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22 अप्रैल : विश्‍व पृथ्‍वी दिवस   

इक्कीसवीं सदी आते-आते पर्यावरण की बदहाली ने हमें लगातार उसे याद रखने की मजबूरी के हवाले कर दिया है। विश्व पृथ्वी दिवस को वैश्विक जलवायु (Global warming) संकट के प्रति जागरुकता लाने के लिए प्रतिवर्ष मनाया जाता है। वैश्विक जलवायु संकट खतरनाक स्थिति में है और इस पर ध्यान देने की आवश्यकता है। ‘तेन त्यक्तेन भुंजीथाः’ अर्थात प्रकृति का त्याग-पूर्वक उपभोग करें, यानि यह मेरी मिल्कियत नहीं है, बल्कि ईश्वर की धरोहर है, अतः धरोहर की रक्षा करते हुए उपभोग करें।

महात्मा गांधी ने उस समय यह कहा था जब पर्यावरण विज्ञान का नाम तक पैदा नहीं हुआ था कि “प्रकृति के पास सबकी जरूरतें पूरी करने के लिए पर्याप्त साधन हैं, किन्तु कुछ लोगों के लालच और अय्याशी के लिए कुछ भी नहीं है।” पर्यावरण विज्ञान की समझ को कम-से-कम शब्दों में कहने के लिए इससे अच्छा कथन मिलना कठिन है। गांधी के पास यह समझ किसी वैज्ञानिक अध्ययन के कारण नहीं आई थी, बल्कि इस समझ का आधार खांटी भारतीय परंपरा, सनातन परंपरा की बारीक समझ में था।

भारतीय सनातन परंपरा में इस समझ का विकास हजारों वर्षों के अनुभव से पैदा हुआ था। अनुभव के विश्लेष्ण से उपजा ज्ञान ही विज्ञान का भी आधार होता है इसलिए यह ज्ञान आज के वैज्ञानिक सन्दर्भों में भी सही साबित हो रहा है। इसी परंपरा ने हमें सिखाया है कि प्रकृति जड नहीं है, बल्कि जीवंत है, इसके कण-कण में आत्मा का निवास है। ‘ईशावास्यं इदं सर्वं’ अर्थात यहां प्रकृति में जो भी है, उसके कण-कण में ईश्वर यानि परमात्मा का निवास है इसलिए इसका आदर होना चाहिए। ‘तेन त्यक्तेन भुंजीथाः’ अर्थात प्रकृति का त्याग-पूर्वक उपभोग करें, यानि यह मेरी मिल्कियत नहीं है, बल्कि ईश्वर की धरोहर है, अतः धरोहर की रक्षा करते हुए उपभोग करें।

जब से मनुष्य के हाथ में उर्जा और मशीन की शक्ति आ गई है तब से वह प्रकृति के संसाधनों का अनंत उपभोग करने की सामथ्र्य वाला बन गया है। अनंत उपभोग से अनंत संपत्ति पैदा करना बडप्पन की निशानी हो गई है। इस कारण प्रकृति की स्वाभाविक विकास और पुनः अपनी क्षति पूर्ती करते हुए सतत बने रहने की ताकत कम होती जा रही है। बढ़ती आबादी और बढ़ती अनावश्यक भूख ने हालात बिगाड़ दिए हैं। सबसे जरूरी जीवन-साधन प्राणवायु का प्रकृति जितना संशोधन कर सकती है, उससे ज्यादा धुआं हम आकाश में विभिन्न गतिविधियों से छोड़ रहे हैं, फिर एक-दूसरे पर दोषारोपण करके अपने आप को बचाने की झूठी तसल्ली देते रहते हैं। प्राणवायु तो राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं को नहीं जानती। हवा है, कहीं भी निकल लेती है। भारतीय हिमालय का पानी पाकिस्तान पंहुच जाता है और नेपाल, तिब्बत का पानी भारत आ जाता है। भूजल भंडारों का पानी प्रदेशों की सीमायें लाँघ कर हिमाचल से पंजाब, हरियाणा, राजस्थान चला जाता है। मिटटी बनती तो हिमालय के जंगलों में है, किन्तु गंगा और सिंधु के मैदानों में बिछ जाती है।

हवा, पानी और भोजन-जीवन के लिए सबसे जरूरी ये तीन घटक हैं। इनके केन्द्र में वनस्पति है जिससे स्रृष्टि की शुरुआत हुई है। इसी से वायु शुद्धिकरण, जल-संरक्षण और मिटटी निर्माण हुआ है। आज इसी वनस्पति संपदा पर खतरा मंडरा रहा है। हजारों हेक्टेयर जमीन और जंगल खनन, बड़े बांधों, लंबी सडकों आदि की भेंट चढ़ रहे हैं। हालांकि कुछ मजबूरियां भी हैं, किन्तु फिर भी आखिर कोई सीमा तो बांधनी ही होगी, वरना हवा, पानी, और भोजन के बिना जीवन ही असंभव हो जाएगा। जलवायु परिवर्तन का खतरा दिनों-दिन प्रकट होता जा रहा है जिसका मुख्य कारण वायु प्रदूषण है। इसे सब जानते हैं, पर नींद के बिना ‘सोने’ का नाटक कर रहे हैं। आज की मौज-मस्ती के लिए भविष्य की पीढ़ियों के जीवन को खतरे में डाल रहे हैं। भावी संतानों के लिए मोटा बैंक-बैलेंस तो छोड़ कर जाना चाहते हैं, किन्तु सांस लेने योग्य शुद्ध वायु कैसे बचे यह चिंता नहीं है। आखिर ऐसा बैंक-बैलेंस किसके काम आएगा, यह सोचने की जरूरत है। जितना बड़ा विकसित देश और आदमी होगा वह उतना ही ज्यादा प्रकृति विध्वंसक भी होगा। यह जो विरोधाभास हमारे जीवन में रूढ हो गए हैं, इनसे बाहर तो निकलना ही पड़ेगा।

