सिर्फ सरकारों के भरोसे प्रकृति-पर्यावरण की रक्षा नहीं हो सकती, उसमें समाज को हाथ बंटाना पड़ता है। यह काम यदि किसी अच्छी, बरसों पुरानी सामाजिक परम्परा की मार्फत होने लगे तो जाहिर है, वे अधिक मजबूत और स्थायी होते हैं।
भाई-बहन रक्षाबंधन के मौके पर एक-दूसरे को राखी पहनाते हैं। राखी का धागा एक अटूट रिश्ता बनाता है। यदि बहन पर कोई कष्ट आ गया तो भाई दौड़े-दौड़े मदद करने पहॅुच जाता है। इसमें यह जरूरी नहीं कि किसी का अपना भाई या बहन ही हो। यदि जीवन-पर्यन्त किसी से भाई- बहन का संबंध बन जाता है तो वे भी राखी के धागे के डोर में बंधकर एक-दूसरे के दु;ख-सुख में खड़े रहते हैं। यह एक अनुशासन पर्व भी है जिसमें देश के कोने-कोने से लोग एक- दूसरे को राखी पहनाने आते हैं। यदि कोई दूर देश में भी रह रहा होगा तो राखी का धागा रक्षाबंधन के दिन ही डाक से पहुंच जाता है। यह अनोखा त्यौहार धरती के सम्मान का प्रतीक है। जिसमें बिना किसी बनावटी रंग-भेद, जात-पांत, ऊंच-नीच को भुलाकर धरती माता के रूप में नारी शक्ति का सम्मान किया जाता है।
यह रक्षाबंधन केवल हाथों में राखी बांधकर समाप्त नहीं होता, बल्कि कई वर्षो से वनों से चारापत्ती व ईधन के रूप में लकड़ी लेने वाली महिलायें भी पेडों पर रक्षासूत्र बांधती हैं। वे पेड-पौधों की रक्षा के लिये सैनिकों के रूप में खड़ी रहती हैं। पहाड़ के गांवों में खेती और पशुपालन में वनों का महत्वपूर्ण योगदान है। इसी के चलते पेडों से महिलाओं का एक तरह से जन्म-जन्मांतर का रिश्ता है।
मध्य, उत्तर-पूर्व और पश्चिम हिमालय के किसी भी गांव को देखेंगे तो ऊपर जंगल व चारागाह, बीच में गांव और इसके चारों ओर सीढीदार खेती की जमीन दिखेगी। इसी में कहीं जलस्रोत भी होगा जहां से लोग पीने के पानी की आपूर्ति करते हैं। गांव के इस दृश्य से ही अंदाज लगाया जा सकता है कि यहां पानी, पशुपालन, खेती आदि कार्य जंगल के कारण चलते हैं। विज्ञान के इस युग में जंगल जाने वाली महिलाओं की पीठ का बोझ भी कम नहीं हुआ है। कटाई के कारण अब जंगल दूर भाग रहे हैं। इस विषम परिस्थिति में भी वनों से महिलाओं का दैनिक रिश्ता है।
सन् 1994-95 की घटना है, जब मध्य-हिमालय के उत्तराखण्ड में लोगों ने पेड़ों पर रक्षासूत्र बांधे थे। उन दिनों यहां वनों की अंधाधुंध कटाई हो रही थी। तत्कालीन उत्तरप्रदेश सरकार ने उत्तराखण्ड में 10 हजार फीट की ऊंचाई तक दुर्लभ वन-प्रजातियों को सूखा घोषित करके वन कटान के लिये रास्ता खोल दिया था। उन दिनों उत्तराखण्ड में पृथक राज्य का संघर्ष चल रहा था, लोग सड़कों पर आ गये थे, लेकिन वनों के निकट रहने वाले दर्जनों गांवों के लोगों के सामने जब निर्दयतापूर्ण पेड़ों की कटाई होने लगी तो टिहरी और उत्तरकाशी की महिलाओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने पेड़ों को बचाने के लिये उन पर राखी बांधी। पांच-छह वर्षो के संघर्ष के बाद सन 2000 तक कई स्थानों पर वनों का व्यावसायिक कटान रोकने में सफलता मिली। आज भी कई स्थानों पर हरे पेडों की कटाई के खिलाफ रक्षासूत्र बांधे जाते हैं। जिसे ‘रक्षासूत्र आन्दोलन’ के नाम से जाना जाता है। इस पर एक पुस्तक भी लिखी गयी है।
