एस.एम.मोहम्मद इदरीस
क्या आपके हाथों में खुरदरापन रहता है ? क्या वे सूखे रहते हैं ? और उनमें दरारें पड़ गई हैं ? इसका कारण वे’’ नींबू की ताजगी वाले’’ डिटरजेंट हो सकते है जिन्हें आप बर्तन या फर्श साफ करने के लिए प्रयोग करते हैं। कहीं आपके शरीर पर लाल चकते तो नहीं उभर रहे हैं? शायद इसका कारण वह ’’सोप पाउडर’’ है जिससे आपके कपड़े धुलते हैं। डिटरजेंटों में मौजूद रासायनिक एंजाइम गंभीर एलर्जी का कारण बन सकते हैं। आपकी चमकीली प्लेटों के माध्यम से पेट में पहुंचा डिटरजेंट उदर और बड़ी आंत को नुकसान पहुंचा सकता है।
दरअसल डिटरजेंट रासायनिक मिश्रण हैं। इनमें से अधिकांश पेट्रोकेमिकल उद्योगों के सह-उत्पाद हैं। मगर असली साबुन वनस्पति तेल या प्राणियों की चर्बी जैसे प्राकृतिक उपादानों से बनते हैं। वे त्वचा के लिए निरापद होते हैं। किए गए अध्ययनों से मालूम हुआ कि लंबे समय तक डिटरजेंटों के उपयोग से हाथों में सूखापन, दाग तथा दरारें आ जाती हैं खासतौर से जिनकी त्वचा नाजुक या अधिक संवेदनशील होती है।
दुर्भाग्यवश बाजार में उपलब्ध अधिकांश साफ करने वाले उत्पाद डिटरजेंटों से बनते हैं क्योंकि वे निर्माताओं को इनकी कम लागत लगती है सस्ते पड़ते हैं। उपभोक्ता भी उन्हें पंसद करते हैं क्योंकि उनमें झाग जल्दी तथा ज्यादा पैदा होता है। और इससे उन्हें ऐसा लगता है की सफाई बेहत्तर हुई है। निर्माताओं द्वारा आपको जरूरी नहीं है कि वे साफ करने वाले उत्पादों में क्या-क्या डालते हैं और वे बतलायें। इतना ही नहीं उन्हें इस बात की भी इजाजत है कि वे इन्हें कृत्रिम डिटरजेंट ’’साबुन’’ कहें जबकि उसमें साबुन होता ही नहीं है।
यही ही नहीं टूथ पेस्टों में भी डिटरजेंट होता है। ताकि उससे भी खूब झाग निकले। यही हाल विभिन्न तरह के शेम्पू का भी है। लगभग सारे ’’सोप-पाउडरों’’ में डिटरजेंट होता है जबकि वास्तव में उनमें साबुन नहीं होता। घरों में काम आने वाले सारे पाउडर तथा तरल पदार्थ टायलेट बाथरूम साफ करने वाली चीजें तथा बर्तन-धोने वाले प्रवाही भी डिटरजेंट ही हैं। यहां तक कि साबुन के बार और बट्टियां नहाने के साबुन को छोड़कर भी डिटरजेंट ही हैं।
मलेशिया के उपभोक्ता संरक्षण संघ द्वारा कुछ वर्षों पहले में किए गए एक सर्वेक्षण से पता चला कि उन गृहणियों तथा साफ सफाई करने वाली महिलाओं को कई त्वचा-संबंधी बिमारियां हो जाती हैं जो कपड़े-बर्तन तथा फर्श साफ करने के लिए डिटरजेंटों का प्रयोग करती हैं। इनमें से कई के नाखून झड़ जाते हैं तथा ऊंगलियों में दरारें पड़ने लगती है।
डिटरजेंट कपड़ों से मैल तथा चिकनाहट तो दूर करते हैं लेकिन उसके साथ ही वे मानव-त्वचा पर चढ़ी कुदरती तैलीय-परत को भी क्षति पहुंचाते हैं। इस सुरक्षा -आवरण के क्षतिग्रस्त होने से हाथों में छाले पड़ जाते हैं। जापान के एक प्रतिष्ठित त्वचा-विज्ञानी डॉ. योशियों माकिनों के अनुसार डिटरजेंट से धुले शिशुओं के डायपर से चमड़ी भी लाल पड़ जाती है।
कृत्रिम डिटरजेंटों का विकास पश्चिमी देशों में स्वचालित ’’डिश वाशरों’’ तथा कपड़े धोने की मशीनों के लिए किया गया था। जिनमें वे हाथों के संपर्क में नहीं आते। मगर तीसरी दुनिया के देशों में तो इनका उपयोग ज्यादातर हाथों की मदद से ही किया जाता है तथा उसका नतीजा त्वचा रोगों के रूप में सामने आता है।
