अनुपम मिश्र
यह साल दुनिया की भीषणतम औद्योगिक त्रासदी ‘भोपाल गैसकांड’ की चालीसवीं बरसी का साल है। क्या हुआ था, दो और तीन दिसंबर की दरमियानी रात को? और उसके बाद किस-किस ने, कैसे-कैसे, क्या-क्या किया? ‘सप्रेस’ के दस्तावेजों में सुरक्षित, दुर्घटना के ठीक 20 दिन बाद, 22 दिसंबर 1984 को अनुपम मिश्र का लिखा यह लेख कई जरूरी बातों की याद दिलाता है।
‘भोपाल गैसकांड’ : चालीसवीं बरसी
मुख्यमंत्री अर्जुनसिंह और वैज्ञानिक श्रीनिवास वरदराजन ने बची गैस से कीडे-मार दवा एक बनाकर भोपाल को फिलहाल किसी तरह बचा लिया है। एक बडी आबादी को सोते से उठाकर यहां-से-वहां भगाकर मृत्यु की गोद में सुलाने के ठीक 13वें दिन, 16 से 19 दिसम्बर तक भोपाल में पूरे तामझाम के साथ जो कुछ भी हुआ वह एक अकल्पनीय तेरहवीं थी। विज्ञान, विकास और ऊंची तकनीक के नए ब्राम्हनों ने और उसका प्रबंध कर रहे नउओं ने मृतक शहर भोपाल के बचे हुए सदस्यों को सस्कृत में जो कुछ सुनाया और घड़ी और मुहूर्त देखकर जो कुछ किया उसका सार कुछ इस प्रकार है –
नाईट्रोजन से एमआईसी में दबाव बढ़ाया : दबाव 0.35 किलोग्राम प्रति वर्ग सेंटीमीटर हुआ : 10 बजकर 42 मिनट पर आवश्यक दबाब 1.8 किलोग्राम प्रति सेंटीमीटर हुआ : 10 बजकर 58 मिनट पर एक मीट्रिक टन मिथाईल आइसोसाइनेट द्रव का चार्ज पाट एक माप इकाई स्थानातरित किया गया और प्रथम स्थानांतरण की प्रक्रिया 11 बजकर 10 मिनट पर सम्पन्न हुई। ऐसे मंत्र और कर्मकांड तारक की तरह प्रस्तुत किए जा रहे थे, पर यही सब कर्मकांड 13 पहले मारक साबित हो चुके थे।
जिस दिन यह तेरहवीं शुरु हुई ठीक उसी दिन बिलकुल आर्यसमाजी पद्धति में एक नागरिक ने मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय में एक याचिका प्रस्तुत करते हुए इस ‘आस्था अभियान’ के माध्यम से यूनियन कार्बाइड कारखाने में शेष बची समूची एमआईसी गैस को नष्ट करने की प्रार्थना की थी। अवकाशकालीन जज न्यायमूर्ति लाल ने कहा कि अगर याचिकाकर्ता इतना आतुर था तो उसे पहले न्यायालय में आना चाहिए था, लेकिन लगता है कि अपने अधिकारों के मामले में वह तब सोया हुआ था और उचित समय रहते हुए वह न्यायालय के सामने नहीं आया। अब तक तो सरकार भारी खर्च कर सारी तैयारियां पूरी कर चुकी है और यदि ‘आस्था अभियान’ को स्थगित करने का आदेश दिया जाएगा तो यह सारा खर्च बेकार हो जाएगा। फिर भी न्यायालय ने वायरलेस से भोपाल सरकार को आदेश भेजकर पूरी गैस बेअसर न करने के निर्देश दे दिए।
बहरहाल तेरहवीं पूरी हुई और भोपाल फिर से शुद्ध और पवित्र हो गया। जीवन फिर से शुरु हो जाएगा। जनजीवन के सामान्य होने के अलावा कोई रास्ता भी नहीं होता है, लेकिन बचे भोपाल से कुछ बचे सवाल उठते हैं। कितने और भोपाल बचे हैं हमारे देश में? क्या राजनैतिक नेतृत्व उन्हें बचाने के बारे में सोचते, कुछ करने की इच्छाशक्ति समय से पहले दिखा, जुटा पाएगा? इन अमिट, जहरों पर टिके औद्योगिक और कृषि उत्पादन के ढांचे को हम अब भी आधुनिक, वैज्ञानिक व पूरी तरह से सुरक्षित मानकर अपनाते और फैलाते जाएंगे।
