‘भोपाल गैस त्रासदी’ के 38 वें साल में, उसके प्रति सरकारों, सेठों और समाज की बेशर्म अनदेखी के अलावा हमें और क्या दिखाई देता है? 1984 की तीन दिसंबर के बाद पैदा हुई पीढी इसे लेकर क्या सोचती है? क्या उसे अपनी पिछली पीढी के कारनामों पर कोई कोफ्त नहीं होती?
‘भोपाल गैस त्रासदी’ : 38 वां साल
पुराने शहर की तरफ कभी यूँ ही तफरीह के लिए निकलेंगे तो आप एक बड़ा भेद पायेंगे। यह भेद आपको खुली आँखों से नहीं, बल्कि खुले ज़ेहन से देखना होगा। आपको दिखेगा कि भोपाल काफी तरक्की कर चुका है, बड़ी-बड़ी इमारतों की तामीरें हो गई हैं और एक बड़ा वर्ग चैन से अपना जीवन-यापन कर रहा है। वहीँ आप देखने की जगह महसूस करने का इरादा करेंगे, तो यक़ीन मानिए आपकी आत्मा चीख़-चीख़कर आपसे सवाल करेगी कि कुछ तो कमी है और बेहद जटिल कोई मसला है जिसकी छाप और दर्द भोपाल की ज़मीन और क़ौमें अभी तक नहीं भूल पा रहीं।
जब आप इस दर्द की जड़ तक पहुँचेंगे तो दिखेगा कि इस विकासशील भोपाल के दो दर्जन से भी अधिक ऐसे मोहल्ले हैं जो आज भी जस-के-तस हैं। ये बाकी के भोपाल के मुक़ाबिल खड़े होने तक की स्थिति में नहीं हैं। शिक्षा नहीं, रोज़गार नहीं, यतीम बच्चों से भरे कई परिवार, हर आयु-वर्ग में किसी-न-किसी बीमारी का शिकार, जर्जर व लोहे की टीन से बने घर; बाल-विवाह, कुपोषण, हिंसा व शोषण जैसी कई सामाजिक बुराइयों से पीड़ित ये लोग और इनके मोहल्ले इसी ‘स्मार्ट सिटी भोपाल’ का हिस्सा हैं।
आखिर ऐसा क्यूँ है? जब कोई शहर किसी मानव निर्मित आपदा का शिकार होता है तो पीढ़ियाँ उस विनाश को भोगती हैं। ‘भोपाल गैस त्रासदी’ इस तरह की आपदा का एक ज्वलंत उदाहरण है। पूरा भोपाल जानता है कि यह घटना 2-3 दिसंबर 1984 की दर्मियानी रात को हुई थी। जहाँ यह घटना हुई उस कारख़ाने का स्वामित्व बहुराष्ट्रीय कंपनी ‘यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड’ (यूसीआइएल) के पास था। इस कारख़ाने से किसी भी जीवित इंसान के लिए विषैली मानी जाने वाली ‘मिथाइल आइसोसाइनेट’ गैस लीक हो गई थी। आज तक के आधे-अधूरे आंकड़ों के मुताबिक इस रासायनिक गैस से करीब 10,000 लोगों ने उसी रात अपनी ज़िंदगी खो दी और 5.5 लाख लोग इससे शारीरिक और मानसिक रूप से प्रभावित हुए। प्रभावितों में से अधिकांश आज भी शारीरिक क्षति का सामना कर रहे हैं।
