बाबा मायाराम

करीब ढ़ाई दशक पहले शुरु हुए ‘जन स्वास्थ्य सहयोग’ ने छत्तीसगढ़ के सुदूर कोने में जिस तरह से, जो-जो किया है, वह हमारे इलाज और स्वस्थ्य रहने के सरकारी, गैर-सरकारी और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों को सिखा सकता है। उम्मीद की जानी चाहिए कि ऐसे संस्थान और उन्हें सलामत रखने वाले डॉक्टर दिन दूने, रात चौगुने बढ़ें।

छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले का छोटा सा कस्बा है, गनियारी। वैसे तो यह आम कस्बे की तरह है, पर यहां के जन-स्वास्थ्य के काम ने इसे खास बना दिया है। इसकी शुरूआत देश की ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं की हालत से चिंतित कुछ डॉक्टरों ने की थी। ये डॉक्टर दिल्ली के ख्यात ‘ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेस’ (एम्स) में पढ़े थे। यहां आने से पूर्व इन्होंने देशभर के ग्रामीण क्षेत्रों का दौरा किया था और अंततः देश के गरीब इलाकों में से एक, छत्तीसगढ़ के एक कस्बे में काम प्रारंभ किया था। गनियारी में सिंचाई विभाग की एक टूटी-फूटी कॉलोनी की जमीन सरकार से लीज पर लेकर 1999 में गैर – सरकारी स्वास्थ्य केन्द्र ‘जन स्वास्थ्य सहयोग’ की स्थापना हुई।

इस केन्द्र की उपयोगिता का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि वर्ष 2000 में बिना किसी औपचारिकता के ‘बाह्य रोगी विभाग’ (ओपीडी) शुरू हुआ था और मात्र तीन महीने में यहां प्रतिदिन आने वाले मरीजों की संख्या 250 तक पहुंच गई थी। अब ‘ओपीडी’ में रोज करीब 300 मरीजों की जांच व इलाज होता है। यह सप्ताह में तीन दिन सोमवार, बुधवार और शुक्रवार को होती है। यहां 100 बिस्तरों का अस्पताल और ‘शल्य चिकित्सा कक्ष,’ ‘बाल चिकित्सा देखभाल इकाई,’ ‘नवजात गहन देखभाल इकाई,’ ‘कीमोथैरेपी वार्ड,’ ‘टीबी वार्ड,’ ‘प्रसव वार्ड’ इत्यादि हैं। कुष्ठ रोग से लेकर टीबी, कैंसर का भी इलाज होता है। परिसर में रहने और भोजन की सुविधा उपलब्ध है। धर्मशाला भी है। पांच रूपए में खाने की थाली मिलती है। यह सुविधा मरीज के साथ आने वालों को भी उपलब्ध है। 

‘सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यक्रम’ का त्रिस्तरीय ढांचा है। सबसे पहले ‘ग्राम स्वास्थ्य कार्यकर्ता’ हैं, जिन्हें गांव में समुदाय द्वारा चुना जाता है। ‘जन स्वास्थ्य सहयोग’ के डॉक्टरों की टीम इन्हें प्रशिक्षित करती है। दूसरे स्तर पर ‘उप स्वास्थ्य केन्द्र’ हैं, जहां वरिष्ठ कार्यकर्ता होते हैं और तीसरे स्तर पर गनियारी का अस्पताल है जहां गंभीर व जटिल बीमारियों के लिए मरीजों को लाया जाता है। 

बिलासपुर जिले के कोटा-लोरमी के 70 से भी अधिक गांवों में ‘सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यक्रम’ के जरिए बीमारियों का इलाज व उनकी रोकथाम की कोशिश की जाती है। इस ग्रामीण सामुदायिक कार्यक्रम के तहत् गांव की 70 ‘महिला स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं’ का प्रशिक्षण किया गया है। इनमें से अधिकांश महिलाएं बिना पढ़ी-लिखी या कम पढ़ी-लिखी हैं। बीमारी को ठीक करने के लिए दवा और उपचार करना ही पर्याप्त नहीं है, उसकी रोकथाम करना भी जरूरी है। मसलन – कुछ रोग कुपोषण से जुड़े हैं इसलिए पौष्टिक अनाजों की खेती और जंगल के खाद्यों के महत्व को ग्रामीणों से साझा किया जाता है।