जिन जिन्नों के बारे में बड़े-बड़े वैज्ञानिक भी क ख ग तक नहीं जानते उन जिन्नों को प्रगति का हाथ मजबूत करने के लिए कांच की ऐसी नाजुक बोतलों में भर-भरकर क्यों रखा जा रहा है? 2500 लोगों को मारने, कोई एक लाख से ऊपर लोगों को तड़पाने और इतने ही लोगों को शहर से बाहर भगाने वाली गैस ‘फासजीन’ है कि ‘मिथाइल आइसो-साइनाइड’ या ‘मिथाइल आइसो-साइनेट’ है – इसी को तय करने में चोटी के वैज्ञानिकों और डॉक्टरों को 2 सप्ताह लग गए। वरदराजन ने जिस दिन अंतिम तौर पर इसे ‘मिथाइल आइसो-साइनेट’ बताया, उसके तीन दिन बाद भूतपूर्व प्रधानमंत्री के भूतपूर्व वरिष्ठ सलाहकार हक्सर ने इस पर फिर से प्रश्नचिन्ह लगा दिया। कुल मिलाकर बड़े वरिष्ठ लोग टकरा रहे हैं, छोटे से रसायन को तय करने में।
गैस से हुए नुकसान का निदान अललटप्पू है, किसी को पता नहीं की क्या दवा है इसकी। न ‘यहां’ के, न ‘वहां’ के डॉक्टर बता पाए कि गैस की मार में आकर बचे लोग कब तक बचेंगे? वहां की साग-सब्जी, हवा-पानी का क्या होगा? सरकारी विभाग ‘सब ठीक है’ बता रहे हैं, लेकिन 2 दिसम्बर से पहले उठी चिंताओं के हर जवाब में भी तो यही टेक हुआ करती थी। इसमें कोई शक नहीं है कि अमिट जहरों का धंधा करने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियां तीसरी दुनिया में दादागिरी के साथ धंधा करती हैं। अपने कचरे को यहां ठिकाने लगाती हैं। हमारे जैसे देशों को कचराघर बनाकर पैसा बटोरती हैं, पर उन्हें यह छूट कैसे मिलती है?
उन्हें यह सब करने की छूट ही नहीं, बाकायदा सुविधा कौन देते हैं, न्यौता कौन देता है और उन पर जरा-सा भी संकट आने पर उनकी पैरवी कौन करता है? मध्यप्रदेश में ‘इंका’ सरकार के तत्कालीन श्रममंत्री तारासिंह वियोगी कोई अकेले नहीं हैं, जो ऐसे कारखानों को कोई छोटा-सा पत्थर नहीं मानते और खतरे की जरा सी भी संभावना दिखलाई देने पर उसे उठाकर कहीं दूर रखने पर राजी नहीं होते। केंद्र और राज्यों की सभी तरह की सरकारों में ऐसे फैसले लेने के पदों पर बैठे लोग योगी नहीं, बिल्कुल वियोगी जैसे हैं। वे सब ऐसे कारखानों की विमनियों से निकलने वाले जहरीले धुएं से देश की गरीबी ढंक देना चाहते हैं। उनके लिए यह विकास की पताकाएं हैं।
विकास के झंडे कहां लहराएं, कहां गड़ें ये वे खुद तय करते हैं। थोड़ा-बहुत विवाद उठे तो उनके वैज्ञानिक और विशेषज्ञ उनका रुख समझकर वैज्ञानिक रिपोर्ट देकर उसे दबा देते हैं। मथुरा के पास बाद नाम की जगह में तेल साफ करने के कारखाने को भारी विरोध के बीच श्रीनिवास वरदराजन ने भी कुछ आवश्यक सावधानियां बरतते हुए लगाने की हरी झंडी दिखाई थी। इसी तरह बंम्बई के पास थाल वैशट में यूरिया खाद बनाने वाला दुनिया का सबसे बड़ा कारखाना किसी क्रूर राक्षस बहुराष्ट्रीय निगम का नहीं, बेहद कल्याणकारी सार्वजनिक उद्योग ‘राष्ट्रीय रसायन व उर्वरक लिमिटेड’ का है।
