राजकुमार सिन्हा

हाल में कोराना महामारी के कारण लगाए गए लॉकडाउन ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि प्रदूषण और उसके नतीजे में होने वाले जलवायु परिवर्तन की बडी वजह ऊर्जा संयत्र हैं। वैसे भी दुनियाभर में बिजली उत्‍पादन के ‘ताप’ यानि थर्मल, ‘जल’ यानि हाइडल और परमाणु यानि एटॉमिक ऊर्जा के पारंपरिक स्रोतों के दुखद नतीजों को देखकर उनसे पिंड छुडाने की बातें होने लगी हैं। ऐसे में भारत सरीखे ‘विकासशील’ देश में उन्‍हीं राक्षसी विद्युत संयंत्रों को खडा करने की जिद क्‍यों होना चाहिए? खासकर तब, जब बिजली के मामले में देश और मध्‍यप्रदेश पहले से ‘ओवर-फ्लो’ हो रहा है?

सौर ऊर्जा में सस्ती टेक्नोलॉजी और नवाचार ने पूरी दुनिया में बिजली का परिदृश्य बदल दिया है। सन् 2010 में भारत का ‘राष्ट्रीय सौर ऊर्जा मिशन’ शुरू किया गया था। उस समय सौर ऊर्जा से मात्र 17 मेगावाट बिजली का उत्पादन होता था। बीस जून 2020 तक सौर बिजली उत्पादन की स्थापित क्षमता 35 हजार 739 मेगावाट हो गई है। वर्तमान केंद्र सरकार ने 2022 तक एक लाख मेगावाट सौर ऊर्जा, 60 हजार मेगावाट पवन उर्जा और 15  हजार मेगावाट  अन्य परम्परागत क्षेत्रों से बिजली उत्पादन का लक्ष्य रखा है। देश के पांच प्रमुख राज्यों में सोलर ऊर्जा का उत्पादन इस प्रकार है (मेगावाट में) – कर्नाटक (7100), तेलगांना (5000), राजस्थान (4400), गुजरात (2654)। मध्यप्रदेश भी इस सूची में जल्द ही शामिल होने वाला है।

एक नवम्बर 2020 के सरकारी आंकड़ों के अनुसार मध्यप्रदेश में विभिन्न स्रोतों से मिलने वाली बिजली (मेगावाट में) इस प्रकार है – राज्य थर्मल (5400), राज्य जल विद्युत (917), संयुक्त उपक्रम एवं अन्य – (2456), केंद्रीय क्षेत्र – (5055), निजी क्षेत्र – (1942), अल्ट्रा-मेगा पावर प्रोजेक्टस – (1485) एवं नवकरणीय उर्जा – (3965) अर्थात 21 हजार 220 मेगावाट प्रतिदिन की क्षमता है। दिसम्बर 2020 में राज्‍य में अधिकतम बिजली की मांग 15 हजार मेगावाट दर्ज की गई थी, जबकि वर्ष भर में औसत मांग लगभग 9 हजार मेगावाट है।

इसके अतिरिक्‍त रीवा में 750 मेगावाट की ‘अल्ट्रा मेगा सोलर पलांट’ शुरू हो चुका है। एक सरकारी विज्ञप्ति के मुताबिक इससे हर साल 15.7 लाख टन कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन को रोका जाएगा, जो दो करोड़ 60 लाख पेड़ों के लगाने के बराबर है। मध्यप्रदेश के विभिन्न अंचलों में सोलर पावर प्लांट (मेगावाट में) की, आगर- (550), नीमच – (500), मुरैना – (1400), शाजापुर – (450), छतरपुर – (1500) और ओंकारेश्‍वर – (600) परियोजनाएं, अर्थात कुल पांच हजार मेगावाट क्षमता की परियोजनाएं निर्माणाधीन हैं।

भारत में तीन करोड कृषि पम्प हैं जिनमें से एक करोड पम्प डीजल से चलाए जाते हैं। इन किसानों को  ‘ऊर्जा सुरक्षा उत्थान महा-अभियान’ (कुसुम) योजना के तहत जो सोलर पम्प दिए जा रहे हैं, उनसे कुल 28 हजार 250 मेगावाट बिजली पैदा होगी। मध्यप्रदेश सरकार का दावा है कि अब तक 14 हजार 250 किसानों के लिए सोलर पम्प स्थापित किये जा चुके हैं। तीन सालों में दो लाख पम्प और लगाने का लक्ष्य है। दूसरी ओर, मध्यप्रदेश में अब तक 30 मेगावाट क्षमता के सोलर रूफ-टॉप संयत्र स्थापित किये जा चुके हैं। इस साल 700 सरकारी भवनों पर 50 मेगावाट के सोलर रूफ-टॉप और लगेंगे। भोपाल के निकट मंडीदीप में 400 औद्योगिक इकाईयों के लिए 32 मेगावाट क्षमता की सोलर रूफ-टॉप परियोजनाओं पर कार्य किया जा रहा है।

