22 मार्च – विश्‍व जल दिवस पर‍ विशेष

विवेकानंद माथने

पानी की कमी ने अब दो बातों पर ऊंगली रखी है-एक, क्या पानी का टोटा सचमुच ऐसा है जिससे निपटने के लिए ‘तीसरा विश्वयुद्ध’ छेड़ना पडे ? और दूसरे, क्या उस ‘अपराधी’ को पहचानना आसान होगा जिसकी कथित जरूरतों, असीमित उपयोग और बर्बादी के चलते पानी ‘गायब’ हुआ है? आंकडे और अनुभव बताते हैं कि पानी की कमी उतनी नहीं है जितनी उसे वापरने की किफायत और समझदारी की। इसी तरह पानी के ‘गायब’ होने में उन किसानों, ग्रामीणों का उतना हाथ नहीं है जितना पानी के धंधे को फैलाने-बढाने में लगे व्यापारियों का।

देशभर में पानी का संकट लगातार बढ़ रहा है। जगह-जगह ‘पानी का संकट और उसे दूर करने के उपायों’ पर मंथन जारी है। जलसंकट के लिये जनसंख्या में बढ़ोत्तरी, आम लोगों द्वारा पानी के दुरुपयोग और सिंचाई के जरिए पानी की कथित बरबादी करने वाले किसानों को जिम्मेदार ठहराने की कोशिशें भी हो रही हैं। लेकिन क्या सचमुच जलसंकट केवल इन्हीं की वजह से खडा हुआ है? 

प्रकृति से छेडछाड के कारण बारिश का मिजाज बदला जरुर है, लेकिन देश में सौ साल की बारिश की गणना बताती है कि बारिश की मात्रा लगभग समान है। देश के अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्र में औसत बारिश हर साल जितनी होनी चाहिये, उतनी ही हो रही है। ऋतुचक्र में बदलाव के कारण चार साल में एक बार बारिश का कम या अधिक होना भी प्रकृति-चक्र के अनुरुप ही है। नदी बेसिन के हिसाब से अलग-अलग बेसिनों में प्रतिवर्ष जल उपलब्धता 300 घनमीटर से 13,393 घनमीटर तक है।

‘केन्द्रीय जल आयोग’ (सीडब्ल्यूसी) की रिपोर्ट के अनुसार भारतवर्ष में औसत 1,105 मिलीमीटर की दर से प्रतिवर्ष औसतन 4,000 अरब घनमीटर (बीसीएम) वर्षा होती है। प्राकृतिक वाष्पीकरण, वाष्पोत्सर्जन के बाद नदियों एवं जलस्रोतों के माध्यम से औसतन वार्षिक जल उपलब्धता 1,869 बीसीएम है। जिसमें से प्रतिवर्ष 690 बीसीएम सतही जल और 433 बीसीएम भूजल, यानि कुल मिलाकर 1,123 बीसीएम जल उपयोग योग्य होता है। इसमें से फिलहाल सिंचाई के लिए 688 बीसीएम, पेयजल के लिए 56 बीसीएम तथा उद्योग, ऊर्जा व अन्य क्षेत्रों के लिए 69 बीसीएम पानी, यानि कुल मिलाकर 813 बीसीएम पानी का उपयोग किया जा रहा है। वर्ष 2010 में पानी की मांग 710 बीसीएम से बढ़कर 2025 में 843 बीसीएम और वर्ष 2050 में 1180 बीसीएम होने का अनुमान है।