‘रक्षासूत्र आन्दोलन’ की तर्ज पर उत्तराखण्ड के अलावा हिमाचल, जम्मू-कश्मीर, उत्तर-पूर्व दिल्ली आदि कई स्थानों पर लोगों ने पेड़ों को बचाने की मुहिम चलाई है। अकेले उत्तराखण्ड में लगभग 12 लाख वृक्षों को कटने से बचाया गया था। रक्षाबंधन के पर्व पर कई स्थानों से खबरें छपती रहती हैं कि बच्चों, महिलाओं और शिक्षकों ने पेडों पर रक्षासूत्र बांधकर पर्यावरण संरक्षण का संकल्प लिया है।
पहले अधिकाश मिश्रित प्रजातियों के वन मिलते थे जिन्हें वापस लाने के लिये हर साल लाखों-लाख चौडीपत्ती के वनों का रोपण होता था। एक ही दिन में 30 लाख से लेकर एक करोड पौधे लगाने का कीर्तिमान हासिल किया जा रहा है। इसके बावजूद भी पहाड के जंगलों में केवल चीड़ ही दिखाई दे रहा है। काबिल-ए-गौर है कि चीड को नियंत्रित कर टिहरी और उत्तरकाशी के सैकडों गांव जिसमें खिटटा, खलडगांव, शुक्री, मजखेत, पिपलोगी, कुडियालगांव, रावतगांव और मटटी, डॉग, सिरी, धनेटी, धनपूर, पंजियाला, जुगुल्डी, अलेथ आदि ने मिश्रित वन पालकर इसकी रक्षा के लिये पेडों पर राखी बांधी है। गांव के लोग अपने पाले हुए जंगलों से आवश्यकतानुसार चारापत्ती और जलावन लेते हैं। वे सालभर इसकी सुरक्षा अपने चौकीदार से करवाते हैं। प्रत्येक घर से चौकीदार को नगद अथवा अनाज के रूप में पारिश्रामिक दिया जाता है।
वन संरक्षण की इस मजबूत व्यवस्था को बनाये रखना वर्तमान में गांव के सामने एक चुनौती बनकर भी उभर रही है। लोगों के पास वनाधिकार नहीं है, लेकिन जंगल उन्हीं के हैं, जो जंगल के बीच रहते हैं। वे हमेशा इसी भावना से जीते रहे हैं। पेडों पर राखी बांधकर जलवायु नियंत्रण, वर्षा वनों का पोषण, जल-स्रोतों की रक्षा और खेती-बाडी को बढ़ाने का संदेश भी है। कई स्थानों पर रक्षासूत्र नेतृत्वकारी महिलायें, जैसे-सुमति नौटियाल, गंगादेवी, हिमला आदि से सवाल पूछा गया कि राखी बांधकर पेडों से महिलायें चारापत्ती क्यों लाती हैं? तो इनका जबाव था कि पेड़ उनके भाई हैं जो वर्षभर चारा और लकड़ी देते हैं। भाई की कलाई पर इसलिये राखी बांधी जाती है कि वह हर समय साथ रहता है। ठीक उसी तरह पेड भी उनकी हर तरह की मदद करते हैं। ‘रक्षासूत्र आन्दोलन’ में सक्रिय रहीं अनिता, उमा, कुंवरी, सुशीला, संगीता, प्रेमा, जेठीदेवी, मंदोदरीदेवी, विमलादेवी, रोशनी, सुमनी, बसंती नेगी आदि कई नाम हैं जिन्हें हजारों पुरूषों का सहयोग मिलने के कारण पेडों के साथ रिश्ता बना है। (सप्रेस) http://www.spsmedia.in