आदिवासियों में महुआ एक बहु-उपयोगी पेड होता है, इसलिए कई जनजातियां उसे अपने देवी-देवताओं, पुरखों से भी जोडकर देखती हैं। महुए का एक उपयोगी उत्पाद है, तेल। इसके औषधीय गुणों की चर्चा आयुर्वेद में की गई है। महुआ के फूल, फल, छाल आदि का कई अन्य तरह की औषधि के रूप में भी उपयोग किया जाता है। गोंड और कुछ अन्य आदिवासी जनजातियाँ इसे पवित्र पेड़ मानती हैं और पूजा करती हैं।
परम्परागत रूप से गाँवों में कई प्रकार के तेलों का इस्तेमाल किया जाता था। सोयाबीन जैसे आधुनिक और ‘परिष्कृत’ (refined) तेलों ने इन परम्परगत तेलों को खत्म करने का काम किया है। लेकिन फिर भी कुछ इलाके ऐसे हैं जहाँ अब भी परम्परागत तेलों का न सिर्फ इस्तेमाल होता है, बल्कि देसी तकनीक से तेल निकालने का भी काम किया जाता है। हाल ही में हलबी जनजाति की कुछ महिलाओं को महुआ का तेल निकालते हुए देखा तो उस अनुभव को आप सबके साथ साझा करने से खुद को रोक नहीं पार रहा हूँ।
महुआ (Madhuca longifolia) एक बहुउपयोगी वृक्ष है। इसके औषधीय गुणों की चर्चा आयुर्वेद में की गई है। इसे शीतकारी माना गया है जो ‘पित्त’ को नियंत्रित रखता है। महुआ फूलों के ताज़े रस का उपयोग त्वचा, सिरदर्द और आँखों की बीमारियों में होता है। महुआ के फूल, फल, छाल आदि का कई अन्य तरह की औषधि के रूप में भी उपयोग किया जाता है। यह घना और छायादार पेड़ होता है। गोंड और कुछ अन्य आदिवासी जनजातियाँ इसे पवित्र पेड़ मानती हैं और पूजा करती हैं।
महुआ के खुशनुमा पीले फूल अप्रैल-मई में खिलते हैं और अपनी भीनी सुगन्ध से परिवेश को सराबोर कर देते हैं। इन फूलों में काफी मिठास होती है, बच्चे इन्हें खाते हैं, मवेशी भी इन्हें चाव से खाते हैं। इनमें शर्करा तो होती है है, साथ ही विटामिन सी, प्रोटीन, कैल्शियम, फॉस्फोरस और वसा भी होता है। फूलों की सब्ज़ी बनती है और सुखाकर पीसने के बाद रोटी और पूडी भी। महुए से लड्डू, खीर और अन्य व्यंजन भी बनाए जाते हैं। इनसे शराब भी निकाली जाती है, जो स्वास्थ्य के लिए अच्छी नहीं होती। संस्कृत ग्रन्थों में महुए की शराब को “माध्वी” कहा जाता है। फूलों का मौसम बीत जाने के बाद फल लगते हैं। फलों का गूदा भी खाया जाता है जो मीठा होता है। बीच में गुठली की तरह बीज होता है। उस बीज से तेल निकाला जाता है।
तेल निकालने की विधि
महुआ का तेल निकालने की कई परम्परागत विधियाँ हैं जो क्षेत्र और जनजाति के अनुसार कुछ भिन्नता लिए हुए हैं। यहाँ जो विधि मैंने देखी वह दण्डकारण्य (अबूझमाड) में रहने वाली हलबी जनजाति द्वारा प्रयोग की जाती है।
बीज को कई दिनों तक सुखाया जाता है। अच्छी तरह से सूख जाने पर धीमी आँच पर हल्के से भून लिया जाता है। भूनने के बाद कूटकर उसका चूरा बनाया जाता है। इस चूरे को विशिष्ट तरीके से भाप दी जाती है। एक देगची में पानी भरकर और आँच पर रखकर उबाला जाता है। उस देगची के ऊपर एक बर्तन में इस चूरे को रखकर भाप में पकाया जाता है।