विकास विरोधी कहे जाने का खतरा उठा कर भी यह सच तो किसी को कहना ही पड़ेगा। असल में यह विकास विरोध है भी नहीं, बल्कि विकास और प्रकृति संरक्षण के बीच उचित संतुलन साधने की बात है। इस बात को सभी को समझना चाहिए। सादगी तो जरूरी जीवन मूल्य रहेगा ही, ताकि कम-से-कम संसाधनों की जरूरत रहे, किन्तु आज की सादगी सौ वर्ष पहले जैसी नहीं हो सकती। आज हमें विज्ञान के बल पर विकल्पों की खोज पर विशेष ध्यान देना होगा। आज सबसे ज्यादा समस्या उर्जा उत्पादन, पैकेजिंग, खनन, बड़े उद्योग पैदा कर रहे हैं। इनके बिना गुजरा भी नहीं है और इनके साथ जीवन चलाना भी संभव नहीं है। तो रास्ता यही है कि ऐसे विकल्प खोजे जाएं जो प्रकृति को न्यूनतम हानि पंहुचाएं। जैसे ताप-विद्युत की जगह सौर-उर्जा, निजी वाहनों की भीड़ घटाने के लिए बेहतर सार्वजनिक परिवहन, नदियों और भूजल में कोई भी प्रदूषक तत्व न जाएं इस बात का ध्यान रखना, वन रोपण पर जोर देना और फल, चारा, ईंधन, खाद, रेशा और दवाई देने वाले पेड़ लगाना जो बिना काटे हर साल फसल के रूप में आमदनी देते रहें। जिससे पेड़ खड़ा रहकर हवा, पानी, मिटटी के संरक्षण का कार्य करता रहे और समुदायों को आय के साधन भी देता रहे।

वन संरक्षण से आम आदमी को जोड़ने का यह सही तरीका हो सकता है। वन क्षेत्र की निम्नतम सीमा 33 प्रतिशत मानी गई है, उसका कडाई से पालन होना चाहिए, किन्तु बड़ी परियोजनाओं के लिए तो वन-भूमि का आबंटन आसानी से हो जाता है, लेकिन भूमि-हीन आदिवासी या अन्य परंपरागत वनवासियों के लिए वन-भूमि की कमी का बहाना बनाया जाता है। वन विभाग वनों के मालिक जैसा व्यवहार करता है और लोगों को जोड़ने की दिशा में कोई प्रयास नहीं करता। इससे वनों के संरक्षण में लोगों की भागीदारी कम होती जा रही है। शहरी आबादी, उद्योग और कृषि में जल-संसाधनों पर कब्जे की होड़ हो रही है जिससे पेयजल संकट गभीर होता जा रहा है। उद्योग पानी की मांग के साथ शेष बचे शुद्ध जल को प्रदूषित करने का भी का काम करते हैं और पानी को दोहरा नुकसान पंहुचाते हैं। उद्योग भले ही विकास का इंजन हो, किन्तु पानी को नष्ट करने का हकदार कदापि नहीं हो सकता, खासकर जब पानी के अकाल जैसी स्थिति सब ओर बनती जा रही हो। बड़ी जल परियोजनाओं के अनुभव के बाद हमें स्थानीय स्तर के विकेन्द्रित समाधानों की ओर ध्यान देना होगा।

नदियों में बहने वाला ठोस कचरा जल प्रदूषण का बड़ा कारण बन गया है। इस कचरे को निपटाने के प्रयास स्वच्छता अभियान में जोर पकड़ रहे हैं, किन्तु समस्या है कि कचरे को इकट्ठा करके निपटाया कैसे जाए? यहाँ-वहां डंपिंग स्थलों में कचरा डाल देने के बाद उसमें आग लगने से वायु प्रदूषण, जमीन में रिसाव से भूजल और मिटटी प्रदूषण का खतरा बनता है। इस कचरे से बिजली बनाने के उन्नत तरीके, जिनमें वायु प्रदूषण का खतरा नहीं रहता, को अपनाया जाना चाहिए। ऐसे विकल्पों की खोज सतत जारी रहनी चाहिए जो वर्तमान स्तर से प्रदूषण के खतरे को प्रभावी रूप से कम करने में समर्थ हों। उससे बेहतर समाधान मिल जाए तो उस नई तकनीक को अपनाया जाना चाहिए। हमारे ‘विश्‍व पृथ्‍वी दिवस’, ‘विश्व पर्यावरण दिवस,’ ‘जैव विविधता दिवस’ आदि मनाने की रस्म-अदायगी से आगे बढने से ही मंजिल हासिल होगी। यह एक गलत बहाना है कि विकास के लिए पर्यावरण का नुकसान तो झेलना ही पड़ेगा। हमें पर्यावरण मित्र विकास के मॉडल की गंभीरता से खोज करनी होगी और हिमालय जैसे संवेदनशील प्राकृतिक स्थलों के लिए तो विशेष सावधानी प्रयोग करनी होगी। सरकार ने हिमालय में विकास के लिए एक प्राधिकरण का गठन किया है, उसको पर्वतीय विकास की सावधानियों को लागू करने, खोजने में अग्रसर होना चाहिए। हिमालय भारत के पारिस्थितिकी संरक्षण की रीढ़ है, यह बात जितनी जल्दी समझें उतना ही अच्छा। (सप्रेस)

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