मौजूदा महामारी से घबराकर अपने-अपने गांवों-घरों की ओर लौटते लोगों को सलाह दी जा रही है कि वे रास्ते के स्कूलों में ‘लॉक डाउन’ के चलते कुछ दिन रुक जाएं। यह आग्रह उनसे भी किया जा रहा है जो शहरों, महानगरों के अपने-अपने ठिकानों पर आज भी टिके हैं। लेकिन क्या हमारे स्कूल ऐसी हालत में हैं कि वे इन प्रवासियों को संकट में छत मुहैय्या करवा सकें?
‘कोविड-19’ से बचने के लिए साफ़-सफाई पर बहुत जोर दिया जा रहा है। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जारी किए गए सभी दिशा-निर्देशों (गाईडलाईन) में स्वच्छता और साफ़-सफाई, जिसमें पानी, साबुन या अल्कोहल-युक्त सेनीटाईजर केन्द्रित हाथ-धुलाई प्रमुख है, पर जोर दिया गया है। साफ़-सफाई न केवल ‘कोविड-19’ से बचाव के लिए जरूरी है, बल्कि कई बीमारियों, जिसमे डायरिया, पीलिया आदि शामिल हैं, की रोकथाम के लिए भी बहुत ही जरूरी है। कोई भी छोटी-बड़ी छूत की ‘संचारात्मक बीमारियाँ’ हों, उनका नकारात्मक असर सबसे पहले बच्चों पर होता है। बच्चे कमजोर प्रतिरोधक क्षमता के चलते बीमारियों का शिकार सबसे पहले होते हैं। हालांकि फिलहाल देश और मध्यप्रदेश के सभी स्कूल बंद हैं, परन्तु क्या ‘कोविड-19’ की इस महामारी को काबू में कर लेने के बाद हमारे स्कूल बीमारी से सुरक्षित रह सकेंगे? भविष्य में इस प्रकार की बीमारियों से बचाव या स्वच्छता बनाए रखने को लेकर हमारे सरकारी स्कूल कितने तैयार है?
इस स्थिति को तीन बिन्दुओं पर समझा जा सकता है – पहला, स्कूल में पानी की व्यवस्था, दूसरा, बालिकाओं के लिए शौचालय और तीसरा, स्कूल में बिजली। ‘डाईस – 2016-17’ रिपोर्ट के अनुसार पानी की उपलब्धता के मामले में देश के 36 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में से 12 राज्यों के समस्त या शत-प्रतिशत स्कूलों में पानी की उपलब्धता है। बाकी के 24 राज्यों में न्यूनतम 0.1 प्रतिशत से लेकर 37 प्रतिशत स्कूलों में पानी की कोई व्यवस्था नहीं है। इस मामले में मध्यप्रदेश 24 वें स्थान पर है जहाँ के 4.6 प्रतिशत स्कूलों में पानी की कोई व्यवस्था नहीं हैं। यदि मध्यप्रदेश के जिलों की बात करें तो उन जिलों के स्कूलों में पानी की कोई भी व्यवस्था नहीं है जो मुख्यतः आदिवासी-बहुल हैं। इनमें सबसे ऊपर डिंडोरी है जहाँ के 13 प्रतिशत स्कूलों में पानी की कोई व्यवस्था नहीं है, जबकि इस जिले की वार्षिक औसत वर्षा 1400 मिलीमीटर से भी ज्यादा है। डिंडोरी जिले से गुजरने वाली नदियाँ प्रदेश की आधी आबादी की पानी की जरूरतों को पूरा करती हैं।
मध्यप्रदेश के सरकारी स्कूलों की दूसरी प्रमुख चुनौती समुदाय में छुआछूत की भावना है जिसके कारण स्कूलों में बच्चों से भेदभाव की घटनाएं अखबारों में छपती रहती हैं। स्कूलों में पानी के उपलब्ध होने के बाद भी सभी बच्चों के द्वारा, समान रूप से इसका उपयोग एक प्रमुख चुनौती है। पानी की उपलब्धता के अलावा उसकी गुणवत्ता एक अलग चुनौती है। स्कूलों में पानी की अनुपलब्धता मध्यान्ह भोजन पकाने, साफ़-सफाई और बर्तनों की सफाई लिए भी बहुत महत्वपूर्ण है। आसपास की गंदगी पानी की गुणवत्ता को प्रभावित कराती है जो बच्चों में बीमारी का कारण भी बनती है।
