यह जानना विचित्र और बेहद दुखद है कि मधुमेह diabetes की बीमारी अब बच्चों को भी विस्तार से अपनी गिरफ्त में ले चुकी है। पहले इस बीमारी को अमीरों, उम्रदराजों और खाए-अघाए लोगों की आफत माना जाता था,लेकिन आंकड़े बताते हैं कि अब यह छोटे–छोटे और बेहद गरीब बच्चों में भी पैठ चुकी है। आखिर इस विडंबना की वजह क्या है?
मध्यप्रदेश में विदिशा जिले के निजी विद्यालय की कक्षा 5 में पढ़ने वाली 9 बरस की रिंकी (परिवर्तित नाम) टाइप1 डायबिटीज़ से पीड़ित है। वह आज से 3-4 बरस पहले diabetes डायबिटीज़ की चपेट में आई। कैसे, यह कोई नहीं जानता। अब रिंकी और उसके परिवार का हर सदस्य बस इतना जानता है कि रिंकी को दिन में 3-4 बार खून में ग्लूकोज का स्तर जांचना है और जरुरत के मुताबिक़ दो/तीन बार इन्सुलिन लेना है। परहेज से तो अब उसका चोली-दामन का साथ हो गया है।
हालाँकि रिंकी यह नहीं जानती कि कैसे इस बीमारी ने उसे जकड़ा। इसी तरह उसके मज़दूर पिता और गृहिणी माँ को केवल इतना पता है कि उसे शक्कर की बीमारी हो गई है? कैसे हो गई, कब हो गई, उन्हें भी कुछ नहीं पता। आमतौर पर डायबिटीज़ को अमीरों या ख़राब जीवनशैली की बीमारी माना जाता रहा है, लेकिन अब यह बीमारी मजदूर वर्गों तक भी आसानी से पहुँच रही है। रिंकी के पिता बताते हैं कि वे एक बार रिंकी को अस्पताल ले गए थे और वहां पर बताया गया था कि उनकी बेटी को शक्कर की बीमारी है। वे कहते हैं कि हम दोनों को तो यह बीमारी नहीं है और हमारे परिवार का इतिहास हमें पता नहीं। रिंकी के 5 भाई-बहनों में भी अभी केवल रिंकी इस बीमारी की चपेट में है।
भारत इस समय बच्चों में डायबिटीज़ बीमारी के चिंताजनक दौर से गुजर रहा है। ‘इंटरनेशनल डायबिटीज फेडरेशन’ (आईडीएफ) के ‘डायबिटीज एटलस 2021’ के आंकड़ों के अनुसार, भारत में ‘टाइप1 डायबिटीज मेलिटस’ (टीआईडीएम) से पीड़ित बच्चों और किशोरों की संख्या दुनिया में सबसे ज्यादा है, जिसमें 24 लाख से अधिक बच्चे और किशोर (आयु वर्ग 0-19 वर्ष) तो केवल दक्षिण-पूर्व एशिया में ही हैं। टाइप1 डायबिटीज से पीड़ित दुनिया का हर पांचवा बच्चा या किशोर भारतीय है। भारत में हर दिन 65 बच्चे या किशोर टाइप1 डायबिटीज की चपेट में आ रहे हैं। ये कुछ आंकड़े हैं, जो बताते हैं कि भारत में टाइप 1 डायबिटीज कितनी बड़ी समस्या बनती जा रही है। टीआईडी सूचकांक ने अनुमान लगाया है कि अकेले भारत में 8.75 लाख बच्चे और किशोर टीआईडी से पीड़ित हैं और मध्यप्रदेश में रिंकी की तरह ही करीब 32,000 बच्चे डायबिटीज के शिकार हैं।
टाइप1 डायबिटीज़, बच्चों में सबसे आम है, जो सभी जातीय समूहों के बच्चों में दो तिहाई नए मामलों के लिए जिम्मेदार है। यह 18 वर्ष की आयु तक 350 बच्चों में से एक को होती रही है; लेकिन अब इस घटना के प्रमाण बढे हैं, खासकर 5 साल से कम उम्र के बच्चों में। हालाँकि टाइप 1 डायबिटीज़ किसी भी उम्र में हो सकती है, लेकिन आम तौर पर 4 साल से 6 साल की उम्र के बीच या 10 साल से 14 साल के बीच इसकी आशंका ज्यादा होती है। रिंकी भी जब इस बीमारी से ग्रसित हुई तब उसकी उम्र 4-5 साल के आसपास रही होगी।
