सरंक्षण के प्रति सजग रहे हैं। अथर्ववेद तो प्रकृति को ही समर्पित है। हम प्रकृति के दोहन को अपराध मानते हैं।‘ यहां यह भी स्पष्ट करना मुनासिब होगा कि पेरिस समझौते के बाद 2015 में भारत को ‘हरित जलवायु निधि’ से कुल 19,000 करोड़ रुपए की मदद मिली है जिसमें अमेरिका का हिस्सा महज 600 करोड़ रुपए था। ऐसे में ट्रंप का यह दावा नितांत खोखला था कि भारत को इस निधि से अमेरिका के जरिए बड़ी मदद मिल रही है। दरअसल ‘पेरिस समझौते’ पर पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने न केवल दस्तखत किए थे, बल्कि संधि के प्रावधानों का अनुमोदन भी कर दिया था।
‘विश्व मौसम संगठन’ के अनुसार पूर्व औद्योगिक काल से आज तक दुनिया का तापमान एक डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है। पिछले 22 सालों में से 20 सबसे गर्म साल रहे हैं। इनमें 2015 से 2018 के बीच के चार साल शीर्ष पर हैं। यदि यही परिस्थिति बनी रही तो वर्ष 2100 तक वैश्विक तापमान में 3 से 5 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि का अनुमान है। ताजा ‘विश्व ऊर्जा सांख्यिकी की समीक्षा’ के अनुसार चीन दुनिया में सर्वाधिक कार्बन उत्सर्जन (27 प्रतिशत) करता है। यह दुनिया के कुल कार्बन उत्सर्जन में शीर्ष के दस देशों के 60 प्रतिशत के बराबर है। अमेरिका15 प्रतिशत, रूस दस प्रतिशत और भारत महज 7.1 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन करते हैं। दूसरी तरफ, जापान 2.9 प्रतिशत, ब्राजील 2.4 प्रतिशत, ईरान 1.8 प्रतिशत, इंडोनेशिया 1.8 प्रतिशत, कनाडा 1.6 प्रतिशत और मैक्सिको 1.5 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन के जिम्मेदार हैं। धरती के इस तरह गर्म होते जाने से अफ्रीका और एशिया के कमोबेश सभी शहर मौसम की अतिवृष्टि और अनावृष्टि के खतरों की चपेट में हैं। दुनिया की अर्थव्यवस्था में तेजी से उभरने वाले 100 शहरों में से 84 पर तापमान बढ़ने और जलवायु परिवर्तन से होने वाली प्राकृतिक आपदाओं की तलवार लटक गई है। यदि कार्बन उत्सर्जन में कमी नहीं लाई गई तो एक रिपोर्ट के मुताबिक 2030 तक ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन 56 गीगा टन तक पहुंच जाएगा। अकेले यूरोप में एक साल में एक गीगाटन से ज्यादा कार्बन उत्सर्जन होता है। ऐसे में प्राकृतिक आपदाओं से बचना मुश्किल होगा।
अमेरिका में कुल खपत की 37 फीसदी बिजली कोयले से पैदा की जाती है। इस तरह से बिजली उत्पादन में अमेरिका विश्व में दूसरे स्थान पर है। कोयले से बिजली उत्पादन सर्वाधिक ‘ग्रीन हाउस गैसें’ उत्सर्जित करता है। इस दिशा में भारत ने बड़ी पहल करते हुए 50 करोड़ एलईडी बल्बों से प्रकाश व्यवस्था लागू कर दी है। इस प्रक्रिया से कॉर्बन डाई-आक्साइड में 11 करोड़ टन की कमी लाने में सफलता मिली है। इसकी अगली कड़ी में सघन औद्योगिक इकाईयों की ऊर्जा खपत को तीन वर्षीय योजना के तहत घटाया जा रहा है। ‘पेरिस जलवायु समझौते’ के अंतर्गत भारत ने कार्बन उत्सर्जन में 2005 की तुलना में 30-35 प्रतिशत कटौती का लक्ष्य रखा है, किंतु अमेरिका ने कोयले की चुनौती से निपटने के अब तक कोई उपाय नहीं किए हैं जबकि उसने ‘समझौते’ के तहत 2030 तक 32 प्रतिशत जहरीली गैसों का उत्सर्जन घटाने का वायदा किया था। अमेरिका के 600 कोयला बिजली घरों से ये गैसें दिन-रात निकलकर वायुमंडल को दूषित कर रही हैं। अमेरिका की सड़कों पर इस समय 25 करोड़ 30 लाख कारें दौड़ रही हैं। यदि इनमें से 16 करोड़ 60 लाख कारें हटा ली जाती हैं तो कार्बन डाई-ऑक्साइड का उत्पादन 87 करोड़ टन कम हो जाएगा।
जलवायु परिवर्तन के असर पर शोध कर रहे वैज्ञानिकों का मानना है कि वर्ष 2100 तक धरती के तापमान में वृद्धि को नहीं रोका गया तो हालात नियंत्रण से बाहर हो जाएंगे। इसका सबसे ज्यादा असर खेती पर पड़ रहा है। धरती की नमी घट रही है और शुष्कता बढ़ रही है। नतीजे में अन्न उत्पादन में भारी कमी की आशंका जताई जा रही है। ‘अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान’ के अनुसार, अगर यही स्थिति बनी रही तो एशिया में एक करोड़ 10 लाख, अफ्रीका में एक करोड़ और शेष दुनिया में 40 लाख बच्चों को भूखा रहना होगा। ऐसे में अमेरिका द्वारा जलवायु परिवर्तन से केवल व्यापारिक हितों के लिए बाहर होना, भविष्य की दुनिया के लिए संकट बन सकता है। सब जानते हैं कि अमेरिका के सहयोग के बिना कार्बन कटौती के लक्ष्य को पाना असंभव है। (सप्रेस)