विकास के मौजूदा तौर-तरीकों के चलते दिन-दूनी, रात-चौगुनी बढ़ती गर्मी ने हमें हलाकान कर दिया है। ऐसे में उसके प्रकोप से बचने के अलावा हमारे पास और क्या रास्ता है? भीषण गर्मी में अपने को बचाए रखने की तजबीज पर लेख।
देश में भीषण गर्म हवाएं चल पड़ी हैं। दिल्ली में भी गर्मी बेहाल करने के हालात पैदा करने लगी है। 40.4 डिग्री सेल्सियस से 42.4 डिग्री सेल्सियस तक पहुंचे तापमान ने पूरी दिल्ली में लू के हालात उत्पन्न कर दिए हैं। पूर्वी और पूर्वोत्तर भारत में भी यह गर्मी कहर बरपा रही है। इसी समय हैदराबाद विश्वविद्यालय के मौसम विभाग के ‘जर्नल ऑफ अर्थ सिस्टम साइंस’ में प्रकाशित अध्ययन से ज्ञात हुआ है कि पिछले 49 साल में भारत में गर्मी का प्रकोप निरंतर बढ़ा है। लू चलने की घटनाएं हर दशक में बीते दशक से 0.6 बार अधिक हुई हैं, जबकि इसके विपरीत शीत लहर चलने की घटनाएं प्रत्येक दशक में बीते दशक से 0.4 मर्तबा कम हुई हैं। गर्मियों में जब लगातार तीन दिन औसत से ज्यादा तापमान रहता है तो उसे ‘लू’ कहते हैं। यदि सर्दियों में तीन दिन तक निरंतर औसत से कम तापमान रहता है तो उसे ‘शीतलहर’ कहा जाता है।
श्रीमद्भागवत के अनुसार तेज गर्मी या प्रलय आने पर सांवर्तक सूर्य अपनी प्रचंड किरणों से पृथ्वी, प्राणी के शरीर, समुद्र और जल के अन्य स्रोतों से रस यानी नमी खींचकर सोख लेता है। नतीजतन उम्मीद से ज्यादा तापमान बढ़ता है, जो गर्म हवाएं चलने का कारण बनता है। यही हवाएं लू कहलाती हैं। आज कल मौसम का यही हाल है। जब हवाएं आवारा होने लगती हैं तो लू का रूप लेने लगती हैं, लेकिन हवाएं भी भला आवारा होती हैं? वे तेज, गर्म व प्रचंड होती हैं। जब प्रचंड से प्रचंडतम होती हैं तो अपने प्रवाह में समुद्री तूफ़ान और आंधी बन जाती हैं। सुनामी जैसे तूफ़ान इन्हीं आवारा हवाओं के दुष्परिणाम हैं।
इसके ठीक विपरीत हवाएं ठंडी और शीतल भी होती हैं। हड्डी कंपकंपा देने वाली हवाओं से भी हम रूबरू होते हैं, लेकिन आजकल हवाएं समूचे उत्तर व मध्य भारत में मचल रही हैं। तापमान 40 से 44 डिग्री सेल्सियस के बीच पहुंच गया है, जो लोगों को पस्त कर रहा है। हरेक जुबान पर प्रचंड धूप और गर्मी जैसे बोल आमफहम हो गए हैं, हालांकि लू और प्रचंड गर्मी के बीच भी एक अंतर होता है।
मौसम की इस असहनीय विलक्षण दशा में नमी भी समाहित हो जाती है। यही सर्द-गर्म थपेड़े लू की पीड़ा और रोग का कारण बन जाते हैं। किसी भी क्षेत्र का औसत तापमान, किस मौसम में कितना होगा, इसकी गणना एवं मूल्यांकन पिछले 30 साल के आंकड़ों के आधार पर की जाती है। वायुमंडल में गर्म हवाएं आमतौर से क्षेत्र विशेष में अधिक दबाव की वजह से उत्पन्न होती हैं। वैसे तेज गर्मी और लू पर्यावरण और बारिश के लिए अच्छी होती हैं। अच्छा मानसून इन्हीं आवारा हवाओं का पर्याय माना जाता है। तपिश और बारिश में गहरा अंतर्सबंध है।
