सिलिकोसिस एक लाईलाज बीमारी है और जब एक बार व्यक्ति का प्रमाणीकरण हो गया है कि वह सिलिकोसिस का ही मरीज है, तो फिर इसके क्या मायने हैं ? राज्य सरकार व्दारा अभी किये जा रहे सारे जतन केवल फटे आसमां में थेगड़े लगाने जैसा है क्योंकि रोकथाम को लेकर तो कोई भी प्रयास नहीं है। हालाँकि इस समस्या का एक सिरा समाज की ओर भी आता है, क्या हम अपने घरों में चमचमाते पत्थरों से परहेज करने की तैयारी कर सकते हैं।
राजस्थान के भीलवाड़ा जिले के जिलाधीश परिसर में जनसुनवाई में आसींद तहसील के रघुनाथपुरा गाँव के गोपी (64 वर्ष), जो कि बोल सुन नहीं सकते हैं, और उनका एक हाथ भी नहीं है, अपनी व्यथा कहने आये हैं। उन्हें विकलांगता की पेंशन मिलती है। लेकिन पिछले पांच माह से वह भी नहीं मिली है। उनकी पत्नि टीबी की बीमारी से चल बसी घर में 1 बेटा और 1 बेटी है। बेटी, माँ की मौत के बाद से सदमे (शायद) में है, लिहाजा बहुत ही गुमसूम रहती है, बस खाना खुराक सभी की पूरी कर देती है। सवाल यह है कि घर खर्च कैसे चले। तो क्या गोपी मजदूरी भी नहीं कर सकते हैं! इसका जवाब भी है, नहीं।
भरी जवानी में गोपी ने आसपास की आरोली पत्थर खदानों में काम करना शुरू किया। पत्थरों को तोड़ना इनका शगल था। पर अब इन्हें सिलिकोसिस बीमारी हो गई है। खेती 3 बीघा है लेकिन पत्नि की बीमारी में कर्ज के चलते गिरवी रखा गई। हालांकि गोपी बोल नहीं सकते लेकिन हर आती-जाती सांस के साथ उनके फूलते नथूने और उनकी कराह उनके हाल बयाँ कर देती है।
रघुनाथपुरा में केवल गोपी नहीं बल्कि 56 और लोग हैं जो कि अब सिलिकोसिस की जद में हैं। ऐसा नहीं कि यह कहानी केवल रघुनाथपुरा की है बल्कि भीलवाड़ा की बनेड़ा तहसील के सालरिया पंचायत के श्री जी के खेड़ा गाँव की पीड़ा तो और भी भयावह है। इस गांव में 60 घरों में 70 से अधिक विधवा महिलाएं रहती है। लेकिन इन विधवाओं को जिला प्रशासन से आज तक राहत नहीं मिली है जबकि इन्हें स्वयं भी सिलिकोसिस है। इसी गाँव के शंकर (42 वर्ष) की मौत पिछले माह ही हुई है। वह सिलिकोसिस का बोझ ज्यादा दिन अपने काँधे पर ढो न सका।
सवाल यह है कि जब लोगों को पता चल गया कि ये बीमारी जानलेवा और लाईलाज है तो फिर इन खदानों में काम ही क्यों करना! क्योंकि यहाँ पर मनरेगा का काम खुलता नहीं है। काम मांगने और न देने पर कानूनन मजदूरी भत्ता मिलता नहीं है। ऐसे में ले देकर यही विकल्प बचता है और इसमें भी मजदूरी बाहर की अपेक्षा ज्यादा मिलती है। यह साल भर मिलने वाला काम है। बस यही मजबूरी इन मजदूरों को जिंदगी से मोह करते हुए भी मोह भंग करा देती है। सवाल यह भी है कि जब स्थिति इतनी भयावह है तो फिर सरकार क्या कर रही है।
अव्वल तो सरकार ने पहले यह माना ही नहीं कि सिलिकोसिस नामक कोई रोग भी है। सरकारी नुमाइंदे मजदूरों को टीबी जानकर उनका इलाज करते रहे। जब स्थिति काबू के बाहर होने लगी तो उच्चतम न्यायालय को संज्ञान लेना पड़ा। इसके बाद भी प्रशासन ने न तो सिलिकोसिस की जांच में तत्परता दिखाई और न ही प्रमाणपत्र के बाद मिलने वाले मुआवजे को देने में पूरे जिले में अभी केवल 1050 लोगों को ही चिन्हित कर प्रमाणपत्र वितरित किये गए हैं जबकि इन खदानों में काम करने वाले मजदूरों की संख्या 20,000 के करीब है। ज्ञात हो कि सिलिकोसिस से पीड़ित व्यक्ति को राहत के रूप में 1 लाख रुपए और मृत्यु पर 3 लाख रुपए का मुआवजा दिया जाता है।
