
7 अप्रैल को जब दुनिया ‘विश्व स्वास्थ्य दिवस’ मना रही है, भारत में यह सवाल और गंभीर हो उठता है – क्या देश के हर नागरिक को समान रूप से गुणवत्तापूर्ण और सुलभ स्वास्थ्य सेवाएं मिल पा रही हैं? संविधान का अनुच्छेद 21 जीवन के अधिकार की गारंटी देता है, लेकिन मौजूदा बजट, नीति और व्यवस्थाएं इस मूलभूत अधिकार को महज़ कागज़ों तक सीमित कर रही हैं। निजीकरण की ओर बढ़ती नीतियों और सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं में लगातार होती कटौती ने आम आदमी को इलाज से दूर और निजी मुनाफाखोरों के हवाले कर दिया है।
7 April : World Health Day
भारत के संविधान का अनुच्छेद 21 जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार की गारंटी देता है और राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत (अनुच्छेद 38, 39, 42, 43 और 47) स्वास्थ्य के अधिकार को प्रभावी तरीके से सुनिश्चित करने के लिए राज्य का दायित्व सुनिश्चित करता है।
संविधान के अनुच्छेद 47 के अनुसार, स्वास्थ्य राज्य का विषय है और तदनुसार अपने नागरिकों को स्वास्थ्य और स्वास्थ्य सुविधाएं प्रदान करना राज्य सरकार की जिम्मेदारी और कर्तव्य है। भारत में औसतन 10,000 लोगों पर 2 से 3 डाक्टर ही है। फिलहाल देश में 1.6 लाख मेडिकल सीटें हैं। सरकार ने घोषणा किया है कि अगले साल पूरे भारत में मेडिकल कॉलेजों में 10,000 अतिरिक्त सीटें जोङी जाएगी, जिसका लक्ष्य आगामी 5 सालों में 75000 मेडिकल सीटों तक पहुंचाना है।
विश्व बैंक के अनुसार, भारत सरकार 50.2 फीसदी इलाज का ही खर्च उठाती है,शेष 49.8 फीसदी लोग अपने जेब से ही इलाज कराने को विवश हैं। 2025- 26 के स्वास्थ्य में 99,858 करोड़ रुपए आबंटित किया गया है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के लिए कुल बजट में से 37226 करोड़ रुपए मिला है। यह राशि बीमारी सर्विलांस, परिक्षण सुविधाओं एवं आपात तैयारियों में खर्च की जानी है, इसके लिए बजट में कोई उल्लेखनीय प्रावधान नहीं किया गया है।
वर्ष 2024 के “ग्लोबल हंगर इंडेक्स” की रिपोर्ट अनुसार भारत की कुपोषित आबादी 13.7 प्रतिशत है। भारत में 5 साल से कम आयु के बच्चे जिनका कद कम है कुल 35.5 प्रतिशत हैं। भारत में 5 वर्ष से कम आयु के बच्चे जिनका वजन कम है कुल 18.7 प्रतिशत हैं। कुपोषण के कारण 5 वर्ष से कम आयु में मरने वाले बच्चों का प्रतिशत 2.9 है। देश के अधिकांश प्रदेशों में कुपोषण एक गंभीर चुनौती बना हुआ है परंतु इससे निपटने के लिए बजट मे कोई खास प्रावधान नहीं किया गया है और पोषण 2.0 कार्यक्रम में बजट आवंटन लगभग स्थिर ही है। वर्तमान जनविरोधी, कॉर्पोरेट संचालित स्वास्थ्य सेवा स्वास्थ्य अधिकार की उपेक्षा करता है। जिसे लोगों और राष्ट्र के खिलाफ अपराध का कृत्य माना जाना चाहिए।
कोविड-19 महामारी के दौरान सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र की कमजोरी, अक्षमता और चुनौतियों से निपटने में विफलता स्पष्ट रूप से सामने आई थी परिणामस्वरूप, सरकार द्वारा समय पर पर्याप्त सहायता उपलब्ध न कराने के कारण कई लोगों की बिना इलाज के मृत्यु हो गई। इन विफलताओं के बावजूद, स्वास्थ्य के लिए बजट आवंटन स्थिर बना हुआ है, जो वास्तव में पहले से ही स्वास्थ्य के क्षेत्र में कम बजट आवंटन में और कमी को दर्शाता है।
