भोपाल गैस कांड’ : 36 वां साल
‘भोपाल गैस कांड’ का यह 36 वां साल है, लेकिन लगता नहीं कि हम उससे कुछ जरूरी सीख ले पाए हैं। मसलन – अब भी तरह-तरह के नारे, नियम-कानून और मुहीमें पर्यावरण-प्रकृति के ‘संरक्षण’ की खातिर खडे किए जाते हैं, लेकिन इंसान खुद को ‘प्रकृति का ही एक अविभाज्य अंग’ नहीं मानता। यदि इस ‘अविभाज्यता’ को मान लिया जाए तो क्या पर्यावरण-प्रकृति को बचाना, खुद को बचाना नहीं हो जाएगा? और ऐसे में क्या ‘भोपाल गैस त्रासदियों’ से भी बचा नहीं जा सकेगा? (हिंदी अनुवाद निधि अग्रवाल)
सभ्यता और संस्कृति के मौजूदा मुकाम पर पर्यावरण की बारीकियों और उसमें निहित संकट की उन जड़ों को समझने में कोई मदद करता नहीं दिखता, जो हमारे सामने तबसे खडी होना शुरू हुयी थीं, जबसे हम इस आधुनिक औद्योगिक सभ्यता का हिस्सा बने। हमें एक बार भी यह नहीं सूझता कि शायद इस त्रासदी में हम भी भागीदार हैं। यह केवल इसलिए नहीं है क्योंकि हम मनुष्य हैं, जिन्हें बड़ी आसानी से हमने अलग कटघरे में खड़ा कर दिया था। वे उस समुदाय के लोग भी हैं जो अपनी पिछली पीढियों से ज़मीन से जुड़कर, प्रकृति और जंगली जानवरों के साथ करीबी और सामंजस्य के रिश्ते में जीते आये हैं। आज भी हमारे देश में ऐसे समुदाय, उनकी सांस्कृतिक प्रथाएं और जीवन-शैलियाँ जीवित हैं जो बताती हैं कि ये रिश्ते पूरी तरह से अभी भी ख़त्म नहीं हुए हैं।
मीडिया पर सक्रिय मध्यम वर्ग के शिक्षितों ने कभी यह सवाल नहीं पूछा कि मानव और प्रकृति के रिश्ते में दरार क्यों आई? ऐसा क्या हुआ कि मानव अपने परिवेश के साथ संघर्ष की स्थिति में आ गया? हमने नहीं पूछा कि अन्य जीवों, जिनके लिए जंगल ही जीने की पसंदीदा जगह है, को खेतों और मानवीय आवास स्थलों में बदलने के लिए मजबूर क्यों होना पड़ा? उनके अपने आवास-स्थलों की क्या स्थिति है? क्या उन्हें कोई हवाई अड्डा, कोई बाँध, कोई खदान या कोई शहर तो नहीं निगल गया? या फिर क्यों उन्हें किसी ‘राष्ट्रीय उद्यान’ या ‘अभयारण्य’ में कैद कर दिया गया, जिसकी सीमाएं जानवरों को भी पता नहीं हैं?