जबलपुर शहर की ‘गन-कैरिज फैक्ट्री’ (जीसीएफ)  और ‘व्‍हीकल फैक्ट्री’ (वीएफजे) में 10-10 मेगावाट के सोलर प्लांट लगाए गए हैं। इन दोनों जगहों से बिजली का उत्पादन और वितरण किया जा रहा है। अब जितनी बिजली इन प्लांट से बनती है, उतना क्रेडिट इनके बिल में किया जा रहा है। ऐसे में न केवल ‘वीएफजे’ और ‘जीसीएफ,’ बल्कि ‘आयुध निर्माणी, खम्हरिया’ (ओएफके) तथा ‘ग्रे-आयरन फाउंड्री’ (जीआइएफ) को भी बिलों में बचत होने लगी है। न केवल चारों आयुध निर्माणी फैक्ट्रियां, बल्कि इस्टेट के बंगले एवं क्वार्टर में होने वाली बिजली की खपत भी इसमें समाहित की गई है। इन दोनों सोलर प्लांट से हर साल 3 करोड़ 60 लाख यूनिट से ज्यादा का बिजली उत्पादन किये जाने की अपेक्षा है। एक अनुमान के अनुसार इन दोनों प्लांट से 40 हजार टन कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन को रोका जा सकेगा।

देश में अधिकांश, लगभग 58 फीसदी, बिजली का उत्पादन कोयले से होता है। भारत में बिजली की स्थापित क्षमता तीन लाख 73 हजार 436 मेगावाट है, जिसमें कोयला आधारित विद्युत संयंत्रों का योगदान दो लाख 21 हजार 803 मेगावाट है। इसमें से 30 हजार मेगावाट से अधिक क्षमता के संयत्र 20 साल से ज्यादा पुराने, खर्चीले और प्रदूषणकारी हैं। औद्योगिक विकास के लिए कोयला और पेट्रोलियम जलाने से निकलने वाला कार्बन का धुआं पृथ्वी के जलवायु परिवर्तन का मुख्य कारक है। ‘ग्लोबल रिस्क इंडेक्स – 2020’ के अनुसार सन् 1998 से 2017 के बीच भारत में जलवायु परिवर्तन (सूखा, अतिवृष्टि, समुद्री तूफान आदि) के कारण पांच लाख 99 हजार करोड़ रूपयों का आर्थिक नुकसान हुआ है। वहीं केवल सन् 2018 में जलवायु परिवर्तन से दो लाख 79 हजार करोड़ रुपयों का आर्थिक नुकसान हुआ और 2081 लोगों की मौतें हो गईं थीं।

‘राष्ट्रीय विद्युत नीति’ के अनुसार अगले दशक में विद्युत की बढती मांग को 2027 तक दो लाख 75 हजार मेगावाट नवीकरणीय ऊर्जा से पूरा किया जा सकता है, इसलिए कोयले के नये संयंत्रों की जरूरत नहीं पड़ेगी। ऐसी परिस्थितियों में बिजली की मांग और अर्थव्यवस्था की गति को बनाए रखने के लिए आवश्यक हो गया है कि नवीकरणीय ऊर्जा में निरंतर वृद्धि करते हुए विद्युत उत्पादन के लिए कोयले पर निर्भरता कम की जाए। वैसे भी, वैश्विक एनजीओ ‘ग्रीन पीस’ के अनुसार कोयले से उत्पन्न बिजली, सौर और पवन उर्जा से 65 फीसदी महंगी है।

सम्पूर्ण भारतीय भूभाग  पर 5000 लाख करोड़ किलोवाट प्रति वर्ग किलोमीटर के बराबर सौर ऊर्जा आती है, जो कि विश्व की सम्पूर्ण खपत से कई गुना है। देश में वर्ष में 250 से 300 दिन ऐसे होते हैं जब सूर्य की रोशनी पूरे दिन भर उपलब्ध रहती है। भारत का दुनिया भर में बिजली के उत्पादन और खपत के मामले में पांचवां स्थान है। भारत की लगभग 72 फीसदी आबादी गांवों में निवास करती है और इनमें से हजारों गांव ऐसे भी हैं जो आज भी बिजली जैसी मूलभूत सुविधा से वंचित है। यह देश को उर्जा की गुणवत्ता, संरक्षण और उर्जा के नवीन स्रोतों पर ध्यान देने का उचित समय है। सौर ऊर्जा, भारत में ऊर्जा की आवश्यकताओं की बढती मांग को पूरा करने का सबसे अच्छा तरीका है। (सप्रेस)

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