हरवर्ष निश्चित मात्रा में बारिश होने के बावजूद पानी का संकट लगातार बढ़ रहा है। नदियां अब सालभर नहीं बहतीं। कुछ अपवाद छोड दिये जायें तो देश की नदियों, नालों, तालाबों, झीलों, कुओं में अब केवल बारिश के मौसम में ही पानी दिखाई देता है। भूगर्भ का पानी सैकडों, हजारों फीट नीचे चला गया है। एक बड़ी आबादी को दिनभर के लिये जरुरी पानी प्राप्त करना ही मुख्य काम बन जाता है। नीति आयोग के अनुसार वर्तमान में 60 करोड़ भारतीय अत्यधिक जल तनाव का सामना कर रहे हैं। पानी से सुरक्षित और अपर्याप्त पहुंच के कारण हर साल दो लाख लोग मारे जाते हैं। वर्ष 2030 तक देश की पानी की मांग उपलब्ध आपूर्ति से दोगुना होने का अनुमान है जिसके चलते करोड़ों लोगों के लिये पानी की कमी होगी और देश के ‘सकल घरेलू उत्पाद’ (जीडीपी) में 6 प्रतिशत तक का नुकसान उठाना पडेगा।

पीने और निस्तार के पानी की आवश्यकता कुल उपलब्ध पानी की मात्र 3 प्रतिशत है। स्पष्ट है, जहां सबसे कम बारिश होती है वहां भी अगर सही जल-नियोजन किया जाता तो आबादी दोगुनी होने पर भी पीने के पानी का संकट होना संभव नहीं था। जब हम यह कहते हैं कि देश की पचास प्रतिशत आबादी जल तनाव से गुजर रही है, तो इसका मतलब होता है कि उन्हें प्रतिदिन, प्रतिव्यक्ति 40 लीटर से भी कम पानी उपलब्ध होता है। इसके अलावा तीस-पैंतीस प्रतिशत लोगों को केवल जरुरत भर पानी मिलता है। यानि पीने और घरेलू इस्तेमाल के लिये प्रतिदिन, प्रतिव्यक्ति औसत 40 लीटर के हिसाब से देश की 85 प्रतिशत जनता के लिये मात्र 14 बीसीएम पानी का उपयोग हो रहा है। पेयजल के हिस्से के कुल 56 बीसीएम में से 42 बीसीएम पानी 15 प्रतिशत अमीर पी लेते हैं। जाहिर है, पानी की खपत के लिये बढती जनसंख्या नहीं, बल्कि अमीरों की जीवनशैली कारण बनी है। जलसंकट के लिये जनसंख्या को जिम्मेदार ठहराना एक साजिश है।

देश की खाद्यान्न सुरक्षा के लिये वर्षा आधारित, सिंचित फसलों को पैदा करना राष्ट्रीय कार्य है। इन फसलों के लिये पानी की खपत राष्ट्रीय उत्पादन के लिये की गई खपत है। किसान सिंचाई के लिये मौजूदा तरीके ही अपनाता है। जब सिंचाई के लिये कम पानी के तरीके ढूढें जायेंगे तो किसान भी पानी की किफायत करेगा। सिंचाई के मौजूदा तरीकों में बडे पैमाने पर पानी का इस्तेमाल होता है, उसमें पानी की बरबादी भी होती है और उसे नियंत्रित करने की आवश्यकता भी है, लेकिन अगर सरकार फसलों की कीमत तय करने में पानी के इस्तेमाल का खर्च ठीक से ना जोड़े और किसान को फसलों की न्यूनतम लागत भी नहीं मिले तो किसान को पानी की बरबादी के लिये दोषी बताना नाइंसाफी है। यह समझना होगा कि सिंचाई के लिये पानी का उपयोग ‘किसान के लिये नहीं, किसान के द्वारा’ होता है।