सरकार द्वारा स्वास्थ्य पर किया जा रहा 1.9 प्रतिशत का बजट खर्च अपर्याप्त है, खासकर तब जब कार्पोरेट को पर्याप्त कर राहत दी जाती है। जबकि स्वास्थ्य बजट को सकल घरेलू उत्पादन का कम से कम 6 प्रतिशत होना चाहिए। केंद्रीय बजट 2025 में कैंसर, असाधारण रोगों और अन्य गंभीर जीर्ण रोगों के उपचार के लिए 36 जीवनरक्षक औषधियों को बुनियादी सीमा-शुल्क से छूट स्वागत योग्य है। परंतु पहले दवाओं के मूल्य नियंत्रण को खत्म कर हजारों करोड़ रुपए फार्मा कंपनियों को दे दिए गए थे। आम जनता के स्वास्थ्य खर्च को कम करने और स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण को रोकने या नियंत्रित करने के लिए किसी तरह का प्रावधान नहीं किया गया है। राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी के कारण निजी क्षेत्र का अस्पताल किसी नियामक निगरानी के बेलगाम शुल्क वसूलता जा रहा है। सरकार अब बीमा आधारित मॉडल की ओर बढ़ रही है, जिसका लक्ष्य 2025 तक निजी बीमा कवरेज को 30% तक बढ़ाना है, जबकि राज्य द्वारा संचालित अस्पतालों को बीमा-आधारित संस्थाओं में बदलना है, जैसा कि चेन्नई में देखा गया है।
नीति आयोग ने राज्यों को पीपीपी मॉडल के तहत मेडिकल कॉलेज बनाने और जिला अस्पतालों को निजी संस्थाओं को सौंपने का सुझाव दिया है। यह कदम कुछ राज्यों में शुरू भी किया गया है और हाल ही में मध्य प्रदेश में सरकार के स्वास्थ्य सेवा संस्थानों के निजीकरण के खिलाफ मेडिकल डॉक्टरों, स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं और नागरिक समाज संगठनों के एक समूह ने संयुक्त रूप से इस कदम का विरोध किया है। कम फंडिंग से प्रेरित यह कदम सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली की स्थिरता और पहुंच को खतरे में डालता है।
गुजरात और कर्नाटक में पीपीपी मॉडल की कोशिश की गई थी जो विफल हो गया और अब मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार इस मॉडल को अपनाने की कोशिश कर रहे हैं। जिला अस्पतालों और यहां तक कि सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र को भी निजी मेडिकल कॉलेजों के साथ साझेदारी में सौंपने का यह प्रस्ताव एक अच्छी तरह से काम करने वाली सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली के लिए आवश्यक रेफरल सिस्टम को तोड़ देगा। टुकङों में किया जाने वाले मानव संसाधन प्रशिक्षण का यह दृष्टिकोण सार्वजनिक क्षेत्र तथा निजी दोनों क्षेत्रों में देखभाल की गुणवत्ता को कमजोर करता है।
सरकार ने आवश्यक दवाओं पर मूल्य नियंत्रण की भी उपेक्षा की है और विश्व स्वास्थ्य संगठन वैक्सीन संधि और विश्व व्यापार संगठन पेटेंट संशोधन जैसी वैश्विक नीतियों को आगे बढ़ा रही है जो राष्ट्रीय संप्रभुता और सार्वजनिक स्वास्थ्य हितों को कमजोर कर सकती हैं। सरकार जीवन रक्षक दवाओं सहित अन्य दवाओं पर कर भी लगा रही है।
श्रमिकों की स्वास्थ्य देखभाल, प्रदूषण और खतरों के कारण स्वास्थ्य पर पड़ने वाला प्रभाव लोगों के स्वास्थ्य को भी प्रभावित कर रहा है। खाद्य सुरक्षा अभी भी लोगों के लिए एक चुनौती बनी हुई है और कई राज्य एनीमिया से पीड़ित महिलाओं और कुपोषित बच्चों से निपटने में सफल नहीं हो पा रही है।
जन स्वास्थ्य अभियान भारत ने विश्व स्वास्थ्य दिवस के अवसर पर मांग किया है कि सरकार न केवल स्वास्थ्य देखभाल सेवाएं प्रदान करके अपने नागरिकों के स्वास्थ्य का ध्यान रखे, बल्कि स्वास्थ्य के प्रमुख निर्धारकों जैसे खाद्य सुरक्षा, सुरक्षित पेयजल, रोजगार, सुरक्षित पर्यावरण आदि को भी सुनिश्चित करें। इसलिए सरकार स्वास्थ्य और स्वास्थ्य सेवाओं में निजीकरण को बंद करें, सभी दवाइंया मुफ़्त हो तथा दवाओं पर कोई टेक्स न हो और जेनेरिक दवाओं को बढ़ावा दिया जाए ,स्वास्थ्य का अधिकार अधिनियम लागू करें और सभी स्तरों पर रिक्तियों को पूरा करके सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षेत्र को मज़बूत करें, सभी राज्यों में क्लिनिकल एस्टेब्लिशमेंट अधिनियम को सार्वभौमिक रूप से लागू करें और निजी स्वास्थ्य क्षेत्र में दर नियंत्रण को विनियमित करे और मानक उपचार दिशा-निर्देशों को लागू करें, स्वास्थ्य के प्रमुख घटक के रूप में खाद्य सुरक्षा, सुरक्षित पेयजल, रोजगार, सुरक्षित वातावरण आदि सुनिश्चित करें और श्रमिकों के लिए सभी क्षेत्रों में व्यावसायिक स्वास्थ्य सुरक्षा सुनिश्चित करें।