ऐसे में, जब हम वापस उन मोहल्लों की ओर लौटेंगे तो पता चलेगा कि ‘भोपाल गैस त्रासदी’ के दुष्प्रभाव शारीरिक क्षति तक सीमित नहीं हैं। उस त्रासदी ने लोगों को आर्थिक और सामाजिक तौर पर भी इतना पीछे कर दिया कि कई सारे समुदाय इससे उबरने का हौसला तक न कर सके और उनकी स्थितियां आज हमारे सामने हैं। यह तो स्पष्ट है कि उनके ज़ख्मों पर मरहम आज तक न लग सका, बल्कि तब से अब तक के दौर में उनके ज़ख्म नासूर बनते चले गए।
किसी आंकड़े का हवाला दिए बिना भी यदि स्वयं के स्तर पर विश्लेषण किया जाए तो हमें किसी भी शिक्षण संस्थान में उन दर्जनों मोहल्लों से किशोर व युवा या तो मिलेंगे ही नहीं या फिर होंगे भी तो गिनती की संख्या में ! स्कूलों तक ये वर्ग अपने बच्चों को पहुँचा ही नहीं पाता या कुछ पहुँचेंगे भी तो उनकी ड्रॉपआउट संख्या अधिक होगी। कभी शहर के ‘कबाड़खाना’ या ‘मॉडल ग्राउंड’ इलाके में जाना हो तो वहाँ की दुकानों में काम कर रहे किसी भी बच्चे से यूं ही पूछकर देखिए, हरेक बाल-मज़दूर ‘गैस त्रासदी’ से प्रभावित मोहल्ले या परिवार से होगा। यह बात समझ के बाहर है कि इन स्थितियों पर कोई सरकारी या गैर-सरकारी संस्था अध्ययन क्यूँ नहीं करतीं?
भोपाल एक नहीं, दो त्रासदियों से दहला; एक, जो तुरंत घटित हुई थी और दूसरी, जो उसके बरसों बाद, आज तक सामने आती रहती है। तुरंत की समस्या भी हमारी सरकारों की नाकामी को ही दर्शाती है; किसी को भी ‘विष’ और उसके ‘प्रति-विष’ के बारे में अधिक जानकारी नहीं थी। दुर्घटना के कुछ हफ़्तों के भीतर कई लोगों ने दावा किया कि बुरा समय समाप्त हो गया है और लोग अब सिर्फ गरीबी के कारण उत्पन्न आम बीमारियों, जैसे – तपेदिक और एनीमिया आदि से पीड़ित हैं। लेकिन लम्बे समय तक कोई नहीं जानता था कि ‘मिथाइल आइसोसाइनेट गैस’ का स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव पड़ता है और गैस के संपर्क में आने वाले मरीज़ों का इलाज कैसे किया जाता है। घर के किसी बुज़ुर्ग गैस पीड़ित व्यक्ति से पूछेंगे तो पता चलेगा कि इलाज के लिए उस समय कितनी त्राहि-त्राहि मची थी।
स्वास्थ्य समस्याओं का बोझ दो और चरणों में अधिक बढ़ा – एक, आपदा के बाद पैदा हुए बच्चे इसके शिकार होते गए क्योंकि घातक गैस के संपर्क में आने के दौरान वे अपनी माँ के गर्भ में थे; दो, रासायनिक अपशिष्ट ‘यूसीआइएल’ कारख़ाने के परिसर में और उसके आसपास बिखरे पड़े रहे, जिसके कारण पीने का पानी भी दूषित हुआ। यदि सरकार को रसायन और उसके इलाज की जानकारी होती तो ये सब संभाला जा सकता था, लेकिन 2014 तक में, दिल्ली के ‘भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद्’ (आईसीएमआर) ने कुछ कहा भी तो यह कि, “भोपाल गैस रोग का सटीक कारक अज्ञात है।” क्यूँ?