बम्बई के पर्यावरण को बचाने में लगी अनेक गैर-सरकारी संस्थाओं के विरोध के बावजूद यह हाल में ही बनकर तैयार भी हो गया है और इसी हफ्ते अमोनिया गैस की ‘हल्की-सी रिसन’ के कारण खबरों के बीच जगह भी पा चुका है। जब सन् 1978 में ‘बम्बई बचाओ समिति’ के लोग इंदिरा गांधी से इस बारे में मिलने और इसके कारण बम्बई, खासकर अलीबाग के सत्तर हजार लोगों पर मंडरा रहे खतरे बताने के लिए आए तो उनका जवाब था कि यह फैसला तो राज्य सरकार के हाथ में है। तकनीकी या अन्य कोई शर्त उस पर नहीं है। केवल इतनी सी बात है कि थाल क्षेत्र में इस कारखाने से जो भी क्षति होगी, उसके लिए केन्द्र सरकार जिम्मेदार नहीं होगी।
पूरे देश के पर्यावरण हवा, पानी, जमीन, पेड़-पौधे, पंछी, जानवरों की सुरक्षा की निगरानी की जिम्मेदारी निभाने वाले केन्द्र और राज्य के पर्यावरण विभागों और बोर्डों की भूमिका भी लोगों के जीवन के साथ खेलने वाली ऐसी योजनाओं में राजनीतिक नेतृत्व की चपरासीगिरी रही है। ऐसे कठिन मौके पर आगे बढकर कुछ नया करने की सिफारिश करने की हिम्मत भी विभागों ने अभी तक नहीं दिखाई है। देश के पर्यावरण की साज-संभाल में ये उन पुलिस थानों से बेहतर नहीं हो पाए हैं जिनके रोज खुलते जाने से भी ‘कानून और व्यवस्था’ की हालत पहले से कमजोर होती जाती है। केन्द्र सरकार ने इनका दर्जा फैसला देने का न बनाकर सलाह देने जैसा ही रखा है और ये विभाग और राज्यों के पर्यावरण मंडल वैसे ही सलाह देते हैं जैसी उनसे उम्मीद की जाती है। एक तो पूरे अधिकार नहीं, जिस पर ठीक काम करने के लिए पैसा न देकर विभागों को इनके जन्म से ही अपंग बनाए रखा गया है।
इसलिए यह विचित्र संयोग नहीं है कि देश में मध्यप्रदेश पहला राज्य है जिसने ‘पर्यावरण नीति’ की विधिवत घोषणा की है और इसी राज्य के कोई सुदूर कोने में नहीं, राजधानी में, ठीक सरकार की नाक के नीचे दुनिया की सबसे भयानक औद्योगिक प्रदूषण की घटना घटी है। जिस ‘ग्यारह सूत्री नीति’ से राज्य के पर्यावरण के काम को मजबूत किया जाना था और इस साल विधानसभा में राज्य के पर्यावरण सरंक्षण संबंधी कार्यों का लेखा-जोखा पेश किया जाना था, भोपाल गैस कांड ने उनकी धज्जियां उड़ा दी हैं।
जब एक कारखाने को मध्यप्रदेश सरकार ‘पत्थर की तरह हटाकर’ कहीं और नहीं रख पाई इसलिए उसकी जहरीली गैस से पूरा शहर सूखे पत्तों की तरह कांपकर उड़ गया। अब सरकार पत्तों को वापस बुलाने के लिए ‘आस्था अभियान’ चला चुकी है। मुख्यमंत्री अर्जुनसिंह ने ‘दोटूक’ घोषणा की है कि भोपाल में दुनिया की भीषणतम गैस कहर ढाने वाले यूनियन कार्बाइड के कारखाने को भोपाल में दोबारा चालू नहीं किया जाएगा। यह पूछे जाने पर की क्या वे इस प्रदेश की किसी और जगह लगाने की अनुमति देंगे, तो मुख्यमंत्री ने केंद्र सरकार के उस बयान की ओर ध्यान खींचा है कि ऐसे सभी कारखानों के बारे में नीति पर पुनर्विचार हो रहा है।