पकाने के बाद फिर एक बार उसकी कुटाई होती है। इसके बाद उसे थैले में कसकर बान्धा जाता है और उसकी छोटी पोटली जैसी बना ली जाती है। ऐसी 2-3 पोटलियों को एक के ऊपर एक रखकर भारी लकडी से बने पारम्परिक उपकरण से कसकर दबाया जाता है। इस प्रक्रिया को बहुत तेज़ी से करना होता है ताकि महुआ के बीजों का पका हुआ चूरा ठण्डा न हो जाए। दबाने की इस प्रक्रिया में काफी ताकत लगती है, लेकिन महिलाएँ इसे फुर्ती और कुशलता के साथ अंजाम देती हैं। दबाने की इस प्रक्रिया से जो तेल निकलता है उसे एक चौडे मुँह वाले बर्तन में इकट्ठा किया जाता है। पोटली को दबाकर जिस उपकरण से तेल निकाला जाता है, वह लकड़ी का बना होता है और ‘lever-fulcrum’ के सिद्धान्त पर काम करता है।
उपयोग
यह तेल आम तौर पर दीया जलाकर रोशनी करने के काम आता है। खाने के लिए इसे पहले इस्तेमाल किया जाता था, पर अब सोयाबीन तेल के हर जगह पहुँच जाने की वजह से परम्बरागत तेलों का इस्तेमाल कम होता है। त्वचा पर मालिश करने और साबुन बनाने के लिए भी इसका इस्तेमाल होता है। तेल निकलने के बाद जो चूरा बचता है, वो मवेशियों के खाने के काम आता है। जैविक खाद के रूप में भी इसका उपयोग किया जा सकता है।
बाज़ार
रास्ते और आवाजाही बढ़ने से जंगल में रहने वाले आदिवासियों का सम्पर्क आधुनिक जीवन-शैली से हो रहा है; जाहिर है कि उसका अच्छा-बुरा असर भी हो रहा है। आधुनिकता की चकाचौन्ध से भ्रमित और बाज़ार की चालाकियों से बेखबर आदिवासी इस सम्पर्क से दोगुने शोषित हो रहे हैं।
भीतरी गाँवों में होने वाले हाट-बाज़ारों में अब ‘रिफाइन्ड’ तेल मिलना आम है। ये 10 रुपए, 20 रुपए के छोटे पाउच में बेचे जाते हैं ताकि आसानी से बिक सकें। तथाकथित मुख्यधारा में शामिल होने के भ्रम में अन्य तमाम चीज़ों के साथ-साथ पॉलिथीन के पाउचों में बिकने वाले तमाम उत्पाद अब आदिवासियों के जीवन का अंग बन रहे हैं। इन्हें खरीदने के लिए उनको पैसों की ज़रूरत होती है जो वे श्रम या जंगल के उत्पाद बेचकर कमाते हैं। तेन्दूपत्ता बीनने, सड़क बनाने जैसे काम करके न्यूनतम मज़दूरी – वह “न्यून” जिसे देकर ठेकेदार इन भोले-भाले आदिवासियों से काम करा सकता है – से भी पैसा मिल जाता है। महुआ के फूल, चारोली, इमली जैसी चीज़ें औने-पौने दाम पर व्यापारी उनसे खरीद लेते हैं। इसके बदले में ये आदिवासी पैकेटबन्द तेल, नमक, मसाले आदि खरीदते हैं।
इसका असर ये हो रहा है कि परम्परागत खाद्यान्न, तेल, दवाइयाँ, मेवे जैसे मूल्यवान उत्पाद बाज़ार के जरिए जंगलों से शहरों में पहुँच रहे हैं और वहाँ से पॉलिथीन में लिपटे दोयम दर्जे के उत्पाद जंगल में बसे गाँवों तक पहुँच रहे हैं।
श्रम और प्राकृतिक संसाधनों की लूट के साथ-साथ यह प्रक्रिया देसी तकनीक और पर्यावरण के लिए भी घातक सिद्ध हो रही है। जंगल आधारित सभ्यता और संस्कृति तो इससे नष्ट हो ही रही है। (सप्रेस)
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