इस कार्यक्रम का एक और महत्वपूर्ण हिस्सा है, तीन ‘उप स्वास्थ्य केन्द्र’ जो सेमरिया, शिवतराई और बम्हनी गांवों में बनाए गए हैं। यहां कार्यकर्ताओं के अलावा नर्सिंग स्टॉफ होता है और सप्ताह में निर्धारित दिन क्लिनिक भी होता है, जिसमें पुराने व नए मरीजों का इलाज किया जाता है। यहां खून की जांच, वजन इत्यादि लेने की भी सुविधा होती है। इसके अलावा, दाई-प्रशिक्षण, गर्भवती महिलाओं की जांच के लिए जागरूकता शिविऱ लगाए जाते हैं। मुझे एक बार दाई-प्रशिक्षण में शामिल होने का मौका मिला था, जहां संस्था से जुड़ी डॉ. रमनी ने गांव की दाईयों को जचकी करवाने में क्या सावधानियां रखनी चाहिए, इसका प्रशिक्षण दिया था। कपड़ों के पुतलों के माध्यम से पूरी प्रक्रिया समझाई थी।

‘जन स्वास्थ्य सहयोग’ का एक हिस्सा उपयुक्त टेक्नोलॉजी का विकास भी है। इसके तहत् स्वास्थ्य को बेहतर बनाने के लिए सरल-सहज तकनीक से ऐसे यंत्र तैयार किए जा रहे हैं, जो बीमारी की जांच और रोकथाम में मददगार हों। ‘जन स्वास्थ्य सहयोग’ के द्वारा गांवों में 6 माह से 3 वर्ष तक के बच्चों के लिए ‘फुलवारी’ (झूलाघर) कार्यक्रम चलाया जा रहा है जिसमें बच्चों को खाना भी खिलाया जाता है। अभी मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ में कुल 172 ‘फुलवारी’ संचालित की जा रही हैं। यहां अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति की लड़कियों के लिए नर्सिंग स्कूल संचालित होता है। यह ‘जन स्वास्थ्य सहयोग’ केन्द्र व ‘छत्तीसगढ़ आदिम जाति विभाग’ के संयुक्त प्रयास से चल रहा है। यहां एसटी-एससी की छात्राओं को ‘जर्नल  नर्सिंग मिडवाईफ’ (जीएनएम) की ट्रेनिंग दी जाती है। 

जन स्वास्थ्य सहयोग’ की टीम घर-घर जाकर ‘सिकल सेल’ रोग की जांच और उसके इलाज के लिए काम करती है, जिसमें गर्भवती महिलाओं और बच्चों समेत अन्य लोगों की जांच की जाती है। उनका इलाज सिर्फ दवाओं से नहीं, बल्कि मासिक बैठक, मरीज की स्थिति की जानकारी, आवश्यक जांच व आपस में मिलने-जुलने के मौकों से होता है। इसमें नई जानकारियों का आदान-प्रदान भी होता है। 

‘जन स्वास्थ्य सहयोग’ के डॉ. पंकज तिवारी बताते हैं कि यहां न तो गैरजरूरी जांच की जाती है और न ही अनावश्यक दवाएं दी जाती हैं। कोशिश होती है कि एक ही दिन में रोगी की जांच, दवा और इलाज का काम पूरा हो जाए। पांच वर्ष से इस कार्यक्रम का विस्तार मध्यप्रदेश के डिंडौरी, अनूपपुर और शहडोल जिलों में भी हुआ है। वहां ‘सिकल सेल’ पर भी मध्यप्रदेश सरकार के साथ मिलकर सतत् कार्यक्रम चलाया जा रहा है। इन प्रयासों की वजह से वर्ष 2021 में राज्य सरकार ने ‘सिकल सेल एनीमिया प्रबंधन मिशन’ भी शुरू किया है।

डॉ. तिवारी कहते हैं कि हमारे काम की सीमाएं हैं। सार्वजनिक स्वास्थ्य का काम तो सरकार की जिम्मेदारी है, इसलिए हमने उनके साथ मिलकर काम करना शुरू किया है। कुल मिलाकर यहां ‘सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यक्रम,’ ‘ग्रामीण जांच प्रयोगशाला,’ ‘ब्लड बैंक,’ ‘आयुर्वेदिक दवा निर्माण,’ कृषि व पशु स्वास्थ्य सुधार के लिए काम किया जा रहा है। गरीबों  के लिए कम कीमत पर बेहतर इलाज किया जाता है। रोगों की रोकथाम के लिए निरंतर प्रयास किया जाता है। इस पहल से यह भी समझा जा सकता है कि देश की मौजूदा स्वास्थ्य व्यवस्था में क्या बदलाव करना जरूरी है। ग्रामीण स्वास्थ्य व्यवस्था की क्या चुनौतियां हैं और उनका मुकाबला कैसे किया जा सकता है, यह भी सीखा जा सकता है। यहां के समर्पित व प्रतिबद्ध डॉक्टरों की टीम और उनकी पहल सराहनीय होने के साथ अनुकरणीय भी है। (सप्रेस)

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