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स्वस्थ्य रहने के लिए कई ऐसी बातें हैं जिन्हें हम जानते-पहचानते हैं, लेकिन लापरवाही, अज्ञान और जीवन-पद्धति के कारण उन्हें वापरने से परहेज करते हैं। हमारी इस अनदेखी के बावजूद जरूरी है कि इन बातों की बार-बार याद दिलाई जाती रहे।

बहुत से विकसित देश ऐसे हैं, जहां नागरिकों को स्वास्थ्य की गारंटी है। नागरिक यदि बीमार होता है तो उसका इलाज वहां की सरकार की जिम्मेदारी होती है। भारत में ऐसी सुविधा नहीं है। भारत की केंद्रीय या प्रांतीय सरकारों की वित्तीय प्रतिबद्धताएं इतनी व्यापक हैं और साधन इतने सीमित कि यहां सरकारें अपने नागरिकों को स्वास्थ्य की गारंटी देना भी चाहें तो नहीं दे सकतीं। गरीबी और विषमता के कारण सामाजिक योजनाओं पर इतना अधिक खर्च हो जाता है कि विकास कार्यों के लिए ही आवश्यक साधन उपलब्ध नहीं हो पाते। ऐसे में स्वास्थ्य की गारंटी तो दूर की बात है।

सरकारों के पास पैसा टैक्स से आता है। हमारी मानसिकता ऐसी है कि टैक्स लगे ही नहीं और यदि लग ही जाए तो उसे कैसे बचाया जाए। सभी इसी जुगाड़ में लगे रहते हैं। अब यदि टैक्स लगेगा ही नहीं या टैक्स उगाही नहीं होगी तो सरकार के खजाने में पैसा कहां से आएगा। करदाताओं की शिकायत भी उचित ही है, क्योंकि करदाताओं की संख्या, कुल आबादी के अनुपात में बहुत कम है। इसीलिए टैक्स लगाना, टैक्स ना देना, टैक्स उगाहना यह समस्या बनी ही रहती है। नतीजे में सरकार के खजाने में जिम्मेदारियों का निर्वहन करने के लिए साधनों की सीमा बाधक ही बनी रहती है। ऐसे में वह स्वास्थ्य गारंटी जैसे विषय पर कब और कैसे सोच सकती हैं। रोग मुक्त भारत कैसे बनेगा?

एक रास्ता दीखता है कि शरीर की जांच और रोग का इलाज सस्ता हो जाए, लेकिन यह दोनों तो अब सस्ते होने से रहे। न तो शरीर की जांच सस्ती होगी, न दवाइयां सस्ती होंगी, न डॉक्टर सस्ते होंगे और न बीमारी का इलाज ही सस्ता होगा। तो फिर क्या किया जाए? एक ही तरीका बचता है कि लोग बीमार ही नहीं हों। ऐसे में दुर्घटनाओं आदि को छोड़कर इलाज की आवश्यकता को कम किया जा सकता है। ऐसे रास्ते खोजने होंगे कि व्यक्ति बीमार हो ही नहीं। यह तरीका तो था, लेकिन हमारा खान-पान ही हमारे हाथ में नहीं रहा। दूसरे आज खाने की वस्तुएं इतनी आसानी से उपलब्ध हैं कि हम हर रोज आवश्यकता से अधिक खाते हैं। वे जिनको नहीं मिलता, भूख से परेशान हैं।

हमारे यहां दोनों तरह की समस्या हो गई है। कुछ लोगों को खाने को इतना मिलता है कि वे पचा नहीं पाते और कुछ लोगों को इतना कम मिलता है कि उन्हें पूरा पोषण नहीं मिल पाता। दोनों तरह से बीमारी को ही निमंत्रण दिया जाता है। जब व्यक्ति बीमार हो जाता है तो इलाज इतना महंगा है कि एक ही बीमारी में परिवार की तीन पीढ़ियों की पूंजी नष्ट हो जाती है। फिर रोग मुक्त भारत कैसे बनेगा?

हमारे देश में कुछ सहज परंपराएं थीं जो व्यक्ति को बीमार नहीं होने देती थीं। गांव-गांव में, मोहल्ले-मोहल्ले में अखाड़े थे। इन अखाड़ों से निकले हुए सभी लोग पहलवान नहीं बन जाते थे, लेकिन बचपन में कुश्ती, कसरत की जो आदत बन जाती थी वह लंबे समय तक साथ रहती थी जिस कारण बीमारी कम होती थी। गांव-गांव में, तालाबों की भरपूर संख्या होती थी। लोग पानी में जाकर पानी का व्यवहार करते थे। तालाबों में तैरना सहज आदत बन जाती थी। खेतों में जमीन का स्पर्श मिलता था तो मिट्टी चिकित्सा हो जाती थी।

