गांधी के लिए आजादी का मतलब सर्वांगीण बदलाव था। इस मान्यता की एक बानगी महाराष्ट्र में पुणे के पास उरली-कांचन में उनके द्वारा बहुत जतन से स्थापित प्राकृतिक चिकित्सा केन्द्र है जहां अनेक कष्ट-साध्य बीमारियों का खुद महात्मा गांधी की देख-रेख में इलाज किया गया था।
नारायण भाई भट्टाचार्य
महात्मा गाँधी उन महत्वपूर्ण हस्तियों में से एक थे, जिन्हें प्राकृतिक चिकित्सा का भी बहुत गहरा ज्ञान था। उन्होंने बड़े पैमाने पर मानव स्वास्थ्य, रोगों और उनके इलाज पर लिखा है और अपने प्राकृतिक चिकित्सा के ज्ञान का प्रयोग भी किया है। गाँधी जी का विचार था कि जिसके पास स्वस्थ्य शरीर, स्वस्थ्य दिमाग और स्वस्थ्य भावनाएं होती हैं, वही व्यक्ति स्वस्थ्य होता है। वे मानते थे कि स्वस्थ्य रहने के लिए केवल शारीरिक शक्ति आवश्यक नहीं है, एक स्वस्थ्य व्यक्ति को अपने शरीर के बारे में पर्याप्त जानकारी होनी चाहिए।
गाँधी जी ने मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण के बीच के संबंधों को समझाया। उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में जबसे डॉक्टर लुई कुनै की पुस्तक ‘न्यू साइंस ऑफ हीलिंग’ और एडॉल्फ जस्ट की पुस्तक ‘रिटर्न टू नेचर’ का अध्ययन किया, वे प्राकृतिक चिकित्सा के समर्पित हिमायती बन गए। डॉक्टर लुई कुनै ने प्राकृतिक उपचार पर जो कुछ लिखा है, उससे महात्मा गांधी बहुत अधिक प्रभावित हुए थे।
अगर हम अपनी खाने-पीने की आदतों में संयम का पालन नहीं करते या हमारा मन आवेश या चिंता से क्षुब्ध हो जाता है तो हमारा शरीर अंदर की सारी गंदगी को बाहर नहीं निकाल पाता और शरीर के जिस भाग में गंदगी बनी रहती है, उसमें अनेक प्रकार के जहर पैदा होते हैं। यह जहर ही उन लक्षणों को जन्म देते हैं जिन्हें हम रोग कहते हैं। वास्तव में रोग शरीर का अपने भीतर के जहर से मुक्त होने का प्रयत्न ही है। अगर उपवास करके एनिमिया द्वारा आंतें साफ करके कटि स्नान, घर्षण स्नान आदि विविध स्नान करके और शरीर के विभिन्न अंगों की मालिश करके भीतर के जहर से मुक्त होने की इस प्रक्रिया में हम अपने शरीर की सहायता करें तो वह फिर से पूर्ण स्वस्थ हो सकता है।
‘कुदरती उपचार’ पुस्तक के संपादक भारतन कुमारप्पा के मुताबिक गांधी जी चाहते थे कि आहार के संबंध में मनुष्य प्रकृति के नियमों का पालन करे, शुद्ध और ताजी हवा का सेवन करे, नियमित कसरत करे, स्वच्छ वातावरण में रहे और अपना हृदय शुद्ध रखे। लेकिन आज ऐसा करने की बजाय मनुष्य को आधुनिक चिकित्सा पद्धति के कारण जी भरकर विषय भोग में लीन रहने का, स्वास्थ्य और सदाचार का हर नियम तोड़ने का और उसके बाद केवल व्यापार के लिए तैयार की जाने वाली दवाइयों के जरिए शरीर का इलाज करने का प्रलोभन मिलता है।
