तीस जनवरी को केरल में पहले मरीज की पहचान होने के बाद कोरोना वायरस से फैली कोविड-19 बीमारी को अब तक लंबा वक्त और अनुभव गुजर गए हैं। करीब साढे सात महीने के दुखद दौर के बाद भी कई लोग इसे महामारी तो दूर, सामान्य बीमारी तक मानने से इंकार कर रहे हैं।
देश-दुनिया में कोरोना से पीड़ितों की संख्या के आंकड़े लगातार बढ़ रहे हैं और कई विशेषज्ञों के अनुसार कोरोना से पीड़ितों की संख्या वास्तव में इससे काफी अधिक है। दूसरी ओर कई लोग यह भी मानते हैं कि ये आंकड़े झूठे हैं, कि एक साजिश के तहत कोरोना के पीड़ितों की संख्या को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया जा रहा है। यह पूछने पर कि ये बीमारी तो पूरे विश्व में फ़ैली है, क्या पूरी दुनिया की सरकारें झूठ बोल रही हैं, तो पट से जवाब आया कि “आप नहीं जानते, ये साजिश करने वाली कम्पनियां कितनी खतरनाक हैं और पूरी दुनिया की सरकारें आज कम्पनियों के शिकंजें में ही तो हैं।”
मैंने फिर कहा कि हमारे-आप के अड़ौस-पड़ौस में जो लोग बीमार हैं और मर रहे हैं, क्या वह भी झूठ है, तो जवाब था कि “सब पैसे का खेल है। लूटने की साजिश है। वरना दो दिन पहले संक्रमित पाया गया व्यक्ति दो दिन बाद कैसे ठीक हो जाता है। जहाँ तक मरने की बात है, व्यक्ति किसी भी बीमारी से मरे, अब उसे कोरोना के खाते में जोड़ दिया जाता है। कोरोना तो मौसमी सर्दी-ज़ुकाम जैसी बीमारी है, पर इसके चक्कर में साजिशन अर्थव्यवस्था और आम आदमी को तबाह करके रख दिया है।” मैंने कहा कि मौसमी सर्दी-ज़ुकाम से तो कोई मरता नहीं सुना और यहाँ इंग्लैंड का प्रधानमंत्री मरते-मरते बचा है, अमित शाह को कितने दिन अस्पताल में रहना पड़ा है और उत्तरप्रदेश में तो कई मंत्री मर भी गए हैं, तत्काल जवाब आया कि “जब अमित शाह और अमिताभ बच्चन जैसे लोग, जिनके पास बचाव की हर तरह की सुविधा है, जब वो इसकी चपेट में आने से नहीं बच पाए, तो फिर हम किस खेत की मूली हैं।” उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि अहतियात बरतने से कोरोना के ‘आईसीयू’ में काम करने वाले स्वास्थ्य-कर्मी भी कोरोना से बच जाते हैं। इस तरह के कई और तर्क भी दिए गए, मसलन-यूरोप के लिए ये बीमारी बेशक घातक रही हो, पर भारत में तो इससे बहुत कम मौतें हो रही हैं आदि।
जब कोरोना को झूठ-मूठ खड़ा किया हुआ हउआ ही माना जाता हो, तो सावधानी बरतने की तो कोई संभावना ही नहीं है। चालान से बचने के लिए एक परत का एक मास्क मुंह पर बांध लिया जाता है, पर आम तौर पर नाक इससे बाहर ही रहती है। यह सही है कि लगभग 80% मामलों में कोरोना मौसमी सर्दी-ज़ुकाम सरीखा ही है, पर शेष 20% मामलों का क्या? ये भी ठीक है कि कोरोना के अलावा भी बीमारियाँ हैं जिनसे हर साल लाखों लोग मरते हैं, पर वो बीमारियाँ तो पहले से हैं और कोरोना से होने वाली मौतें, बीमारियाँ तो उनके अलावा हैं। ये ठीक है कि कोई भी जांच 100% सही नहीं होती, पर सरकारें तो आमतौर पर कटु सच्चाई को दबाती हैं न कि बढ़ा-चढ़ा कर कहती हैं। विशेष तौर पर अब, जब तालाबंदी खुल चुकी है और अर्थव्यवस्था को बहाल करने का दबाव भी है, तो फिर सरकार क्यों कोरोना के मामलों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करेगी? और दूसरी ओर कोरोना के बीच परीक्षा कराकर लोगों को नाराज़ करेगी?