अनाज, फल, सब्जियों में रासायनिक खाद और कीटनाशकों का इस्तेमाल नहीं होता था तो लोगों को हानि-रहित खाद्य पदार्थ उपलब्ध हो जाते थे। आज तो स्थित यह है कि यदि मैं तय करूं कि मात्र लौकी ही खानी है तो भी मैं सुरक्षित नहीं हूं, क्योंकि लौकी के उत्पादन में कितना रासायनिक खाद, कीटनाशक इस्तेमाल हुआ है इसकी कोई सीमा ही नहीं है। इसलिए लौकी खाते-खाते भी शरीर बुरी तरह से बिगड़ जाता है।

अतः हमें फिर से प्रकृति की ओर मुड़ना होगा, प्राकृतिक जीवन पद्धति Naturopathy अपनानी होगी। अन्न उत्पादन में और अन्न का इस्तेमाल करने में भी प्रकृति का ध्यान रखना होगा। जब तक सरकार की आर्थिक स्थिति इतनी मजबूत नहीं हो जाती कि सबको स्वास्थ्य की गारंटी दे सकें, हमें गांधी की भाषा में “अपना डॉक्टर स्वयं बनना होगा।’ स्वास्थ्य की दृष्टि से जो विद्या इस समय की व्यस्था में सबसे नीचे के पाय पर खड़ी है, उसे सबसे ऊपर के पाए पर ले जाना होगा।

प्राकृतिक चिकित्सा एवं योग स्वास्थ्य की सबसे अधिक कारगर विद्या के रूप में स्थापित करना होगा और वैसा ही प्रतिष्ठित भी। भारत को रोग मुक्त बनाने के लिए हर स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय में प्राकृतिक चिकित्सा एवं योग की शिक्षा का प्रावधान होना चाहिए। प्रावधान ही नहीं, बल्कि प्राकृतिक चिकित्सा एवं योग की शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए। हर नागरिक प्राकृतिक चिकित्सा सीखें, योग सीखें, प्राकृतिक जीवन पद्धति सीखें,इस तरह अपना इलाज, स्वयं करने के योग्य बनें।

हर स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय में पाक-शास्त्र का शिक्षण दिया जाए। भोजन कैसा होना चाहिए, कितना खाना चाहिए, कैसे खाना चाहिए आदि-आदि। यह भी आवश्यक है कि यह प्रशिक्षण अधिक-से-अधिक सस्ता और सर्व-सुलभ होना चाहिए। आज कहीं-कहीं शिक्षण संस्थाओं में होमसाइंस की शिक्षा का प्रावधान है, लेकिन एक तो यह महंगा है और दूसरे, शिक्षा को नौकरी के साथ जोड़ देने से बच्चे विषय निर्धारित करते समय नौकरी का ध्यान रखते हैं। वे वही विषय लेते हैं जिसमें नौकरी की अच्छी संभावना दिखाई दे। पाकशास्त्र में नौकरी की कोई अधिक संभावना दिखाई नहीं देती, इसलिए विद्यार्थियों के सामने यह अंतिम विषय रहता है।

यदि देश में पाकशास्त्र, प्राकृतिक चिकित्सा एवं योग हमारी शिक्षा व्यवस्था में अनिवार्य विषय बना दिए जाएं तो हर नागरिक को इन विषयों का प्राथमिक ज्ञान तो हो ही जाएगा। फिर जिस विद्यार्थी को इन विषयों में दिलचस्पी होगी उसे उच्चतम शिक्षा प्राप्त करने की व्यवस्था होनी चाहिए। इस व्यवस्था में यह भी सोच रखनी चाहिए कि इससे निकलने वाले विद्यार्थियों की मानसिकता नौकरी पाना नहीं, बल्कि उद्यमी बनना होना चहिये।

यह सारी व्यवस्था हमारे पाठ्यक्रम का हिस्सा बन जाए, हमारी योजना का हिस्सा बन जाए तो भारत को रोग मुक्त बनाया जा सकता है। व्यक्ति रोगी होगा ही नहीं होगा तो उसका इलाज स्वयं संभव होगा। हम पाएंगे कि इस व्यवस्था में रोजगार सृजन की भी प्रचुर संभावनाएं हैं। रोगी नागरिक निरोग भारत का निर्णय नहीं कर सकता। रोग मुक्त व्यक्ति ही निरोग भारत बना सकता है। रोगी भी, दवाइयां खा-खाकर, बहुत काम करते हैं, लेकिन निरोगी जिस निर्बाध गति से काम कर सकता है रोगी के लिए वहां कई सीमाएं आ जाती हैं। हमें रोग मुक्त भारत का निर्माण करने के लिए कृत संकल्प होना है और उसी प्रतिबद्धता से प्रयास भी करना है। (सप्रेस)

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