तमाम प्रयासों के बावजूद देश में खुले में शौच का प्रचलन अब तक बंद नहीं हुआ है। सरकारी स्कूलों में कितने शौचालय हैं यह समझने के लिए ‘डाइस रिपोर्ट-2016-17’ को देखें तो उसके अनुसार देश के 3.5 प्रतिशत स्कूलों में बालिकाओं के लिए शौचालय नहीं हैं। मध्यप्रदेश के पांच प्रतिशत स्कूलों में बालिकाओं के शौचालय नहीं हैं। स्कूलों में बालिकाओं को शौचालय की उपलब्धता के मामले में मध्यप्रदेश 31 वें स्थान पर है। मध्यप्रदेश के अशोकनगर जिले में सबसे कम, 22.6 प्रतिशत स्कूलों में शौचालय नहीं है। स्कूलों में शौचालय के सम्बन्ध में दो प्रमुख चुनौतियाँ उनके उपयोग और साफ़-सफाई की है। मध्यप्रदेश में एक ओर, बहुत कम स्कूलों में साफ-सफाई के लिए कर्मचारियों की व्यवस्था है और दूसरी ओर, पंचायतों और स्थानीय निकायों को दी गई इसकी जिम्मेदारी के जमीनी हालात बदतर हैं। शौचालय के सम्बन्ध में एक और चुनौती सफाई के लिए नल की व्यवस्था है, परन्तु स्थिति का अंदाजा इसी से ही लगाया जा सकता है कि नल में बहते पानी के लिए जरूरी बिजली ही नहीं है। प्रदेश के महज 27.2 प्रतिशत स्कूलों में ही बिजली है, जबकि मध्यप्रदेश बिजली उत्पादन में आत्मनिर्भर है। मध्यप्रदेश के आदिवासी-बहुल जिलों, जिनमें अलीराजपुर (9.4 प्रतिशत), डिंडोरी (11.8 प्रतिशत), बैतूल (12.7 प्रतिशत), झाबुआ (13.4 प्रतिशत) और अनूपपुर (15.2 प्रतिशत) शामिल हैं, के स्कूलों में बिजली उपलब्ध है। देश के 59.9 प्रतिशत स्कूलों में बिजली है। दिल्ली, गोवा, पंजाब, गुजरात, चंडीगढ़, लक्ष्यदीप और पुडुचेरी के लगभग शत-प्रतिशत स्कूलों में बिजली की उपलब्धता है।
शिक्षा के अधिकार कानून को लागू हुए लगभग एक दशक हो चुका है। कानून के अनुसार माध्यमिक स्तर तक के सभी सरकारी स्कूलों में अन्य मापदंडों के साथ अधोसंरचना सम्बंधित मापदंड तीन वर्षों में पूरे हो जाने थे। सुप्रीमकोर्ट की दखल के बाद कई राज्य सरकारों ने मापदंडों को पूरा करने के लिए दो अतिरिक्त वर्षों का समय माँगा, लेकिन उसके बाद भी आज तक सभी मापदंडों को पूरा नहीं किया जा सका है। पिछले पांच वर्षों में देश के स्कूलों में बिजली की उपलब्धता 47 .1 प्रतिशत से बढ़कर 59.8 प्रतिशत, पानी की उपलब्धता 94.4 प्रतिशत से बढ़कर 97.1 प्रतिशत और बालिका शौचालय 72.2 प्रतिशत से बढ़कर 96.5 प्रतिशत हुए हैं। इसके साथ मध्यप्रदेश के स्कूलों में बिजली की उपलब्धता 22.5 प्रतिशत से बढ़कर 27.2 प्रतिशत, बालिका शौचालय 76.3 प्रतिशत से बढ़कर 95 प्रतिशत और पानी की उपलब्धता 98 प्रतिशत से घटकर 96.4 प्रतिशत हो गई है। पिछले पांच वर्षों में मध्यप्रदेश के 50 में से 35 जिलों में पानी की उपलब्धता 0.3 प्रतिशत से लेकर 11.2 प्रतिशत तक घट गई है। प्रदेश के दस जिलों में बालिका शौचालयों में 0.6 प्रतिशत से लेकर 6.9 प्रतिशत तक की कमी दर्ज की गई है।
इस विश्लेषण से समझा जा सकता है कि तमाम प्रयासों के बानजूद हमारे सरकारी स्कूल ‘कोविड-19’ जैसी महामारी तो क्या, साधारण या कम घातक संचारात्मक बीमारियों से निपटने में भी सक्षम नहीं हैं। इन स्कूलों में हम अपने बच्चों को प्रतिदिन लगभग 5-6 घंटे के लिए छोड़ते हैं। भोपाल जैसे और कई शहरों में जहाँ मोटी फीस वसूलने वाले प्रायवेट स्कूलों में शौचालय और पानी की व्यवस्था तो है, परन्तु साबुन और स्वच्छता के तरीकों की सही जानकारी का आभाव एक चुनौती है। कई मीडिया और अन्य रिपोर्टों में यह भी आया है कि कई स्कूलों में बच्चों को पर्याप्त पानी नहीं पीने दिया जाता, न ही शौच के लिए जाने दिया जाता। इसके परिणाम-स्वरूप बच्चे गंभीर बीमारियों का शिकार हो जाते हैं। इसके लिए यही सुझाव है कि स्वच्छता के मुद्दे को इतने हल्के से नहीं लिया जाना चाहिए। आज ‘कोविड’-19’ जैसी इस महामारी से निपटने के लिए बचाव और रोकथाम के लिए लड़ने के अलाबा समुदाय में स्वच्छता और उसके सही तौर-तरीके की जानकारी का आभाव भी चुनौती बना हुआ है। इस दिशा में ‘स्वच्छ भारत’ जैसे कार्यक्रमों के माध्यम से लोगों में जागरूकता लाने के साथ-साथ स्कूलों में कम-से-कम मूलभूत सुविधाओं को बढ़ाने की जरूरत है। (सप्रेस)