वर्षा के पानी से भूजल बढाने के लिये जंगलों की तरह खेती का भी योगदान है। जमीन की निंदाई-गुडाई, खुदाई तथा फसलें, वृक्षों व फलों की खेती पानी के रिसाव का काम करती हैं। भारत में दस करोड़ हैक्टेयर से ज्यादा भूमि पर खेती के कारण रिसाव होता है। इस प्रकार होने वाला जलसंग्रहण दूसरी किसी भी प्रक्रिया से ज्यादा होता है। यह किसानों की तपस्या का फल है। वे लोग जिनकी जलसंरक्षण में थोड़ी भी भूमिका नहीं है, जिन्होंने शहरों में सीमेंट कांक्रीट के रास्तों से पूरी जमीन ढ़ंककर भूगर्भीय पानी खत्म कर दिया है और एक उपभोक्ता के नाते औद्योगीकरण, जल-प्रदूषण, बाष्पीकरण के लिये जिम्मेदार तापमान-वृद्धि में लगे हैं, कम-से-कम उन्हें पानी की बरबादी के लिये किसानों को बदनाम करना बंद करना चाहिए।

‘राष्ट्रीय जलनीति-2012’ और खरीफ फसलों के लिये ‘मूल्य नीति आयोग-2015-16’ में पानी की खपत के लिये किसानों को जिम्मेदार मानकर उसे बलि का बकरा बनाया जा रहा है। सिंचाई और पेयजल के लिये भूजल के उपयोग पर ‘लाभार्थी मूल्य चुकाये’ के सिद्धांत को लागू किया गया है। इस सिद्धांत में खेती के लिये पानी एवं बिजली की प्रति हेक्टर उपयोग की सीमा निर्धारित की जायेगी, सभी नहरों, नलकूपों, कुओं पर मीटर लगाकर पानी की खपत मापी जायेगी और अतिरिक्त पानी व बिजली के उपयोग के लिये घरेलू लागत की दर से कीमत वसूली जायेगी। सिंचाई के लिये पानी और बिजली पर मिलने वाली छूट खत्म करने और चावल, गेहूं, कपास और गन्ना जैसी अधिक पानी की फसलें न लें इसलिये ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ (एमएसपी) नियंत्रित करने की सिफारिश देश के ‘नीति आयोग’ द्वारा की गई है।

भारत का विशाल जल भंडार और उसके बाजार की उपलब्धता के कारण कार्पोरेट्स और सरकार मिलकर पानी का व्यापार करने के लिये नीतियां और कानून बना रहे हैं। पानी को ‘बिकाऊ माल’ में तब्दील करना, उसे राज्य की सूची से समवर्ती सूची में लाना, ‘सुख-भोग अधिनियम-1882’ में बदलाव कर भूजल पर सरकार की मालिकी स्थापित करना, उसे व्यापार के लिये कंपनियों को बेचने का अधिकार देना, सिंचाई के लिये बने बांधों के पानी का उद्योग और व्यापार के लिये हस्तांतरण करना, ‘नदी-जोड परियोजना’ द्वारा जलभंडारण और जल परिवहन के लिये पानी उपलब्ध कराना आदि काम पानी के धंधे को फैलाने की खातिर ही किए जा रहे हैं। ‘घर-घर नल, घर-घर जल’ के बिजनेस मॉडल के तहत पानी की बिक्री को बढाने और घर-घर विस्तार करने का प्रयास जारी है।

संविधान में जीवन के अधिकार को संरक्षित करने वाले ‘अनुच्छेद-21’ में हवा, पानी और कृषि कार्य का समावेश है। सर्वोच्च न्यायालय ने पेयजल तक पहुंच और सुरक्षित पेयजल के अधिकार को मूलभूत सिद्धांत के रुप में स्वीकार किया है। जाहिर है, संविधान हवा, पानी आदि संसाधनों को बेचने की अनुमति नहीं देता। वैसे भी भारत की सांस्कृतिक,धार्मिक पृष्ठभूमि में समस्त सृष्टी के जीवन का आधार हवा, पानी की बिक्री करना महापाप माना जाता है। लोगों की इस आस्था और सांस्कृतिक विरासत पर हाथ डालने का काम अंग्रेज भी नहीं कर पाये थे और ना ही आजादी के 70 साल में किसी ने किया, लेकिन वर्तमान सरकार इसे करने जा रही है। (सप्रेस)

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