कुलभूषण उपमन्यु

महात्मा गांधी के जन्मदिन के ठीक एक दिन पहले हजार किलोमीटर की पद और यदा-कदा वाहन यात्रा करके अपनी बात कहने आए कुल-जमा डेढ़ सौ लद्दाखियों को देश की राजधानी की सीमा पर रोकने की आखिर क्या वजह हो सकती है? क्या ऐसी पुलिसिया कार्रवाई मौजूदा विकास और आम लोगों के बीच बढ़ते तनाव को उजागर नहीं कर रही हैं? क्या हैं, सोनम के सवाल?

लद्दाख से एक सितंबर को शुरु हुई 1000 किमी. की पैदल और यदा-कदा वाहन यात्रा करके दिल्ली की सीमा पर पहुंचे एक्टिविस्ट सोनम वांगचुक को उनके 150 साथियों के साथ हिरासत में ले लिया गया है। लद्दाख को ‘छठी अनुसूची’ में शामिल करने की मांग के साथ सोनम वांगचुक ने लद्दाख से यह यात्रा शुरू की थी। उन्हें एक अक्टूबर को राजधानी के सिंघु बार्डर से हिरासत में लिया गया। पुलिस का कहना है कि शहर में निषेधाज्ञा लागू होने के कारण सोनम और उनके साथियों को रोका गया, लेकिन जब वे नहीं रुके तो उन्हें हिरासत में ले लिया गया। सोनम जी के नेतृत्व में यह टोली हिमालय के दर्द बांटते हुए उसके संरक्षण का संदेश लेकर 2 अक्टूबर, ‘गांधी जयन्ती’ के दिन दिल्ली के राजघाट (गांधी समाधि) पंहुचने की उम्मीद रखते थे।  

बरसों से पदयात्रा भारत में जनहित, आध्यात्मिक संदेश पंहुचाने और समाज को जगाने का सशक्त माध्यम रहा है। सोनम जी की यात्रा को मार्ग में जगह-जगह मिला समर्थन साबित कर रहा है कि पदयात्रा आज भी शुद्ध जनहित और आध्यात्मिक संदेश फ़ैलाने का सशक्त माध्यम है, जिसकी प्रासंगिकता असंदिग्ध है, बशर्ते यात्रा का लक्ष्य स्वार्थ-जनित न हो। हिमाचल और गढ़वाल की ‘हिमालय बचाओ संपर्क वाहन यात्रा’ के दौरान भी सवाल उठे थे कि ‘जब हिमालय तुम्हें बचा रहा है तो तुम हिमालय को बचाने वाले कौन होते हो,’ तो जवाब होता था कि हिमालय की हमें बचाने की शक्ति हमारी गलत विकास की गतिविधियों और हमारे लालच के कारण अति-दोहन के चलते नष्ट हो रही है।

हिमालय को बचाने का अर्थ है, हिमालय की वायु को शुद्ध करने की शक्ति, जल-संरक्षण की शक्ति, जलवायु नियंत्रण की शक्ति, जैव-विविधता द्वारा देश की सेवा करने की शक्ति, थके-हारे मानस को शांति प्रदान करने की शक्ति, सदानीरा नदी-तन्त्र द्वारा सेवा करने की शक्ति को लालच के लिए नुकसान पंहुचाने से बचाना और नुकसान पंहुचाने वालों को रोकना ही हिमालय को बचाना है।  

हिमालय के जो प्राकृतिक और सांस्कृतिक अवदान हैं उनको बचाना सोनम वांगचुक और उनके साथियों की इस यात्रा का मूल उद्देश्य है। हिमालय सांस्कृतिक विविधता का भी भंडार है। किसी भी समाज के दीर्घकालिक हित के लिए सांस्कृतिक विविधता बहुत आवश्यक तत्व है। हिमालय में यदि बर्फ न रहे तो हिमालय का क्या अर्थ रह जाएगा। किसी भी पारिस्थितिकी तंत्र में वहां के समाजों का होना भी उतना ही महत्वपूर्ण है।