इन सवालों के जवाब अस्पष्ट नहीं, बल्कि काफी प्रत्यक्ष हैं। और अगर अभी तक पता नहीं हैं, तो हमें पता होना चाहिए कि पिछले कई दशकों से, विशाल स्तर पर जंगलों के कटान और भू-दृश्य में बड़े पैमाने पर परिवर्तन के कारण जंगली जीवों के आवास स्थलों को नुक्सान पहुंचा है और साथ ही ज़मीन और वनों पर निर्भर लोगों का विस्थापन होता आया है। करोडों जीवधारियों की जान इसी ‘विकास’ ने ली है, जिसे हम आज ‘भगवान’ मानकर पूजते हैं। वही ‘विकास’ जिससे टाटा, बिडला, अम्बानी और अदानी जैसे पूंजीपतियों ने अपने धन और संपत्ति का सृजन किया है।
मानवीय बनाम पारिस्थितिक, मानव बनाम प्रकृति की दो धुरियों के बीच इस चर्चा को सीमित करना बहुत आसान है, जो बहुत चतुराई से सभी मनुष्यों को एक समरूप श्रेणी में डाल देती है, और असल अपराधियों को छुटकारा दे देती है। प्रकृति और उसके निवासियों पर दिखाई देने वाला अत्याचार और कुछ नहीं, बल्कि विकृत ढांचागत शोषण की अभिव्यक्ति है, जो इसकी रूपरेखा में निहित है और जिसे शक्तिशाली लोगों ने जान-बूझकर अदृश्य बनाया हुआ है। यहाँ केवल गैर-मानवीय जीव ही दमन का शिकार नहीं हैं, बल्कि इनमें मनुष्य भी शामिल हैं। हम अपने चारों तरफ जो वर्ग, जाति, लिंग, नस्ल की असमानताएं और शोषण देखते हैं, वे सब इसी उत्पादकता, उपभोग और संचय की उपयोगितावादी प्रणाली का नतीजा हैं जिस पर आधुनिक विकास पनपता है।
इस पदानुक्रम में जो हावी रहते हैं, वे इस प्रणाली के निर्माता और लाभार्थी हैं। उन्होंने सबसे ज़्यादा हमारी पारिस्थितिकी को प्रभावित किया है और पहले से ही शोषित लोगों को और भी ज़्यादा संकट में डाल दिया है। इस शोषण के भुक्तभोगी चंद संसाधनों के लिए आपसी क्लेश के साथ सदा ही जीवन संघर्ष करने के लिए मजबूर कर दिए जाते हैं, लेकिन फिर भी, इस वर्चस्ववाद और हिंसक अर्थव्यवस्था के बारे में कोई बात नहीं करता। पूँजीवाद, नव-उदारवादी विकास, जातिवाद, नस्लवाद, पितृसत्ता, सेना-औद्योगिकी की मिलीभगत और फासीवादी सरकारों की आपस में जुड़ी दमनकारी प्रक्रियाओं, जो अपनी ही मानवजाति और प्रकृति के खिलाफ ढांचागत हिंसा को बढ़ावा देती हैं, पर पर्याप्त चर्चा नहीं होती। कम-से-कम वे लोग तो आज भी इन मुद्दों पर चुप्पी साधे हैं जो खुद को पर्यावरण का हितैषी मानते हैं।
यह चुप्पी और यही मानसिकता हमें अमीर और शक्तिशाली लोगों द्वारा परिभाषित पर्यावरणवाद की तरफ ले आई है। नव-उदारवादी भूमंडलीकरण के एजेंडा को बढ़ावा देती ताकतवर सरकारों, अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं से जन्मा यह पर्यावरणवाद ऐसी भाषा, अवधारणाओं और विचारों पर आधारित है जो कभी भी ढांचागत हिंसा पर सवाल उठने नहीं देता और अंततः पारिस्थितिकीय विनाश का प्रमुख कारण बनता है।
यह पर्यावरणवाद प्रकृति के नज़दीक रहने वालों को उसका दुश्मन बना कर उन्हें बाहर रखता है। खासकर कानून के सामने, जहाँ आदिवासी और वनवासी को ‘अतिक्रमण करने वाले’ या वनों को नष्ट करने वाले की नज़र से देखा जाता है। दूसरी ओर, एक सम्पूर्ण पारिस्थितिकीय तंत्र को बाँध में डुबाने को ‘राष्ट्र हित’ बताया जाता है। यह पर्यावरणवाद पर्यावरण की निगरानी के लिए एक ऐसा प्रबंधन-तंत्र खड़ा कर देता है, जहाँ ‘विशेषज्ञों’ द्वारा ‘पर्यावरण प्रभाव आंकलन’ रिपोर्ट से मिली ‘पर्यावरणीय मंज़ूरी’ महज एक रबर स्टाम्प भर रह जाती है। इसके अतिरिक्त, इस पर्यावरणवाद में जंगल को नष्ट करने के बदले पूंजीपतियों को ‘प्रतिपूरक वनीकरण’ के लिए भुगतान कर खुली छूट मिल जाती है और इस माध्यम से प्रकृति और ज़मीन की उत्पादकता को साफ़ रास्ता मिलता है। इसी के चलते वनाश्रित लोगों की आजीविकाएं विस्थापित हो जाती हैं और प्राकृतिक जंगलों की जगह ‘मानव-निर्मित’ वन ले लेते हैं।