यदि सरकारों द्वारा गंभीरता से अध्ययन किये जाते तो निश्चित ही स्थितियां बेहतर हो सकती थीं और दीर्घकालिक प्रभावों पर अंकुश लगाया जा सकता था। पर्यावरण पर सक्रिय संस्था ‘सेंटर फॉर साइंस एण्ड इन्वायरनमेंट’ (सीएसई) की पत्रिका ‘डॉउन टू अर्थ’ के एक लेख के अनुसार, इसकी ज़िम्मेदारी ‘आईसीएमआर’ को दी गई थी और 24 के आसपास अध्ययन भी हुए थे, जिनसे पता चला था कि गैस पीड़ितों में फेफड़ों और आँखों सम्बंधित कई बीमारियाँ हैं, लेकिन ये अध्ययन 1994 में ही बंद कर दिए गए। सारा अनुसंधान कार्य अंत में मध्यप्रदेश सरकार के ‘पुनर्वास अध्ययन केंद्र’ के माथे छोड़ दिया गया जिससे कुछ ख़ास नतीजे निकलकर नहीं आये। इस बीच, कुछ स्वतंत्र अध्ययन भी हुए जिसमें कैंसर और मानसिक समस्याओं से लेकर जन्म-दोष तक की ओर इशारा किया गया था, लेकिन चूंकि कोई ‘महामारी विज्ञान’ का अध्ययन नहीं था, इसीलिए इन्हें गरीबी और स्वच्छता की कमी के कारण होने वाली बीमारियाँ कहते हुए ख़ारिज करना आसान रहा।
मध्यप्रदेश में पूरा एक सरकारी विभाग गैस त्रासदी के मसलों से निपटने और पीड़ितों को पुनर्वास दिलाने के उद्देश्य से बना है; इस विभाग की ज़िम्मेदारी भी हमेशा एक वरिष्ठ जन-प्रतिनिधि के पास ही रही है। इसके बावजूद त्रासदी के समय मौजूद चुनिन्दा अस्पतालों से कई बड़े अस्पतालों तक का सफ़र भोपाल ने तय तो किया, लेकिन सुविधाओं के मामले में हमेशा निष्क्रियता ही देखने को मिली। हालात यह हैं कि राज्य सरकार की राहत एवं पुनर्वास योजना के अंतर्गत आने वाले 6 अस्पतालों में आज भी केवल 664 मरीज़ों के लिए ही बेड्स की उपलब्धता है, जबकि पीड़ितों की संख्या लाखों में है।
भोपाल गैस पीड़ितों के लिए करोंद स्थित ‘भोपाल मेमोरियल अस्पताल एवं अनुसंधान केंद्र’ (बीएमएचआरसी) का शहर भर में अन्य 8 इकाइयों के साथ मौजूद होना राहत का विषय है; परन्तु इस अस्पताल के उस स्वरुप में बचे रहने की सम्भावना भी कम नज़र आती है जिस इरादे से यह अस्तित्व में आया था। अस्पताल लोगों की पहुँच से अब तक कहीं-न-कहीं दूर है। इसे समय के साथ-साथ सुसज्जित और विकसित होना था, मगर इसका विकास ठहर सा गया है। इसे बचाने की कई लड़ाईयां लड़ी गयीं, ये बचा भी पर बढ़ा नहीं।
मैंने स्वयं अपने परिवार में अपने पापा से लेकर बड़े पापा तक के चेहरों पर गड्ढों के निशान देखे हैं, मेरी बड़ी माँ ने गर्भ में ही अपनी औलाद खोयी, जो पैदा तो हुई थी मगर वह नन्ही जान मृत थी। ये सभी निशान उस दर्दनाक त्रासदी की ही देन हैं। हम युवा जब भी ‘भोपाल गैस त्रासदी’ से जुड़ी स्मृतियों को खंगालने का प्रयास करते हैं और पीड़ितों से उनका अनुभव जानने की मंशा से उनसे बात करते हैं तो हमें हरेक की आँखों में खौफ़, दहशत और यातना के सिवा कुछ नज़र नहीं आता। सब ठीक हो गया था या हो जाएगा जैसी कोई उम्मीद भी नहीं दिखती। उनके बहते आँसुओं को देख लगता है कि मानो सीधे खून की धारा बह रही हो, जिसे सदियों तक कोई रोक न सकेगा। हम शायद इस सन्दर्भ में ज़्यादा कुछ न कर सकें, लेकिन सिर्फ़ अपने शहर के साथ हुए अन्याय को याद रखने की एक ईमानदार कोशिश भी कर पाए तो काफी होगा। यही एक ज़िम्मेदार नागरिक और सच्चे इंसान होने की निशानी है। (सप्रेस)
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