आज की चिकित्सा पद्धति रोग को केवल शरीर से संबंध रखने वाली चीज मानकर उसका उपचार करना चाहती है, लेकिन गांधी जी तो मनुष्य को उसके संपूर्ण और समग्र रूप में देखते थे। वे अनुभव से ऐसा मानते थे कि शरीर की बीमारी खासतौर से मानसिक या आध्यात्मिक कारणों से होती है और इसका स्थाई उपचार केवल तभी हो सकता है जब जीवन के प्रति मनुष्य का संपूर्ण दृष्टिकोण ही बदल जाए। उनकी राय में शरीर के रोगों का उपचार खासतौर से आत्मा के क्षेत्र में, ब्रह्मचर्य द्वारा सिद्ध होने वाले आत्म-संयम और स्वास्थ्य के विषय में प्रकृति के नियमों के पालन में और स्वस्थ्य शरीर व मन के लिए अनुकूल भौतिक और सामाजिक वातावरण निर्माण करने में खोजा जाना चाहिए।
प्राकृतिक चिकित्सा की गांधी जी की कल्पना उस अर्थ से कहीं अधिक व्यापक है, जो आज उस शब्द से आमतौर पर समझा जाता है। प्राकृतिक चिकित्सा रोग के हो जाने के बाद केवल उसे मिटाने की पद्धति नहीं है, बल्कि प्रकृति के नियमों के अनुसार जीवन बिताकर रोग को पूरी तरह रोकने की कोशिश है। गांधी जी मानते थे कि प्रकृति के नियम वही हैं, जो ईश्वर के नियम हैं। इस दृष्टि से रोग के प्राकृतिक उपचार में केवल मिट्टी, पानी, हवा, धूप, उपवासों और ऐसी दूसरी वस्तुओं के उपयोग का ही समावेश नहीं होता, बल्कि इससे भी अधिक उसमें शारीरिक, मानसिक, नैतिक और सामाजिक जीवन को बदल डालने की बात आती है।
प्राकृतिक चिकित्सा करने वाला चिकित्सक रोगी को उसके लिए कोई जड़ी-बूटी नहीं बेचता। वह तो अपने रोगी को जीवन जीने का ऐसा तरीका सिखाता है जिससे रोगी अपने घर में रहकर अच्छी तरह जीवन बिता सके और कभी बीमार ही नहीं पड़े। प्राकृतिक चिकित्सक रोगी की खास तरह की बीमारी को खत्म करके ही संतुष्ट नहीं हो जाता। आम डॉक्टरों में ज्यादातर की इतनी ही दिलचस्पी रहती है कि वह रोगियों के रोग को और उसके लक्षणों को समझ ले और उसका इलाज खोज निकाले और इस तरह सिर्फ रोग संबंधी बातों का ही अभ्यास करें। दूसरी तरफ, प्राकृतिक चिकित्सा करने वाले को तंदुरुस्ती के नियमों का अभ्यास करने में ज्यादा दिलचस्पी होती है।
प्राकृतिक चिकित्सा बेहतर जीवन जीने की एक पद्धति है, रोग मिटाने की पद्धति नहीं। ‘गांधी स्मारक प्राकृतिक चिकित्सा समिति’ के राष्ट्रीय अध्यक्ष और वर्षों से प्राकृतिक चिकित्सा के क्षेत्र को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर व्यापक बनाने में निरंतर सक्रिय लक्ष्मी दास जी कहते हैं कि महात्मा गांधी के पहले भी प्राकृतिक चिकित्सा का कार्य होता था। इस पद्धति के उपयोग का इतिहास बहुत पुराना है, लेकिन यह हकीकत है कि गांधी जी ने इस पद्धति को सरल और सर्वग्राही बनाने में अपना बहुमूल्य योगदान दिया। प्राकृतिक चिकित्सा की इसी खासियत को देखते हुए गांधी जी को लगा कि प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति का हर एक व्यक्ति सहज इस्तेमाल कर सकता है इसलिए उन्होंने माना कि ‘अपने डॉक्टर आप बनो।’