यह विचित्र है कि मध्यप्रदेश में बच्चों में डायबिटीज़ के मामले आदिवासी क्षेत्रों से ही सामने आ रहे हैं। हालाँकि मध्यप्रदेश विशेष रूप से कमजोर आदिवासी समूहों (पीवीटीजी), बैगा, भारिया और सहरिया की धरती है जो कि अभी भी पारम्परिक खाद्यान्न और जीवन जीने के लिए पारम्परिक तौर-तरीकों का ही उपयोग करते हैं। वैसे तो मध्यप्रदेश में आदिवासी समुदाय और उनके बच्चों में डायबिटीज़ पर कोई विशिष्ट अध्ययन नहीं हुआ है, लेकिन आदिवासी स्वास्थ्य पर ‘अटल बिहारी नीति विश्लेषण एवं सुशासन संस्थान’ की रिपोर्ट बताती है कि पिछले दो दशकों में यह प्रमाण ज्यादा मात्रा में मिलना शुरू हुए हैं।
जिस परिस्थिति से रिंकी गुजरती रही है वह है उसके स्तर की जानकारी का अभाव। मानक देखभाल की अनुपस्थिति या व्यवधान उनके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करता है और घातक भी हो सकता है। टीआईडीएम के साथ रहने वाले बच्चों और किशोरों को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जो अपर्याप्त देखभाल और चिकित्सा सुविधाओं के कारण और भी बदतर हो जाती हैं। रिंकी कहती है कि स्कूल में सब बच्चे, सब कुछ, बहुत कुछ खाते हैं, लेकिन वह सब कुछ नहीं खा सकती। रिंकी को तो बहुत दिन यही समझने में लग गये हैं कि उसे ऐसा क्या हो गया है, जो उसे दूसरों से अलग कर देता है?
रिंकी जैसे बच्चों की परेशानियों को ध्यान में रखते हुए ही ‘राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग’ ने मार्च 2023 में ही राज्यों को एक पत्र लिखकर कहा कि चूंकि बच्चे दिन का एक तिहाई हिस्सा स्कूल में बिताते हैं, इसलिए यह सुनिश्चित करना स्कूलों का कर्तव्य है कि टीआईडीएम वाले बच्चों को उचित देखभाल और आवश्यक सुविधाएं प्रदान की जाएं। आयोग ने कहा कि राज्य सरकारें यह सुनिश्चित करें कि टाइप 1 डायबिटीज़ वाले बच्चे को स्कूल में चिकित्सक की सलाह पर रक्त शर्करा की जाँच करने, इंसुलिन का इंजेक्शन लगाने, मध्यान्ह भोजन या नाश्ता करने या अन्य देखभाल करने की आवश्यकता हो सकती है और कक्षा शिक्षक द्वारा ऐसा करने की अनुमति दी जानी चाहिए। आयोग ने यह भी लिखा कि बच्चा चिकित्सक की सलाह के अनुसार खेलों में भाग ले सकता है।
पर मध्यप्रदेश में रिंकी अभी तक तो इन सभी सुविधाओं से वंचित है, क्योंकि अभी तक राज्य सरकार ने इस मामले में कोई भी ठोस पहल नहीं की है। आयोग के पत्र का राज्य सरकार ने अपनी ओर से जवाब बनाकर अवश्य भेज दिया है, जिसमें जिलेवार संख्या बताई गई है। एनसीडी प्रोग्राम की प्रभारी डिप्टी डायरेक्टर डॉ.नमिता नीलकंठ ने बताया कि स्वास्थ्य विभाग ने अभी तक तो इस संबंध में स्कूल शिक्षा विभाग को कोई भी आधिकारिक पत्र नहीं लिखा है। ऐसे में रिंकी जिस स्कूल में पढ़ती हैं वहां उसको और उस जैसे बच्चों को ये सुविधायें मिलने में अभी और वक्त लगेगा। हालाँकि उत्तरप्रदेश सरकार ने हाल ही में इस तरह के आदेश कर दिए हैं।
मध्यप्रदेश सरकार को बच्चों की डायबिटीज़ के मामले में पृथक नीतिगत पहल करने की आवश्यकता है। मध्यप्रदेश की मौजूदा स्वास्थ्य नीति, जो कि अभी भी प्रारूप ही है, में भी डायबिटीज़ अभी कोई ख़ास स्थान नहीं ले पाई है। केवल एक जगह इसका संदर्भ मिलता है। ऐसे में बच्चों की डायबिटीज़ पर सरकार की दृष्टि कब पड़ेगी, यह देखना काबिल-ए-गौर है। यह चुनावी साल है और ऐसे में मध्यप्रदेश में शिवराज सरकार चाहे तो बच्चों के स्वास्थ्य के नज़रिए से महत्त्वपूर्ण इस विषय पर संज्ञान ले सकती है। नहीं तो रिंकी और उसकी तरह हजारों बच्चे, जो कि पहले से ही डायबिटीज़ से पीड़ित हैं, सरकारी अवहेलना से भी पीड़ित नज़र आयेंगे। (सप्रेस) (यह लेख ‘रीच फेलोशिप’ के तहत लिखा है।)
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