यह बयान प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने गैस कांड के एकदम बाद भोपाल में दिया था। पुनर्विचार में कितना समय लगेगा, कोयला उद्योग की सबसे भयानक दुर्घटना चसनाला के बाद भी ऐसे बयान दिए गए थे। फिर कुछ हुआ? खान मजदूरों के काम के दौरान धोखे का अंदेशा जस-का-तस है। खान दुर्घटनाएं आज भी होती रहती हैं, पर शायद मरने वालों की संख्याएं ज्यादा नहीं होती हैं इसलिए सरकारें हिलती नहीं हैं। लगता है, सरकारों को लोगों और अखबारों की कमजोर याददाश्त पर पूरा भरोसा है।
पुनर्विचार के बयान को आसानी से भुला देने के कई कारण दिख रहे हैं : देश के सामने आम चुनाव खड़े हैं, केन्द्र में नई सरकार कम्प्यूटरी पुलाव की होगी या खिचड़ी की, यह फैसला अभी फिलहाल भोपाल गैस कांड से जीवित बचे मतदाताओं के हाथ से बाहर हो गया है। भोपाल में चुनाव स्थगित हो गए हैं, लेकिन जो भी नई सरकार आए उसे याद दिलाने का काम किसी को याद से करना है। भोपाल में राहत के काम में लगीं नागरिक संस्थाएं ‘भोपाल गैस कांड विरोधी समिति,’ देश में पर्यावरण का काम कर रहे अनेक गैर-सरकारी संगठन, प्रादेशिक या राष्ट्रीय कहलाने वाले अखबार कोई भी इस काम में आगे आ सकते हैं। यह जिम्मेदारी केवल ऐसे कारखानों के बारे में नीति पर पुनर्विचार की याद दिलाने भर की नहीं, उस नीति को सही ढंग से बनाने का दबाव डालने जैसा वातावरण बनाने की भी हैं।
सरकार जितना समय लेगी, इसके बदले अब तो यह तय करना होगा कि लोग इस बारे में सरकार को कितना समय देंगे? दशमलव प्रणाली से प्यार करने वाली सरकार को इस मामले में सौ ज्यादा दिन की छूट किसी भी हालत में नहीं दी जानी चाहिए। इस दौरान ऐसे सभी नागरिक संगठनों, संस्थाओं को पूछना चाहिए कि देश के औद्योगिक और कृषि उत्पादन में इस अमिट जहर की जरूरत है भी या नहीं? यदि है तो कितनी और किस कीमत पर? कारखाना आबादी के पास नहीं लगे का क्या मतलब है? शहर में नहीं तो गांव में लगे? अनबूझ रहस्यों और खतरों के कारखाने राजधानी भोपाल में नहीं तो अबूझमाड़ में लगेंगे? देश में निर्जन इलाके कहां हैं? विकास का लाभ कौन ले और बलि किसकी चढ़े? जैसे सवालों पर खुलकर बात करें। ‘निर्भरता और आत्मनिर्भरता के स्वाद’ को अपनी दाढ में जीभ लगाकर टटोलें, सोचें कि जिस पश्चिमी ढांचे पर निर्भरता टिकी थी, उसी को यहां ज्यों-का-त्यों लाकर आत्मनिर्भर होने में क्या उतना ही फर्क तो नहीं है जितना ‘यूनियन कार्बाइड अमेरिका’ और ‘यूनियन कार्बाइड इंडिया’ में है।बची गैस से बचा भोपाल ऐसे कई सवाल उठाता है। इनका जवाब राजनैतिक नेतृत्व नहीं दे पाएगा। नागरिक नेतृत्व को ही इसमें पहल करनी होगी। नहीं तो अभी बहुत से और भी भोपाल बचे हैं जिनकी तेरहवीं में प्रगति के बम्हन जाते रहेंगे और हमसे लोटा, गमछा लेकर लौटते समय धीरज रखने, सहने और ईश्वर पर भरोसा रखने को कहते रहेंगे। (सप्रेस)
[block rendering halted]