ये मान सकते हैं कि कोरोना की जांच एवं इलाज में लगी कम्पनियों को कोरोना को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करने का लालच हो सकता है, पर हवाई यात्रा, होटल, सिनेमा उद्योग जैसे क्षेत्रों में दुनिया की कितनी बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियां लगी हैं जो कोरोना के ‘तथा कथित हउए’ के चलते बंद होने की कगार पर हैं। वे इस झूठी साजिश का पर्दाफाश क्यों नहीं करतीं? आम आदमी के पास भले ही ऐसा करने के संसाधन न हों, पर इन कम्पनियों के पास तो इस साजिश का भांडा फोड़ने के पर्याप्त साधन होंगे। हाँ, यह भी हो सकता है कि हाल में कोरोना के मामलों में हुई वृद्धि जाँच में आई तेज़ी का परिणाम हों, पर इससे यह तो साबित नहीं होता कि कोरोना झूठा हउआ है।
यह भी सही है कि न केवल भारत, अपितु एशिया के अनेकों देशों में कोरोना से यूरोप और अमरीका के मुकाबले कम अनुपात में मौतें हुई हैं, पर यूरोप से कम घातक होने में और कोरोना के घातक न होने में तो दिन-रात का फर्क है। वास्तव में विस्तार से चर्चा करने पर अंत में पता चलता है कि ये लोग सरकार की कोरोना नियंत्रित करने की नीति से परेशान हैं। यकायक, बिना पूर्व तैयारी के तालाबंदी निश्चित तौर पर गलत थी और इसलिए तालाबंदी से पर्याप्त लाभ भी नहीं हुआ, पर सरकारी नीति की कमियों के चलते यह कहना कि कोरोना झूठ-मूठ का हउआ है, गलत है। निम्नलिखित तथ्यों का घालमेल नहीं होना चाहिए: कि सरकार की कोरोना नीति सही नहीं है, कि कोरोना सब मामलों में घातक नहीं है, बल्कि कई मामलों में साधारण ज़ुकाम सरीखा है, कि कोरोना भारत में उतना घातक नहीं है जितना यूरोप और अमरीका में या कि कोरोना के बारे में अलग-अलग विशेषज्ञ अलग-अलग बातें कह रहे हैं, कि कोरोना के वायरस को जानबूझ कर छोड़ा गया है इत्यादि। इन बातों का घालमेल इसलिए नहीं होना चाहिए क्योंकि इनके निहितार्थ अलग-अलग हैं।
निश्चित तौर पर कोरोना एक झूठ-मूठ का हउआ नहीं है। सावधानी न बरती गई, तो ऐसा भी समय आ सकता है, और दिल्ली व मुंबई में आया भी था, कि जब अस्पताल में दाखिले के लिए बिस्तर ही न मिलें। इसलिए अपनी एवं दूसरों की सुरक्षा के लिए हमें पर्याप्त सावधानी बरतनी ही चाहिए। ठीक तरीके के मास्क – जो कम-से-कम तीन परत का हो, जिसके आर-पार बल्ब का प्रकाश न आ सके और जो मुंह और नाक को पूरी तरह ढकता हो, को ठीक तरीके से पहनना और उतारना ज़रूरी है।
कई बार खाने-पीने के लिए मास्क उतार कर फिर पहनते हैं तो यह ध्यान रहे कि अन्दर और बाहर की दिशा बदल न जाए वरना मास्क पहनने से फायदे की बजाय नुकसान हो जाएगा। दुपट्टे या अंगोछे से चेहरा ढकने से अन्दर-बाहर की दिशा का अंतर करना संभव नहीं होता इसलिए ऐसा करने के बजाए मास्क का ही प्रयोग करें। मास्क के बाहर वाले हिस्से को छूने से बचें। उतारे हुए मास्क को ऐसे ही जेब में न डाल लें या इधर-उधर रख दें। केवल लोक-दिखावे के लिए सेनिटाईज़र की एक बूँद मात्र का प्रयोग न करके हाथ को अच्छे से साफ़ करें। जहाँ तक संभव है, भीड़-भाड वाली जगह और अनजान लोगों के नज़दीकी संपर्क में आने से बचना चाहिए। कोरोना से निपटने में सरकारी नीति की आलोचना अपनी जगह है और वह ज़रूर की जानी चाहिए, पर इसके चलते कोरोना के खतरे को नज़रंदाज़ नहीं करना चाहिए।(सप्रेस)
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