यह पर्यावरणवाद हमें प्रकृति से अलग कर देता है – एक तरफ, कंपनियों को इसे नोच खाने की छूट तो दूसरी तरफ, जंगल, जीवों और नदियों को ‘अखंड’ और ‘पवित्र’ रूप से संरक्षित रखने के नाम पर सत्ता और पैसे का खेल चलता है। परिणामस्वरूप, वनाश्रित लोगों और गरीबों को इन संसाधनों से अलग कर दिया जाता है, जिन्हें फिर ‘संरक्षित’ घोषित कर दिया जाता है। केवल चंद लोग ही इनके मालिक होंगे, जैसे ‘राष्ट्रीय उद्यान’ जहाँ शहरी पर्यटक अपने बच्चों को छुट्टियों के लिए ले जाते हैं जिससे कि वे खुद महसूस कर सकें कि जंगल की खुशबू कैसी होती है और शेर कैसे दहाड़ता है। यह पर्यावरणवाद खुद को आध्यात्मिक ज्ञान में बदल देता है, एक ऐसे महान देवपुरुष द्वारा निर्देशित जो देश की सभी नदियों को जीवित करने की इच्छा और शक्ति दोनों रखता है। यह पर्यावरणवाद अब एक नये ‘हरित’ विकास की बात कर रहा है। ऐसे विकास के लिए जंगलों से अब ‘लिथियम’ नामक पदार्थ का खनन किया जाएगा जिससे कि सौर-उर्जा का उत्पादन किया जा सके और जिसे ‘स्वच्छ’ ऊर्जा कहा जा सके। हम इस सहस्त्राब्दी की ऊर्जा-भोगी पीढ़ी हैं जो ‘अस्वच्छ’ कोयले को समाप्त कर अब ‘स्वच्छ भारत अभियान’ में लगी हुयी हैं। दरअसल यह ‘नवउदारवादी-पर्यावरणवाद’ सिर्फ एक बहाना है, एक ढोंग है।
क्या हम नहीं जानते कि यह कितना बड़ा झूठ है कि दुनिया एक भयंकर प्राकृतिक संकट में है और कॉर्पोरेट-सरकारों के बीच जलवायु-परिवर्तन के विमर्श और समझौते ही हमारी नैय्या को डूबने से बचा सकते हैं। कोरोना वायरस महामारी के बीच, हमने खुद दिल बहलाने के लिए मान लिया कि ‘हम सभी एक ही नांव में सवार हैं,’ लेकिन वास्तव में हम खुद को बेवकूफ़ बना रहे हैं, खुद से झूठ बोल रहे हैं। हाँ, हम सब एक ही तूफ़ान का सामना तो कर रहे हैं, लेकिन हम सबकी ‘नावें’ अलग-अलग आकार-प्रकार की हैं और सबसे बड़े ‘जहाज़’ में बहुत कम लोग सवार हैं। आखिर यह ‘छोटी नावों’ को डुबो देने वाला ऐतिहासिक तूफ़ान और इसके जैसे कितने ही ‘तूफानों’ का निर्माण यही ‘बड़ा जहाज़’ करता आया है और आगे भी करता रहेगा।
यदि हम सच में पर्यावरण के बारे में चिंतित हैं तो हमें ‘न्याय’ और ‘सच्चाई’ की खोज से प्रेरित होना होगा। आँखों की पट्टी हटाकर राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक संदर्भों पर गहराई से उतरने के लिए हमें तैयार होना होगा। एक वैचारिक बदलाव की आवश्यकता है जिसकी शुरुआत एक ओर, विभिन्न प्रकार के दमन और दूसरी ओर, संवेदनशीलता तथा सहयोग की एक-दूसरे को प्रभावित करने वाली धुरियों की समझ पर आधारित हो। सामूहिक एजेंडा और दृष्टिकोण को सहयोग के मूल्य से प्रेरित होना होगा। तभी हम खुद को प्रकृति के ‘रक्षक’ न समझते हुए, वास्तव में समझ पाएंगे कि असल में हम इसका एक अंश हैं। (सप्रेस)
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