सुदर्शन सोलंकी

वायु-प्रदूषण मानवीय जीवन और स्वास्थ्य के लिए दिनों-दिन खतरनाक होता जा रहा है। तरह-तरह के अध्‍ययन बताते हैं कि प्रदूषित हवा ने दूसरी अनेक बीमारियों के मुकाबले अधिक जिन्दगिया ली हैं।

केंद्र सरकार की संस्था ‘इंडियन कॉउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च’ (आईसीएमआर) की एक रिपोर्ट के अनुसार 2019 में वायु-प्रदूषण की वजह से भारत में 16.7 लाख मौतें हुई हैं। दिल्ली से लेकर यूपी, बिहार तक भारत का अधिकांश हिस्सा बहुत अधिक समय से वायु-प्रदूषण की समस्या से जूझ रहा है। भारत के कई राज्यों में प्रदूषण की समस्या साल भर बनी रहती है।

‘कणीय पदार्थों’ (पार्टिकुलेट मैटर – पीएम) से होने वाला वायु-प्रदूषण मुख्यतः जीवाश्म ईंधन के जलने का परिणाम होता है। इसे दुनिया भर में वायु-प्रदूषण का सबसे घातक स्वरूप माना जाता है। कणीय वायु प्रदूषण से दुनिया भर में लोगों की आयु घट रही है, यहां तक कि सिगरेट से भी अधिक। माइकल ग्रीनस्टोन, मिल्टन फ्रीडमैन, प्रोफेसर इन इकोनॉमिक्स, ‘यूनिवर्सिटी ऑफ़ शिकागो’ (अमेरिका) के अनुसार इस समय मानव स्वास्थ्य पर इससे अधिक जोखिम किसी भी दूसरी चीज से नहीं है।

‘बर्मिंघम विश्वविद्यालय’ (इंग्लेंड) के एक अध्ययन के अनुसार निमोनिया से होने वाली मौतें और मोटर गाड़ी से होने वाले वायु-प्रदूषण से होने वाली मौतों में गहरा सम्बन्ध है। दुनिया भर में हर साल मोटर गाड़ी से होने वाली मौतों की तुलना में वायु-प्रदूषण से होने वाली मौतें अधिक है। 2005 में प्रकाशित लेख बताता है कि हर साल 3,10,000 यूरोपियन वायु-प्रदूषण से मर जाते हैं। वायु-प्रदुषण के प्रत्यक्ष कारण से जुड़ी मौतों में अस्थमा, ब्रोन्काइटिस, फेफड़ों और हृदय के रोग तथा सांस की एलर्जी शामिल है।

‘वाशिंगटन विश्वविद्यालय’ (अमेरिका) द्वारा 1999 से 2000 के बीच किए गए एक अध्ययन के अनुसार वायु-प्रदूषण में रहने वाले मरीजों को फेफडों के संक्रमण का जोखिम अधिक है। विशिष्ट प्रदूषक ‘एरुगिनोसा’ या ‘बी सिपेसिया’ और इसके साथ इसकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति के लिए इनकी मात्रा के अध्ययन के पूर्व रोगियों की जाँच की गई थी। भाग लेने वाले प्रतिभागी अमेरिका की एक पर्यावरण सुरक्षा एजेंसी के निकट संपर्क में थे। अध्ययन के दौरान 117 मौतें वायु प्रदूषण से संबंधित थीं। बड़े महानगरों में रहने वाले रोगी, जिन्हें चिकित्सा सहायता आसानी से उपलब्ध है, अत्यधिक उत्सर्जन के कारण प्रदूषकों के उच्च स्तर से पीड़ित थे।

‘आईसीएमआर’ की रिपोर्ट ने यह भी बताया है कि घरेलू वायु-प्रदूषण की वजह से होने वाली मौतों में सन 1990 से 2019 तक 64 % की कमी आयी है, किन्तु हवा में मौजूद प्रदूषण की वजह से 115 % की वृद्धि हुई है। सन 2019 में प्रदूषण के कारण 18 % मौतें हुई हैं। हमारे देश में वायु-प्रदूषण का खतरा इतना अधिक है कि प्रदूषण से हुई मौतें सड़क दुर्घटनाओं, आत्महत्याओं व आतंकवाद जैसे कारणों से होने वाली कुल मौतों की संख्या से भी अधिक है।

‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ (डब्ल्यूएचओ) की एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के टॉप 20 सबसे प्रदूषित शहरों में से 13 भारत के हैं और सबसे भयावह यह है कि टॉप 10 में से 9 हमारे देश के शहर ही हैं। ‘डब्ल्यूएचओ’ ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि इन शहरों में पीएम 2.5 की सालाना सघनता सबसे ज्यादा है। पीएम 2.5 प्रदूषण में शामिल वो सूक्ष्म तत्व हैं जिसे मानव शरीर के लिए सबसे खतरनाक माना जाता है।

‘वायु गुणवत्ता जनित जीवन सूचकांक’ के अनुसार, अगर कणीय प्रदूषण का वर्तमान स्तर बना रहा तो आज की दुनिया में मौजूद लोगों की कुल मिलाकर 12.8 अरब वर्ष की जिंदगी कम हो जाएगी। इसका अर्थ है कि हर व्यक्ति की औसतन 1.8 वर्ष जिंदगी घट जाएगी। किन्तु यदि पूरी दुनिया में कणीय प्रदूषण घटकर 10 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर के ‘डब्ल्यूएचओ’ के गाइडलाइन के स्तर पर हो जाए तो दुनिया भर में जन्म के समय औसत जीवन संभाव्यता 1.8 वर्ष बढ़कर लगभग 74 वर्ष हो जाएगी।

‘सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट’ (सीएसई) की तरफ से गंगा के मैदानी इलाके के शहरों में शीतकालीन वायु-प्रदूषण (11 जनवरी 2021 तक) पर किया गया विश्लेषण बताता है कि बड़े शहरों की तुलना में छोटे शहरों की वायु गुणवत्ता ज्यादा खराब है। प्रदूषण के स्तर में स्थायी कमी लाने के लिए पराली जलाने पर नियंत्रण के साथ ही वाहनों, उद्योग, बिजली संयंत्रों से होने वाले प्रदूषण पर अंकुश लगाने के लिए त्वरित क्षेत्रीय सुधारों और ठोस कार्रवाई की जरूरत है। (सप्रेस)

सुदर्शन सोलंकी विज्ञान संबंधी विषयों के लेखक तथा ब्लॉगर हैं।

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