किन मजदूरों को सिलिकोसिस हुआ है, उसकी पहचान भी बड़ी टेढ़ी खीर है। माह में एक बार न्यूमोकोनोसिस बोर्ड जिला मुख्यालय पर बैठता है और जांच करता है। यह जांच भी एक्सरे के माध्यम से ही की जाती है, जिससे कई मरीज तो पकड़ में ही नहीं आ पाते हैं। राजस्थान में कहीं पर भी स्वच्छ अक्षर नहीं है जिस पर आसानी से सिलिकोसिस के लक्षण पढ़े जा सकते हैं। इसके अलावा स्वच्छ लक्षण भी राजस्थान में अभी नहीं है। यह खतरे वाला काम भी है क्योंकि इसमें सुई को फेफड़ों में घुसाकर वहां से नमूना लिया जाता है। हालाँकि भीलवाड़ा में बने दबाव से अब यह बोर्ड माह में 2-3 बार बैठने लगा है। पहचान हो जाये तो भी मुआवजे की राशि मजदूरों के खातों तक पहुँचने में बड़ी दिक्कत है। कुछ मजदूरों का खाता तो जन-धन योजना के तहत खुला था, जिसमें 50,000 रुपयों से ज्यादा की राशि जा नहीं सकती थी, इसलिये उनका चेक वापस आ गया।
मजदूर किसान शक्ति संगठन (एमकेएसएस) के निखिल डे इस प्रक्रिया पर सवाल खड़े करते हुए कहते हैं कि यह विरोधाभासी प्रक्रिया है। वे कहते हैं कि सिलिकोसिस की पहचान होने पर मजदूर को राहत राशि दी जायेगी। लेकिन यह राशि मिलने के लिये मजदूर को न्यूमोकोनोसिस बोर्ड को यह बताना पड़ेगा कि उसने किस खदान में काम किया है। वे कहते हैं कि सामान्यतः मजदूर कई खदानों में काम करते रहते हैं और खान मालिक भी मजदूरों का चुस्त दुरुस्त रिकार्ड नहीं रखते हैं। इसके अलावा एक तथ्य यह भी है कि कुछ लोगों को सिलिकोसिस केवल इसलिये भी हुई क्योंकि वे अप्रत्यक्ष रूप से इसके प्रभाव में हैं। उन्हें भी सिद्ध करना है कि उन्हें सिलिकोसिस कैसे हुई? जबकि माननीय उच्चतम न्यायालय का कहना है कि राहत तो सभी को मिलना चाहिए।
वहीं यदि मजदूर की मौत हो जाए तो उसके परिवारजनों को 3 लाख रूपये की राशि मिलती है। लेकिन इसके पीछे भी एक प्रक्रिया है। प्रभावित की मौत होने के बाद न्यूमोकोनोसिस बोर्ड के समक्ष ही उसका पोस्टपार्टम जरूरी है। उसके बाद ही उसे हकदार माना जाएगा। निखिल कहते हैं कि सिलिकोसिस एक लाईलाज बीमारी है और जब एक बार व्यक्ति का प्रमाणीकरण हो गया है कि वह सिलिकोसिस का ही मरीज है, तो फिर इसके क्या मायने हैं ? यदि कोई मेडिकोलीगल मामला हो तो बात अलग है।
मजदूरों की त्रासदी यहीं नहीं कम होती है। जहाजपुर तहसील के गडबदिया गाँव के मदनदास का दर्द अलग है। उनके गाँव में 150 मजदूरों में से केवल उनका ही सिलिकोसिस का प्रमाणपत्र बना। लेकिन उसके ठीक दूसरे दिन ही उनके सहित 40 लोगों को एक साथ काम से बिठा दिया गया है। एक तरफ श्रम कानून हैं, दूसरी ओर मदनदास जैसे लोग जमीनी चुनौतियों से जूझ रहे हैं।
इन पत्थर खदानों का गणित भी बड़ा ही गजब का है। पत्थर खदान की लीज पाने के लिए आवेदक को जिलाधीश कार्यालय में आवेदन देना होता है। इस आवेदन को कोई भी व्यक्ति कर सकता है, पर यह भी उतना ही सच है कि खदानें रसूखदारों को ही मिलती है? कहने को यह सभी के लिए खुली प्रक्रिया है परन्तु यही प्रक्रिया स्थानीय जनों और पंचायती राज के लिहाज से भी एक चुनौती ही है जबकि हम सभी जानते हैं कि स्थानीय संसाधनों पर स्थानीय समुदाय का ही पहला हक है लेकिन ऐसा होता नहीं है।
अब सरकार कह रही है कि खदान मजदूरों के लिए खुली सांस प्रोजेक्ट शुरू होगा जिसमें कि भीलवाड़ा सहित अन्य 19 जिले शामिल हैं। ज्ञात हो कि राज्य के बीस जिलों के 34 ब्लॉकों में व्यापक स्तर पर खनन का काम होता है। बहरहाल इस पूरी कवायद में यह तो तय है कि अभी हो रहे सारे जतन केवल फटे आसमां में थेगड़े लगाने जैसा है क्योंकि रोकथाम को लेकर तो कोई भी प्रयास नहीं है। हालाँकि इस समस्या का एक सिरा समाज की ओर भी आता है, क्या हम अपने घरों में चमचमाते पत्थरों से परहेज करने की तैयारी कर सकते हैं। (सप्रेस)