अन्य किसी भी चिकित्सा पद्धति में विश्वास रखने वाला व्यक्ति यह कदापि नहीं कह सकता कि आप खुद अपने डॉक्टर बनो, लेकिन गांधी जी यह कह सके। उन्हें प्राकृतिक चिकित्सा पर इतना भरोसा था कि प्राकृतिक जीवन पद्धति से जीवन जीने वाला व्यक्ति या तो कभी बीमार नहीं होगा, अगर किसी कारण से बीमार हो भी गया तो पांच तत्व – मिट्टी, पानी, हवा, अग्नि और आकाश के सही इस्तेमाल से वह फिर से अवश्य ठीक हो जाएगा। गांधी जी का प्राकृतिक चिकित्सा में यह विश्वास किन्हीं दूसरों पर किए गए प्रयोगों से या किसी बड़ी अनुसंधानशाला में किए गए प्रयोगों से नहीं बल्कि स्वयं द्वारा अपने ऊपर, अपनी पत्नी और बच्चों पर किए गए सफल उपचार के कारण हुआ था।
महात्मा गांधी ने महारोग से पीड़ित परचुरे शास्त्री की सेवा-सुश्रुषा स्वयं अपने हाथों से की। सरहदी गांधी अब्दुल गफ्फार खान के मलेरिया रोग का इलाज किया। विनोबा भावे के छोटे भाई बालकोवा भावे के पुराने क्षय रोग को भी ठीक किया। बौद्ध धर्म के पंडित धर्मचंद कौशांबी जब अपने जीर्ण और जर्जर शरीर को उपवासों द्वारा छोड़ने पर उतारू हो गए तब गांधी जी ने उनको रोका और उनकी सेवा-सुश्रुषा की। इसी तरह उन्होंने घनश्याम दास बिरला, जमनालाल बजाज, कमलनयन बजाज, दमा के रोगी आचार्य नरेंद्र देव और सरदार पटेल आदि के बीमार पड़ने पर प्राकृतिक चिकित्सा की।
गांधी जी ने महाराष्ट्र में पुणे के पास उरली काँचन में यह सोचकर प्राकृतिक चिकित्सा केंद्र खोला कि गरीब लोग महंगी दवाई नहीं ले सकते और महंगे इलाज नहीं करवा सकते। इस केंद्र की स्थापना के पीछे एक कारण यह भी था कि गांधी जी ऐसा मानते थे कि स्वास्थ्य और आरोग्य विज्ञान के बारे में उन्होंने जीवन भर जो प्रयोग किए हैं, उनका लाभ देश के गरीब लोगों को मिले। इसके लिए उन्होंने 23 मार्च 1946 में उरली काँचन में प्राकृतिक चिकित्सा केंद्र की शुरुआत की। उन्होंने डॉक्टर मेहता, बालकोवा भावे, मणि भाई देसाई, डॉक्टर सुशीला नायर और अन्य शिष्यों की मदद से सैकड़ों रोगियों का उपचार किया।
महात्मा गांधी ने 1 अप्रैल 1940 को महादेव तात्याबा कांचन जैसे स्थानीय लोगों द्वारा दी गई भूमि की मदद से ‘निसर्ग उपचार ग्राम सुधार ट्रस्ट’ की स्थापना की। मणि भाई के प्रबंधन के तहत टीम ने अच्छे स्वास्थ्य और स्वच्छ तरीकों का प्रचार किया और ग्रामीण क्षेत्रों में विभिन्न समस्याओं का अध्ययन किया। आश्रम में प्राकृतिक उपचार के गांधी जी द्वारा जारी दिशा-निर्देशों का पालन किया गया। पिछले 75 सालों में इस आश्रम में उल्लेखनीय प्रगति की है, जीवन जीने के तरीके के क्षेत्र में अनूठा उदाहरण स्थापित किया है। देश-विदेश के लोग यहां आते हैं और पुरानी बीमारियों के प्रबंधन के लिए बगैर दवा, समग्र दृष्टिकोण से अवगत होते हैं। (सप्रेस)
श्री नारायण भाई भट्टाचार्य ‘गांधी स्मारक प्राकृतिक चिकित्सा समिति’ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और ‘महात्मा गांधी प्राकृतिक जीवन विद्यापीठ, सेवाग्राम’ के अध्यक्ष हैं।