धूप और लू का यह जानलेवा संयोग सीधे दिमागी गर्मी को बढ़ा देता है। इसे समय रहते ठंडा नहीं किया तो यह बिगडा अनुपात व्यक्ति को बौरा भी सकता है। शरीर में प्राकृतिक रूप से तापमान को नियंत्रित करने का काम मस्तिष्क में ‘हाइपोथैलेमस’ करता है। इसका सबसे महत्वपूर्ण कार्य ‘पीयूष ग्रंथि’ के माध्यम से ‘तंत्रिका तंत्र’ को ‘अंतःस्रावी प्रक्रिया’ के जरिए तापमान को संतुलित बनाए रखना होता है। इसे चिकित्सा-शास्त्र की भाषा में ‘हाइपर-पीरेक्सिया’ कहते हैं। यानी शरीर के तापमान में असमान वृद्धि या अधिकतम बुखार का बढ़ जाना। इसकी चपेट में बच्चे और बुजुर्ग आसानी से आ जाते हैं।
बाहरी तापमान जब शरीर के भीतरी तापमान को बढ़ा देता है, तो ‘हाइपोथैलेमस’ तापमान को संतुलित बनाए रखने का काम नहीं कर पाता। नतीजतन शरीर के भीतर बढ़ गई अनावश्यक गर्मी बाहर नहीं निकल पाती है, जो लू का कारण बन जाती है। इस स्थिति में शरीर में कई जगह प्रोटीन जमने लगता है और शरीर के कई अंग एक साथ निष्क्रियता की स्थिति में आने लगते हैं। ऐसा शरीर में पानी की कमी यानी ‘डी-हाईड्रेशन’ के कारण भी होता है। दोनों ही स्थितियां जानलेवा होती है। इसके निर्माण हो जाने पर बुखार उतारने वाली साधारण गोलियां काम नहीं करतीं। ये दवाएं दिमाग में मौजूद ‘हाइपोथैलेमस’ को ही अपने प्रभाव में लेकर तापमान को नियंत्रित करती हैं, जबकि लू में यह स्वयं शिथिल होने लग जाता है।
ऐसे में यदि पानी कम पीते हैं तो हालात और बिगड़ सकते हैं, इसलिए पानी और अन्य तरल पदार्थ ज्यादा पीने की जरूरत बढ़ जाती है। रोग-प्रतिरोधात्मक क्षमता बढ़ाने वाले खाद्य पदार्थों का सेवन लू को नियंत्रित करता है। लू लगे ही नहीं इसके लिए जरूरी है कि गर्मी के संपर्क से बचें और हल्के रंग के सूती कपड़े या खादी के वस्त्र पहने। सिर पर तौलिया बांध लें और छाते का उपयोग करें। आम का पना, मट्ठा, लस्सी, शरबत जैसे तरल पेय और सत्तू का सेवन लू से बचाव करने वाले हैं। ग्लूकोज और नींबू पानी भी ले सकते हैं।
हवाएं गर्म या आवारा हो जाने का प्रमुख कारण ऋतुचक्र का उलटफेर और भूतापीकरण (ग्लोबल वार्मिंग) का औसत से ज्यादा बढ़ना है। इसीलिए वैज्ञानिक दावा कर रहे हैं कि इस बार प्रलय धरती से नहीं आकाशीय गर्मी से आएगी। आकाश को हम निरीह और खोखला मानते हैं, किंतु वास्तव में यह खोखला है नहीं। भारतीय दर्शन में इसे पांचवां तत्व यूं ही नहीं माना गया है। सच्चाई है कि यदि आकाश तत्व की उत्पत्ति नहीं होती, तो संभवतः आज हमारा अस्तित्व ही नहीं होता। हम श्वास भी नहीं ले पाते।
हम देख रहे हैं कि कुछ एकाधिकारवादी देश एवं बहुराष्ट्रीय कंपनियां भूमंडलीकरण का मुखौटा लगाकर ‘ग्रीन-हाउस गैसों’ के उत्सर्जन से दुनिया की छत यानी ओजोन की परत में छेद को चौड़ा करने में लगे हैं। यह छेद जितना विस्तृत होगा, वैश्विक तापमान उसी अनुपात में अनियंत्रित व असंतुलित होगा। नतीजतन हवाएं ही आवारा नहीं होंगी, प्रकृति के अन्य तत्व मचलने लग जाएंगे। जलवायु परिवर्तन के कारण प्राकृतिक आपदाओं की आवृत्ति भी बढ़ रही है और जलीय स्रोतों पर दोहन का दबाव बढ़ता जा रहा है। ऐसी विपरीत परिस्थितियों में प्रकृति से उत्पन्न कठिन हालातों के साथ जीवन यापन की आदत डालनी होगी तथा पर्यावरण संरक्षण पर गंभीरता से ध्यान देना होगा। (सप्रेस)
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