मनुष्य समाज और प्रकृति-तन्त्र का संतुलित रिश्ता ही पारिस्थितिकीय संतुलन का आधार है। हमारा आज का विकास का मॉडल इस तत्व की अनदेखी कर रहा है। हम सोचने लगे हैं कि सभी समस्याओं के समाधान इंजीनियरिंग और तकनीकी से मिल सकते हैं, किन्तु ऐसा है नहीं। हम पानी का एक कतरा, हवा का एक श्वास, मिटटी का एक ढेला, प्रकृति के तत्वों का प्रयोग किए बिना बना नहीं सकते। जिन्दा रहने के लिए हवा, पानी और भोजन ही सबसे बुनियादी जरूरतें हैं।

हमारा विकास इन्हीं पर आघात कर रहा है। ग्लेशियर पिघल रहे हैं, जिससे नदियों के अस्तित्व पर खतरा आ गया है। वे मौसमी होकर रह जाएंगी। मिटटी हमारी रासायनिक खेती की पद्धति द्वारा जहरीली होती जा रही है, वही जहर हमारे खाद्य पदार्थों में पंहुच रहे हैं। हवा को सभ्यता का धुआं जहरीला कर रहा है। तो संकट जिन्दा रहने पर आने वाला है। सबसे संवेदनशील परिस्थिति-तन्त्र होने के नाते हिमालय पर होने वाले दुष्प्रभाव अधिक घातक होंगे और पूरे देश को प्रभावित करेंगे।

लोग अब इन मुद्दों को समझने लगे हैं इसीलिए लद्दाख की आवाज को हिमाचल और उत्तराखंड में इतना समर्थन मिल रहा है। असल में यह आवाज पूरे हिमालय की है। मुख्यधारा के विकास मॉडल से यहाँ जो परिस्थिति-तंत्र को नुक्सान हो रहा है उसकी और अधिक अनदेखी पूरे देश के लिए घातक सिद्ध होगी। हिमालय बचा रहेगा तो पूरा देश बचा रहेगा। हिमालय के लोगों की विकास की जरूरतों को पूरा करने के लिए हमें वैकल्पिक विकास के मॉडल पर काम करना पड़ेगा। इसके लिए स्थानीय समाजों की समझ का उपयोग करना जरूरी है।

इसके लिए लद्दाख के लोगों की चुनी हुई सरकार की मांग तर्क-सम्मत है, इसे माना जाना चाहिए। इसी दृष्टि से लद्दाख को संविधान की ‘छठी अनुसूची’ में डालने की मांग है। इस अनुसूची में डाले जाने से प्राकृतिक संसाधनों को संरक्षित करने में स्थानीय समाजों की भूमिका सशक्त होगी और सरकार को भी संसाधनों के तर्कपूर्ण दोहन के लिए व्यवस्था बनाने में आसानी होगी।

कई दशकों से हिमालय में वैकल्पिक विकास का मॉडल अपनाने की मांग हो रही है। ‘योजना आयोग’ के समय से ही यह मुद्दा उठता रहा है, किन्तु कोई परिणाम नहीं निकला है। लोगों को छिटपुट संघर्षों के कारण कहीं अपनी बात मनवाने में सफलता मिली भी है, किन्तु असली समाधान तो वैज्ञानिक समझ से हिमालय की संवेदनशील पारिस्थितिकी के अनुरूप विकास मॉडल लागू करने से ही होगा। इसके लिए ‘पांचवीं’ और ‘छठी अनुसूची’ कुछ संरक्षण तो दे ही सकेंगी। तो क्यों न ट्रांस-हिमालय को ‘छठी अनुसूची’ और शेष हिमालय को ‘पांचवीं अनुसूची’ में डालकर हिमालय को मुख्यधारा के विकास की विनाशकारी दौड़ से बचाया जाए। जो मैदानी इलाकों के लिए ठीक है, वह हिमालय के लिए भी ठीक हो, यह जरूरी नहीं है। यह काम वैज्ञानिक समझ से हल किया जाना चाहिए, इसमें दलगत राजनीति के लिए कोई स्थान नहीं दिया जा सकता। (सप्रेस)

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