लंदन यूनिवर्सिटी के चिकित्सा संस्थान के तीनों चिकित्सकों द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण से पता चला कि भोजन के रास्ते डिटरजेंट पेट में पहुंचकर आंतों को नुकसान पहुंचाते हैं। सबसे पहले तो इन चिकित्सकों ने यह पता लगाया कि प्रत्येक वयस्क अपने शरीर के प्रति किलोग्राम भार पर एक मिलीग्राम की दर से अवशिष्ट डिटरजेंट को ’’पेट में पहुंचाता है। यानि प्रति पुरूष औसतन 60 मि.ग्रा. डिटरजेंट पेट में पहुंचता है। डिटरजेंट से धुली दूध की बोतलों के माध्यम से दूध पीते बच्चे तक उसकी 7 से 10 मि.ग्री. मात्रा जाती हैं।
अध्ययन दल ने चूहों को 100 मि.ग्री. प्रति कि.ग्रा. डिटरजेंट युक्त भोजन खिलाकर देखा कि उनके पाचन-संस्थान पर उसका क्या असर होता है। इस आहार के कारण चूहों की छोटी तथा बड़ी आंत के भीतरी झिल्ली क्षतिग्रस्त हो गई। इससे उनकी कोशिकाओं की दीवारों में भारी विकृतियां पैदा हो गई। उदर तथा बड़ी आंत में सूजन तथा छाले आ गए। मुंह में जीभ पर छाले आ गए तथा स्वाद तंतु पूरी तरह नष्ट हो गए। वैसे लेखकों ने यह भी कहा कि चूहों को दी गई मात्रा मानवों द्वारा ग्रहण की जाने वाली मात्रा से बहुत कम होती है तथापि ’’हम इस तथ्य की और अवश्य ध्यान आकर्षित करना चाहेंगे कि बच्चों में इसके कारण गंभीर तथा स्थाई उदर-रोग हो सकते हैं।’’ उनका अंतिम निष्कर्ष यह था कि डिटरजेंट आधुनिक जीवन का महत्वपूर्ण अंग है मगर उनके उपयोग में सावधानी बरती जाना चाहिए।
टूथ पेस्टों में भी डिटरजेंट होते हैं जो दांतों को साफ करने के लिए नहीं होते। यह काम तो उनमें रहने वाले सिलिकेट जैसे घर्षणशील पदार्थ करते हैं। निर्माता डिटरजेंट सिर्फ झाग पैदा करने के लिए डालते हैं जो कि उपभोक्ता को स्वच्छता का आभास देता हैं और उसे लगता है कि दांतों की सफाई अच्छी हुई है। मगर उन्हें यह पता नहीं होता कि इससे उनके मुंह की नाजुक श्लेष्मा-झिल्ली को नुकसान पहुंचता है। इसके लिए टूथ-पेस्टों में जो रसायन मिलाया जाता है-उसे सोडियम लॉरेल सल्फेट कहा जाता है जो कि डिटरजेंट का ही एक प्रकार है। दांत साफ करने के बाद मुंह में जो सुन्नपन हो जाता है उसका कारण भी यह डिटरजेंट ही है। इससे भी स्वाद तंतु क्षीण होते हैं तथा जीभ की सतह भी सख्त हो जाती है।
हम क्या करें ? बाजार में बहुतायत डिटरजेंटों की ही है। यह स्थिति तभी बदल सकती है। जबकि आम उपभोक्ता डिटरजेंट के बदले साबुन-उत्पादों की ही मांग करें। जब तक ऐसा नहीं होता डिटरजेंट का उपयोग रबर के दस्ताने पहन कर किया जाएं । डिटरजेंट उत्पादों के लिए ’’साबुन’’ शब्द के उपयोग पर बंदिश लगाई जाए। डिटरजेंटों में प्रयुक्त होने वाले रसायनों को विनियमित करने तथा लेबलों पर चेतावनी भी दी जानी चाहिए ।
आपने जो चीज खरीदी है वह ’’साबुन’’ है या डिटरजेंटों का पता इसी से चलेगा कि ’’साबुन’’ पर चिपके लेबल पर लिखा होता है ’’वनस्पति तेलों से निर्मित’’ (सप्रेस / उतुसान कन्ज्यूमर)
एस.एम.मोहम्मद इदरीस,मलेशिया स्थित थर्ड वर्ल्ड नेटवर्क समूह के संस्थापक,समन्वयक, उपभोक्ताओं के अधिकारों के वकील हैं।